


किसी भी आधुनिक राष्ट्र की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है अपने सर्वाधिक असहाय नागरिकों का ध्यान रखना. जो देश गरीब हैं और साथ ही लोकतांत्रिक भी, उन देशों में यह और भी अधिक आवश्यक है. भारत में ये दोनों ही स्थितियाँ हैं. 2019 के वैश्विक भुखमरी सूचकांक में 133 देशों में भारत का स्थान 102 है. 2015-16 में किये गए राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) में बिल्कुल हाल ही में किये गए संशोधन के अनुसार हालाँकि कुपोषण के संकेतकों में सुधार के कुछ संकेत मिले हैं, लेकिन वे अभी-भी स्वीकार्य नहीं हैं. ये संकेतक अभी भी उच्च स्तर पर हैं और खास तौर पर बेहद गरीब, उत्तरी और अधिकांशतः ग्रामीण राज्यों में ये संकेत बिल्कुल स्पष्ट हैं.
भारत में सर्वाधिक अनिश्चित स्थितियों में रहने वाले नागरिकों की मदद करने में हम कितने विफल रहे हैं, इसका पूरा पर्दाफ़ाश 24 मार्च को कोविड-19 के नये विषाणु को फैलने से रोकने के लिए लागू किये गए अप्रत्याशित देशव्यापी लॉकडाउन के बाद जगजाहिर हो गया. हालाँकि सरकार ने इस लॉकडाउन में कुछ ढिलाई तो दे दी है, लेकिन देश के अधिकांश भागों में जहाँ कोविड-19 का प्रकोप अभी भी बढ़ रहा है, यह लॉकडाउन पूरी तरह लागू है. इस बीच, प्रवासी मज़दूरों, वयोवृद्ध नागरिकों और दिव्यांग जनों के साथ-साथ उन तमाम लोगों की हालत भी बहुत अनिश्चित हो गई है, जो दो-जून रोटी कमाकर अपने-आपको मुश्किल से ज़िंदा रख पाते हैं.
26 मार्च को केंद्र सरकार ने लॉकडाउन के वज्रपात से कुछ हद तक सँभलने के लिए आरंभिक वित्तीय मदद की घोषणा की थी. जहाँ एक ओर यह पैकेज अपेक्षाकृत बहुत सीमित था- सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का लगभग 0.9 प्रतिशत-इस पैकेज के दो मुख्य बिंदु थे: सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से खाद्यान्न के राशन का प्रावधान और निम्न आय वाले परिवारों को नकद राशि का अंतरण. यह अंतरण तथाकथित “JAM” के बुनियादी ढाँचे के माध्यम से करने की व्यवस्था की गई. (यह त्रिवेणी है, प्रधानमंत्री जन-धन योजना के अंतर्गत खोले गए बैंक खाते, आधार बायोमैट्रिक प्रमाणीकरण और किसी मोबाइल उपकरण से प्राप्त पैसे). हाल ही के सप्ताहों में सरकार ने नकदी की उपलब्धता (तरलता) की बाधाओं को कम करने के लिए प्रवासियों और किसानों के लिए (सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) का विस्तार करके यह सुविधा किसानों को भी उपलब्ध कराने के साथ-साथ) उनका बोझ कम करने और कृषि एवं ग्रामीण बुनियादी ढाँचे को मज़बूती प्रदान करने के लिए पूरक पैकेजों की घोषणा की है.
