क्या पाकिस्तान ने मुल्ला मुहम्मद मंसूर की मौत का मार्ग सिर्फ़ इसलिए ही प्रशस्त किया था, क्योंकि तालिबान के मुखिया ने काबुल में शांति-वार्ता में भाग लेने से इंकार कर दिया था? आखिरकार मंसूर की ज़िद के कारण ही इस्लामाबाद तालिबान को चतुष्कोणीय समन्वय दल (QCG) के साथ बातचीत के मंच पर लाने के अपने वायदे
उत्तराधिकारी मुल्ला हैब्तुल्ला अखुंदज़ा भी उसकी तरह लड़ाई के मैदान में पाई गई कामयाबी को राजनीतिक समझौते में इस तरह से खोने के लिए तैयार नहीं है कि अधिकांश सत्ता काबुल की “कठपुतली सरकार” को मिल जाए? तालिबान की हठधर्मिता को देखते हुए क्या ऐसा नहीं लगता कि पेंटगॉन ने किसी दैवीय शक्ति द्वारा भेजे गए तालिबान के नेतृत्व से संबंधित उस अवसर को खो दिया, जब वे उसके उत्तराधिकारी को चुनने के लिए एकत्र हुए थे ?
इन सवालों के जवाब, भले ही अनुमान पर ही आधारित क्यों न हों, मोटे तौर पर उस समय के घटनाक्रम पर ही आधारित हैं. हमले के तीन दिन पहले ही तालिबान ने अमरीका, चीन, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के चतुष्कोणीय समन्वय दल (QCG) की इस्लामाबाद में आयोजित शांति-वार्ता का बहिष्कार किया था. पिछली जुलाई में तालिबान के मुखिया के रूप में पदोन्नत होने के बाद से वार्ता-प्रस्तावों के प्रति मंसूर की प्रतिक्रिया एक जैसी ही बनी रही. उसके रुख में अपने पूर्वाधिकारी तालिबान के पहले मुखिया मुल्ला मुहम्मद ओमर की झलक दिखाई देती थी, जिसकी मृत्यु सन् 2003 में पाकिस्तान के एक अस्पताल में हुई बतायी जाती है. मंसूर से परेशान होकर पाकिस्तान के विदेश मंत्री ऐज़ाज़ अहमद चौधरी ने विद्रोही दल के प्रति इस्लामाबाद के पहले से घोषित पूर्ण समर्थन को कुछ कम करते हुए शुक्रवार, 20 मई को यह घोषणा कर दी कि अफ़गानिस्तान को तालिबान के खिलाफ़ कठोर सैनिक कार्रवाई करनी चाहिए. साथ ही उन्हें वार्ता के मंच पर लाने के लिए कुछ “प्रोत्साहन” भी दिये जाने चाहिए. और अगले दिन ही मंसूर मारा गया.
सन् 2011 में ओसामा बिन लादेन की मौत के समय इस्लामाबाद के मुखर आक्रोश की तुलना में मंसूर की मौत से संबंधित इस्लामाबाद की प्रतिक्रिया बहुत धीमी रही. शनिवार, 21 मई को पैंटगॉन द्वारा हमले की घोषणा किये जाने के बाद इस्लामाबाद ने अपना औपचारिक बयान ज़ारी किया जिसमें “हवाई क्षेत्र के उल्लंघन” पर दुःख व्यक्त किया. रविवार को प्रधान मंत्री नवाब शरीफ़ ने भी लंदन से ज़ारी अपने बयान में इस घटना के प्रति अपनी हल्की-सी असहमति प्रकट की. सोमवार को पाकिस्तान में अमरीकी राजदूत डेविड हेल को इस्लामाबाद के विदेश मंत्रालय में बुलाया गया और “पाकिस्तान की प्रभुसत्ता के उल्लंघन” के लिए विरोध पत्र सौंपा गया. उसी दिन आंतरिक मामलों के मंत्री निसार अली खान ने भी ड्रोन के हमले की आलोचना करते हुए इसे “पूरी तरह से गैर-कानूनी और अस्वीकार्य बताया था. साथ ही इस कार्रवाई को देश की प्रभुसत्ता और अखंडता के खिलाफ़ भी माना था”. यह बयान कुछ अधिक कठोर ज़रूर था, लेकिन इसे कट्टरवादी लोगों को तसल्ली देने के लिए ज़ारी किया गया था. सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि गुरुवार तक इस देश के सबसे ताकतवर व्यक्ति सेना प्रमुख जनरल रहील शरीफ़ ने इस बारे में न तो कोई बयान ज़ारी किया है और न ही हेल को एकतरफ़ा कार्रवाई से बाज़ आने के लिए कहा है.
