लगभग पंद्रह साल पहले भारत के केंद्रीय जल आयोग ने चेतावनी दी थी कि विश्व के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश में “जलीय राजनीति, संघवाद के मूलभूत ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने पर तुली हुई है”. वास्तव में सिंधु और ब्रह्मपुत्र सहित सभी नदियों के साथ-साथ उपमहाद्वीप की सभी प्रमुख नदियाँ भी किसी न किसी स्तर पर विवादास्पद ही हैं. वस्तुतः जहाँ अनेक देशों की सीमाओं से जुड़े अंतर्राष्ट्रीय जलमार्ग अधिकाधिक चर्चा में रहते हैं, वहीं भारत की आंतरिक नदियों के संघर्ष भविष्य में बहुत महत्वपूर्ण हो जाएँगे. समकालीन भारत के सबसे अधिक उल्लेखनीय पहलुओं में से एक पहलू है, इसके अनेक अंतर्राज्यीय जल विवाद, जिसके कारण हाल ही में दिल्ली के पास प्रदर्शनकारियों द्वारा कब्ज़ा की गई नहर को वापस लेने के लिए सेना की मदद लेनी पड़ी, जिसके कारण बैंगलोर के आस-पास की आईटी कंपनियों को अपना कारोबार बंद करने के लिए विवश कर दिया गया और आक्रोश में आकर दंगे भड़का दिये गए, जिनमें पड़ोसी राज्यों के राजनेताओं के पुतले फूँक दिये गए. इस बात का गंभीर खतरा मँडरा रहा है कि इन आंतरिक जल विवादों के कारण भारत की राजनीति में अस्थिरता पैदा हो सकती है और क्षेत्रीय शक्ति के रूप में उभरते भारत की प्रगति अवरुद्ध हो सकती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने अनेक चुनौतियाँ हैं, लेकिन भारत के आंतरिक जल विवादों को सुलझाना उनकी प्राथमिकता होनी चाहिए.
निश्चय ही सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय जल विवादों को निपटाने के लिए नीति-निर्माता और मीडिया अधिक आतुर रहते हैं, लेकिन आंतरिक जल विवाद भारत के विकास के लिए निश्चय ही भारी खतरा बन सकते हैं. तमाम चेतावनियों के बावजूद कि पड़ोसी देशों के साथ होने वाले जल-विवाद के कारण भारत और पड़ोसी देशों के बीच युद्ध के बादल मँडरा रहे हैं,लेकिन वास्तविकता तो यह है कि नदियों के पानी के बँटवारे को लेकर इनके बीच युद्ध होने की आशंका बहुत कम है. जहाँ तक ब्रह्मपुत्र का संबध है, इस नदी के एक तिहाई से भी कम पानी का स्रोत चीनी क्षेत्र से निकलता है. यही कारण है कि भारत की नदियों के अपस्ट्रीम पर मौजूद पड़ोसी चीन चाहकर भी नदी के प्रवाह को रोक नहीं कर सकता. हाल ही के तनाव के बावजूद सिंधु सीमा क्षेत्र संधि नदियों के पानी के बँटवारे की विश्व की सबसे अधिक मज़बूत संधियों में से एक है. इस संधि ने पूर्ण पैमाने पर हुए तीन युद्धों को झेला है, लेकिन जहाँ एक ओर इन नदियों के जल विवाद के कारण भारत और इसके पड़ोसी देशों के बीच निकट भविष्य में युद्ध छिड़ने की बहुत कम संभावना है, वहीं आंतरिक जल-विवाद के कारण भारत के टुकड़े-टुकड़े हो सकते हैं.