केंद्र सरकार के आरंभिक प्रावधान की पर्याप्तता पर बहस में उलझने के बजाय एक सवाल तत्काल पूछना आवश्यक लगता है कि क्या मदद की यह राशि वांछित लाभार्थियों तक सचमुच पहुँच पाएगी. आदर्श स्थिति तो यही होगी कि इस सवाल के मूल्यांकन के लिए हम वास्तविक समय के डेटा को देखना चाहेंगे. अनेक सामाजिक वैज्ञानिक इस डेटा को संकलित करने की होड़ में लगे होंगे, लेकिन इस लेख में हमने ( पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के भारत के उन्नत अध्ययन केंद्र (CASI), नीति शोध केंद्र और अशोक विश्वविद्यालय के सहयोगी गण) अपने निष्कर्ष विशिष्ट परिवार-सर्वेक्षण से प्राप्त डेटा के आधार पर निकाले हैं. यह सर्वेक्षण 2018-19 में बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के राज्यों में किया गया था. इन तीन राज्यों में हमने 9,500 परिवारों का सर्वेक्षण किया था और इनका चयन यादृच्छिक आधार पर तीन शहरी संकुलों (धनबाद, पटना और वाराणसी) और दो घंटे की यात्रा दूरी में फैले हुए ऐसे ग्रामीण परिवारों से किया गया था, जिन्हें मोटे तौर पर उचित रूप में व्यापक शहरी ईको सिस्टम का ही भाग माना जा सकता था. ये भूभाग अध्ययन के लिए दो कारणों से महत्वपूर्ण थे. एक कारण तो यह था कि ये इलाके अन्य इलाकों की तुलना में सुविधाओं से अपेक्षाकृत अधिक वंचित थे और दूसरा कारण यह था कि इनकी आबादी बहुत ज़्यादा थी.
हमने तीन स्थलों के जिन 9,617 परिवारों का सर्वेक्षण किया था, उनमें से 67 प्रतिशत को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से खाद्यान्न की मदद पहले से उपलब्ध थी. हालाँकि उन परिवारों तक राशन पहुँचने या बीच में ही रिसाव या भ्रष्टाचार के कारण लगभग दो-तिहाई परिवारों तक ही राशन का खाद्यान्न पहुँच पाता था, फिर भी हमने अपने सर्वेक्षण में पाया कि मोटे तौर पर ये परिवार सरकार के सुरक्षा जाल से लाभान्वित हो रहे हैं.
जहाँ तक सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की सुविधा से रहित शेष परिवारों का संबंध है, उनमें से अधिकांश परिवार (61 प्रतिशत) पारिवारिक परिसंपत्ति के हमारे सूचकांक पर औसत से ऊपर हैं और वे संपत्ति की दृष्टि से ठीक-ठाक स्थिति में हैं और यही कारण है कि वे सार्वजनिक मदद पर निर्भर नहीं हैं. इन परिवारों के पास बाज़ार से सीधे अनाज खरीदने के लिए पर्याप्त आर्थिक साधन हैं. जैसा कि चित्र-1 में दर्शाया गया है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) से लाभान्वित होने वाले सबसे गरीब परिवार वाले शहरों की स्थिति अलग-अलग है; धनबाद में इनका आँकड़ा सबसे अधिक (81 प्रतिशत) है, उसके बाद वाराणसी में (69 प्रतिशत) और पटना में (64 प्रतिशत) है, लेकिन परिवारों की भौगोलिक स्थिति को अगर छोड़ दिया जाए तो सब्सिडी वाले खाद्यान्नों की पहुँच नाटकीय तौर पर उन परिवारों में कम होती जाती है, जो परिसंपत्ति (हमारे सर्वेक्षण के नमूने में सर्वाधिक संपन्न) की दृष्टि से रैंक में 75 प्रतिशतक से ऊपर हैं.
चित्र 1: पारिवारिक परिसंपत्तियाँ और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) तक पहुँच
इसका अर्थ यह है कि समग्र नमूने के लगभग 15 प्रतिशत (14.3 प्रतिशत बिल्कुल सही) हमारे औसत संपत्ति के मापदंड से नीचे हैं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के जाल से छूट गए हैं. हमारे हिसाब से यही सबसे अधिक कमज़ोर और असहाय लोग हैं, जिन पर सरकार को ध्यान देना होगा.
परंतु अपेक्षाकृत वंचित वर्ग में से भी 80 प्रतिशत परिवारों की रिपोर्ट से पता चलता है कि अपने घर पर रहने वाले कम से कम एक सदस्य की तथाकथित “JAM त्रिवेणी” के सम्मिलित तत्वों तक पहुँच है. यह एक उदार परिभाषा है, जिसमें हमने किसी न किसी तरह का कम के कम एक बैंक खाता रखने वाले परिवार को शामिल किया है, भले ही वह “जन धन” खाता हो या न हो.
यह तथ्य कि पिरामिड के निचले स्तर पर रहने वाले परिवारों का एक महत्वपूर्ण प्रतिशत स्वतः ही यह दर्शाता है कि त्रिकोण पर उनकी पहुँच इस बात का प्रमाण है कि भारत ने परिवारों के बैंक खातों में सीधे प्रत्यक्ष लाभ को अंतरित करने के लिए आवश्यक सामाजिक बुनियादी ढाँचे का विस्तार कर लिया है.