कुछ लोगों ने पाकिस्तान की इस घोषणा के आधार पर ही यह मान लिया है कि मंसूर की मौत में पाकिस्तान का कोई हाथ नहीं है, लेकिन भारतीय नीति-निर्माताओं को इस पर भरोसा नहीं है. अफ़गानिस्तान के मामले में पाकिस्तान के दोहरे खेल के बारे में उनका कठोर मूल्यांकन पिछले कुछ वर्षों में सही सिद्ध हुआ है. नई दिल्ली के पंडितों को पूरा भरोसा है कि मंसूर को बलि चढ़ाकर पाकिस्तानी सेना (जो चार इलाकों की नीति को नियंत्रित करती हैः अफ़गानिस्तान, भारत, अमरीका के साथ संबंध और “रणनीतिक परिसंपत्ति”, जिसमें परमाणु हथियार और लश्कर-ए-तोयबा जैसे जेहादी गुट भी शामिल हैं) ने तालिबान के दूसरे धड़ों और तालिबान के अगले मुखिया को यह संदेश दे दिया है कि पाकिस्तानी सेना और इसकी शक्तिशाली खुफिया एजेंसी आईएसआई की अनदेखी करने पर इसी तरह से भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. साथ ही उसकी मौत में पाकिस्तान की किसी भी प्रकार की भूमिका से इंकार करके पाकिस्तान अमरीका को खराब और अपने-आपको भलामानस योद्धा बताने की कोशिश जारी रखेगा, ताकि वह तालिबान पर हल्की धमकी के साथ अपना प्रभाव बनाये रख सके.
अफ़गानिस्तान को लेकर पाकिस्तान की इस सनक का आधार उसकी यह धारणा है कि भारत काबुल को अपने प्रभाव में लेना चाहता है ताकि पाकिस्तान को “अलग-थलग करके” उसे दो मोर्चों पर घेरा जा सके. इस गतिरोध को इस्लामाबाद “रणनीतिक गहराई” के नाम से अस्पष्ट रूप में परिभाषित करता है. इसी कारण सेना युद्ध के समय पाकिस्तान की सीमित भौगोलिक गहराई की क्षतिपूर्ति के लिए अफ़गानी ज़मीन पर अपना अधिकार मानती है. पाकिस्तानी विश्लेषकों ने जेहादी गुटों को सुरक्षित वैकल्पिक ठिकाना दिलाने के लिए अफ़गानिस्तान की ज़मीन पर अपना प्रभाव और अधिकार कायम करने की ज़रूरत के साथ-साथ बहुत बढ़िया ढंग से भारतीय विमानों के प्रहार से बचने के लिए परमाणु हथियारों को सुरक्षित ठिकानों पर रखने का औचित्य भी सिद्ध कर दिया है. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी और आईएसआई के पूर्व मुखिया लैफ्टिनेंट जनरल असद दुर्रानी लिखते हैं: “रणनीतिक गहराई एक बहुत पक्का विचार है. सभी देश इससे कुछ न कुछ ग्रहण करते हैं और उसे अपने साथ जोड़कर भी रख लेते हैं. यह केवल भौगोलिक या देशीय विचार नहीं है, इसके बहुत-से आयाम हैं: सैन्य, आर्थिक, जनसांख्यिकीय और राजनीतिक भी.”