भारत के जल-विवादों के मूलभूत कारण बहुत जटिल और उलझे हुए हैं. कुछ कारण तो ऐसे हैं, जिनकी पृष्ठभूमि स्वाधीनता से पहले के उन दिनों से जुड़ी है, जब भारत के कुछ हिस्सों पर अंग्रेज़ों का और कुछ हिस्सों पर “देशी रियासतों” के राजाओं का राज था. लेकिन उनमें एक मूलभूत बात सामान्य है: जल-विवाद भारतीय राजनीति का एक हथियार बन गया है और यही इसकी पहचान भी बन गई है. सत्तर के दशक के उत्तरार्ध के बाद से भारत के राज्यों की राजनीति पर वे दल हावी हो गए जिनके समर्थन का मूल आधार ही मुख्यतः स्थानीय जातिगत और भाषाई दल थे. चूँकि भारत के राज्यों की सीमाएँ मुख्यतः भाषाई आधार पर तय की गई हैं, इसलिए ये दल अपने स्थानीय मुद्दों के लिए अधिक से अधिक भारी समर्थन जुटाने में सफल हो जाते हैं और पड़ोसी राज्यों के अलग जातीय-भाषाई हितों के कारण उनकी परवाह भी नहीं करते हैं. बहुत व्यापक होने के कारण भारत का कृषि क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण है और यह मुख्यतः सिंचाई पर निर्भर करता है. यही कारण है कि नदी के जल का प्रयोग राजनैतिक हथियार के रूप में किया जाता रहा है. इसी आधार पर राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियाँ अपने समर्थकों को जुटाती हैं और पड़ोसी राज्यों को अपने हमले का शिकार बनाती हैं. पिछले साल स्थानीय गोआ फ़ॉरवर्ड पार्टी से संबद्ध गोआ के जल मंत्री ने घोषणा की थी कि उनका राज्य अपने पड़ोसी कर्नाटक राज्य के साथ “एक बूँद पानी” भी साझा नहीं करेगा. उस समय कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी शासन में थी.
दुर्भाग्यवश, भारत के पक्षपात पूर्ण विवादों में साझा जलमार्ग का मुद्दा बंधक सा बन गया है. राज्यों के अधिकांश राजनेता इस मुद्दे को उठाकर विवाद पैदा कर देते हैं. कर्नाटक के हाल ही के चुनाव में यह मुद्दा प्रमुख रूप से छाया रहा है. जेडीएस-कांग्रेस के गठबंधन को भाजपा के मुकाबले बहुत ही थोड़े बहुमत से इस मुद्दे पर जीत मिली है. जल-विवाद को राजनैतिक हथियार बनाने से न केवल अंतर्राज्यीय जल-विवादों को सुलझाने में दिक्कतें आती हैं, बल्कि इससे आर्थिक विकास की गति भी अवरुद्ध हो जाती है. नदियों के जल विवादों को न्यायालयों में ले जाने की प्रतिक्रिया-स्वरूप होने वाले विरोध प्रदर्शनों के कारण भारत के अनेक बड़े राज्यों के बीच व्यापार और परिवहन के लिंक भी अस्त-व्यस्त हो गए हैं, जिसके कारण झुँझलाकर एक विशेषज्ञ यह कहने को विवश हो गए कि इन तमाम विरोध प्रदर्शनों के कारण “समय और संपत्ति की हानि होती है.” अंततः यही एक बात समझ में आती है कि भारत के आंतरिक जल-विवादों को सुलझाने के मामले में राज्यों से अपने स्तर पर इन विवादों को सुलझाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती. नई दिल्ली को ही आगे बढ़कर भारत के जल-विवादों को निपटाने में अग्रणी भूमिका निभानी होगी.