काबुल में तालिबानी प्रभाव अफ़गानिस्तान में रणनीतिक गहराई से संबंधित इस्लामाबाद की योजना का केंद्रबिंदु है. यही कारण है कि पाकिस्तान को उस देश के दूसरे गुट मोटे तौर पर दबंग पड़ोसी के रूप में देखते हैं. बेशक तालिबानी उनके प्रतिनिधि हैं, फिर भी वे इस्लामाबाद के बजाय अपने हितों को ही देखते हैं. फिर भी पाकिस्तान वास्तव में यही मानता है कि काबुल में पैर जमाने के लिए और वहाँ जमे रहने के लिए भी तालिबान से अच्छा साथी कोई नहीं हो सकता और उसीके ज़रिये भारत पर भी निगाह रखी जा सकती है, क्योंकि अफ़गानिस्तान में और खास तौर पर उत्त्तरी भाग में भारत बेहद लोकप्रिय है, जबकि पाकिस्तान को लोग पसंद नहीं करते.
इसके लिए पाकिस्तान ने चतुष्कोणीय समन्वय दल (QCG) की सदस्यता के लिए तालिबानी नेतृत्व और हक्कानी नैटवर्क पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया है, ताकि वह अफ़गानिस्तान में अपनी सुविधा की युद्धोत्तर सरकार बनवाने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सके. पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अज़ीज़ ने मार्च में अमरीकी दर्शकों को बताया था, “ हमारा उन पर प्रभाव इसलिए भी है, क्योंकि उनका नेतृत्व पाकिस्तान में ही है और हम उन्हें डॉक्टरी सुविधाएँ भी देते रहते हैं और उनके परिवार भी वहीं हैं. इसलिए हम उनका इस्तेमाल उन पर दबाव बनाये रखने के लिए कर सकते हैं और उन्हें वार्ता में शामिल होने के लिए भी राज़ी कर सकते हैं. इस्लामाबाद का खुला अवसरवाद चतुष्कोणीय समन्वय दल (QCG) के सभी सदस्यों को माफ़िक आ रहा है. काबुल हर हाल में चाहता है कि तालिबान से समझौता हो जाए. बीजिंग अपने निकट के मित्रदेश पाकिस्तान का समर्थन इसलिए कर रहा है ताकि युद्धोत्तर स्थायित्व का लाभ उठाकर वह अफ़गानिस्तान का आर्थिक शोषण कर सके और अमरीका को उम्मीद है कि तालिबान को व्यापक आधार वाली सरकार में शामिल करने से उसे सम्मान से साथ अफ़गानिस्तान से बाहर निकलने का रास्ता मिल जाएगा. 2017 की शुरुआत से पहले ही अफ़गानिस्तान में तैनात 9,800 अमरीकी सैनिकों की मौजूदा संख्या में कमी करके 5,500 तक लाने की ज़रूरत है.
काबुल के साथ शांति-वार्ताओं में शामिल होने से तालिबान के साफ़ इंकार करने से यह खेल पहले ही बिगड़ गया था और चतुष्कोणीय समन्वय दल (QCG) में पाकिस्तान की कुर्सी हिलने लगी थी और अफ़गानिस्तान में उसका खेल चौपट होने लगा था. अगर पाकिस्तानी सेना ने मुल्ला मंसूर के खात्मे के लिए अपनी सहमति न दी होती तो खाकी पोशाक में बैठे जनरल, जिनकी मंसूर अब तक अनदेखी करता रहा, अब आँसू बहाते नज़र आते.
मंसूर को वास्तव में किसने मारा, इस सवाल के तीन जवाब हो सकते हैं. पहला जवाब तो यह हो सकता है कि अमरीका ने पाकिस्तान के संघीय दृष्टि से प्रशासित जनजातीय इलाके (FATA) में जिहादी नेतृत्व का खात्मा करने के लिए सशस्त्र ड्रोन हमलों के दौरान अर्जित अनुभव का लाभ उठाते हुए एकतरफ़ा हमला किया. मंसूर पर हमला पाकिस्तान के संघीय दृष्टि से प्रशासित जनजातीय इलाके (FATA) की तरह पड़ोसी बलूचिस्तान में किया गया, ताकि पाकिस्तान की अधिकतर परिसंपत्तियों को पूर्वी मोर्चे पर भारत के पहले से ही संभावित हमलों से बचाया जा सके.
दूसरी संभावना इस बात की है कि यह हमला पूरी तरह से पाकिस्तान के सैन्य अभियान का ही हिस्सा था. इसके लिए ज़रूरी था कि पाकिस्तान को मानवरहित हमले के लिए अमरीकी प्लेटफ़ॉर्म और सिस्टम उपलब्ध कराया गया होगा. दोनों देशों के बीच कम होते विश्वास को देखते हुए इसकी संभावना न के बराबर है. साथ ही वाशिंगटन यह भी जानता है कि पाकिस्तानी सिस्टम में भेद खुलने की आशंका हमेशा बनी रहती है. ऐसी स्थिति में सुरक्षा व्यवस्था बहुत मुश्किल है.
सबसे अधिक संभावना इस बात की है कि यह अमरीका और पाकिस्तान का संयुक्त अभियान रहा होगा. बिन लादेन ऑपरेशन के विपरीत इस ऑपरेशन में अमरीका और पाकिस्तान के जबर्दस्त रूप में साझा हित थे. दोनों ही तालिबानी नेतृत्व को स्पष्ट संदेश देना चाहते थेः हमारे आदेश का पालन करो या मरो. पाकिस्तान की ज़मीनी खुफिया एजेंसी ने मंसूर पर अमरीकी ड्रोन के हमले के लिए सूक्ष्म जानकारी देकर अमरीका की मदद की होगी, क्योंकि बलूचिस्तान में सीआईए का उस तरह का कोई ज़मीनी नैटवर्क नहीं है, जैसा कि उसने खैबर-पख्तूनख्वा में कड़ी मेहनत करके विकसित किया था.
मंसूर की मौत से यह साफ़ हो जाता है कि तालिबान पाकिस्तान का प्रतिनिधि नहीं है, बल्कि एक स्वतंत्र खिलाड़ी है जो अपने संगठनात्मक हितों के लिए ही काम करता है. कई मूल्यांकनों को गलत सिद्ध करते हुए तालिबान के हाल ही के बयानों और हथकंडों (जैसे अखुंदज़ा ने वार्ता का दृढ़ता से विरोध किया है) से यही लगता है कि तालिबान के अधिकांश नेता अभी-भी यही समझते हैं कि काबुल में सत्ता पाने के लिए थके-हारे दुश्मन के साथ समझौता-वार्ता करने के बजाय लड़ाई ज़ारी रखना ही बेहतर है. अमरीका के उन नीति-निर्माताओं को यह कतई स्वीकार्य नहीं है, जिन्होंने तालिबानी धड़े को बिना कोई नुक्सान पहुँचाए बैठक करने की इज़ाजत दी थी ताकि वे अपना एक ऐसा नेता चुन सकें जो पिछले नेता की तरह ही हर हाल में उद्दंड हो. इसका तो यही मतलब हुआ कि अवसर हाथ से निकल गया.
अजय शुक्ला इंडियन बिज़नेस डेली, बिज़नेस स्टैंडर्ड में रणनीतिक मामलों के परामर्शदाता संपादक हैं और‘कैसी’स्प्रिंग 2016 के विज़िटिंग फ़ैलो हैं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919