आंतरिक जल-विवादों को निपटाने में केंद्र सरकार की भूमिका का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना स्वाधीन भारत का इतिहास. देश के संस्थापक सदस्यों को इस बात का एहसास था कि राज्यों के बीच जल-मार्गों को साझा करने के उद्देश्य से उनके बीच आपसी सहयोग बढ़ाने में केंद्र सरकार की विशेष भूमिका रहेगी और यही कारण है कि उन्होंने भारत की संघ सरकार को विशेष शक्तियाँ प्रदान कीं. इन शक्तियों के अधीन केंद्र सरकार अंतर्राज्यीय विवादों के अधिनिर्णयन के लिए न्यायाधिकरण का गठन कर सकती है और बड़े जल-मार्गों के प्रबंधन का प्रभावी रूप में राष्ट्रीयकरण भी कर सकती है, लेकिन भारत की चुनावी प्रणाली निरंतर चलने वाले इन अंतर्राज्यीय जल-विवादों को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार की भूमिका को निरुत्साहित करती है. अंतर्राज्यीय विवादों में राज्य स्तर पर जीतने या पराजित होने वाली पार्टी में से किसी एक का पक्ष लेकर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही निश्चित रूप में राज्य स्तर पर चुनाव हार सकते हैं. इस बात पर कोई विस्मय नहीं होना चाहिए कि दिल्ली जब भी अक्सर बहुत ही संयत तरीके से आम सहमति बनाने की कोशिश करता है तो वह विवादग्रस्त राज्यों को समझौते की मेज़ पर लाने के उद्देश्य से विवश करने के लिए सख्त कदम उठाने या प्रोत्साहन और दंड की नीति अपनाने से भी कतराता है. केंद्रीय नेतृत्व के अभाव में अंतर्राज्यीय जल-विवादों को सुलझाने के लिए गठित न्यायिक अधिकरणों को कई दशक लगा जाते हैं,लेकिन जब वे अंततः अपना निर्णय देते हैं तो अक्सर उनके विधिसंगत होने पर ही सवाल उठने लगते हैं
मौजूदा सरकार को यह श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने अंतर्राज्यीय जल-विवादों की समस्या से निपटने के लिए अनेक कदम उठाये हैं. इस सरकार ने अंतर्राज्यीय जल-विवादों से संबंधित समस्याओं से निपटने के लिए केंद्र सरकार को अधिक संवैधानिक अधिकार देने और ऐसे ही विवादों को सुलझाने के लिए पूरी तरह समर्पित एकल न्यायाधिकरण गठित करने का प्रस्ताव रखा है, जिसमें जल-प्रबंधन से संबंधित विशेषज्ञों को भर्ती किया जाएगा. इन सुधारों की प्रगति पर नज़र रखना बेहद महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि अतीत में भी ऐसे प्रयास किये गये हैं और वे सफल नहीं हो पाए हैं, लेकिन यह देखना और भी महत्वपूर्ण होगा कि क्या दिल्ली और राज्य, जल-संसाधनों के प्रबंधन के लिए गैर-सरकारी और सिविल सोसायटी के दलों को अधिकाधिक भूमिका सौंपते हैं. ये दल साझा जल-संसाधनों के परस्पर-सहयोगी और स्थायी प्रबंधन के लिए अक्सर सबसे अधिक सुलझे हुए लोग सिद्ध होते हैं. उदाहरण के लिए, ऐसे दलों ने बहुत ही शालीन स्वर में महानदी के बेहद जटिल विवाद को सुलझाने के प्रयास शुरू कर भी दिये हैं, लेकिन अक्सर निर्णय लेने के समय इनकी आवाज़ बंद कर दी जाती है. इस मामले में फ्रांस की “जल संसद” प्रणाली के मॉडल का अनुसरण किया जा सकता है. इस “जल संसद” को देश की नदियों के प्रबंधन का दायित्व सौंपा गया है और इस संसद में गैर-सरकारी और पर्यावरण से संबंधित संगठनों के लिए कुछ सीटें आरक्षित कर दी गई हैं, लेकिन इस दिशा में भारत कितना आगे बढ़ता है, इस बात की परवाह किये बिना भी यह महत्वपूर्ण होगा कि आंतरिक जल-विवादों को खत्म करने की दिशा में किये गये प्रयासों पर नज़र रखी जाए, क्योंकि यह एक ऐसी चेतावनी है जिसे बहुत कम समझा गया है, फिर भी स्थिरता और विकास के लिए यह सबसे अधिक भयानक चेतावनी है.
स्कॉट मूर एक राजनैतिक वैज्ञानिक हैं. वह इस समय विश्व बैंक में जल-राजनीति के विशेषज्ञ हैं और Subnational Hydropolitics (Oxford University Press, 2018) के लेखक भी हैं. वह इस समय विश्व बैंक में जल संसाधन प्रबंधन विशेषज्ञ हैं. 2018 के पतझड़ (फ़ॉल) से वह प्रैक्टिस इन स्कूल ऑफ़ आर्ट्स ऐंड साइसेंस के एसोसिएट प्रोफ़ेसर और पेन्सिल्वेनिया विवि में वाटर सैंटर के वरिष्ठ फ़ैलो हो जाएँगे.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919