भले ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) से इन गरीब परिवारों का जीवन प्रभावित न होता हो तो भी सिद्धांततः वे केंद्र सरकार ( और राज्य सरकारों द्वारा घोषित विभिन्न प्रकार की अनुपूरक योजनाओं) से मिलने वाली नकदी की छोटी से छोटी रकम से भी लाभान्वित हो सकते हैं. हमारे सर्वेक्षण के नमूने में सबसे खराब स्थिति जिन परिवारों की है, उनका प्रतिशत 2.2 प्रतिशत है (चित्र 2 देखें). ये वे परिवार हैं जिनके पास बहुत कम परिसंपत्ति है, लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की सुविधा उनके पास नहीं है और JAM त्रिकोण की कम के कम एक टाँग उनके पास नहीं है. यह तो मानना ही होगा कि (निरपेक्ष रूप में) हमारे डेटासैट में ऐसे परिवारों की संख्या बहुत कम है, लेकिन अगर व्यापक आबादी में इनकी संख्या को बहिर्वेशित किया जाए तो इनकी तादाद बहुत बड़ी हो सकती है.
चित्र 2: भारत के सामाजिक सुरक्षा जाल की पहुँच का मूल्यांकन
जनसंख्या में ये 2 प्रतिशत कौन हैं? हमारे अध्ययन के अनुसार उत्तर भारत की पट्टी में ये “छूटे हुए” परिवार कुछ हद तक ग्रामीण लोग हैं जो नीची जाति की पृष्ठभूमि से आते हैं और उनके पास फ़्लश टॉयलेट या बिजली जैसी सुविधाएँ भी संभवतः नहीं होतीं (चित्र 3). दिलचस्प बात तो यह है कि औसतन इनके परिवार का आकार छोटा होता है. सुरक्षा जाल के बाहर रहने वाले 37 प्रतिशत परिवारों में तीन या चार व्यक्ति ही होते हैं ( जबकि इसके मुकाबले सुरक्षा जाल के अंदर रहने वाले लोगों का प्रतिशत केवल 16 प्रतिशत ही होता है).
चित्र 3 : हमारे सर्वेक्षण के नमूने में सर्वाधिक वंचित परिवारों की विशिष्टताएँ
अब तक इस संकट के दौरान जो प्रावधान किया गया है, उसमें सरकार धीरे-धीरे अपने खाद्यान्न सुरक्षा जाल को बढ़ाती रही है और इस वृद्धि के अंतर्गत सरकार ने मौजूदा राशन की मात्रा को बढ़ाने के साथ-साथ उन प्रवासियों को भी शामिल कर लिया है जो अब तक जिस राज्य में रहते थे, वहाँ खाद्यान्न सब्सिडी के लाभार्थी नहीं थे. इन प्रवासियों को अल्पकालिक अनाज की मदद दी गई है. और निश्चय ही यह एक स्वागत योग्य कदम है कि सरकार ने घोषणा की है कि मार्च 2021 तक सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) को सभी राज्यों में पूरी तरह पोर्टेबल बना दिया जाएगा. उम्मीद है कि राष्ट्रीय सुरक्षा जाल को समन्वित करके स्थान-आधारित बनाने के बजाय व्यक्ति-आधारित बना दिया जाएगा.
हमारे डेटा के अनुसार सुरक्षा जाल का अंतराल शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाकों में सबसे अधिक गरीब परिवारों में ही है. ये वही लोग हैं जो सुरक्षा जाल से बाहर छूट गए हैं और JAM के बुनियादी ढाँचे के माध्यम से भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाते. फिर भी हमारे सर्वेक्षण में आने वाले लोगों के एक छोटे से वर्ग को ही हमने सबसे अधिक वंचित वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया है (ये वे लोग हैं जो न तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के अंतर्गत आते हैं और न ही JAM के बुनियादी ढाँचे में आते हैं). सभी में से केवल दो परिवार ही ऐसे हैं जिनके कम से कम एक सदस्य के पास आधार कार्ड है. सरकार को अगर धोखा-धड़ी या दुरुपयोग की चिंता है तो उसे चाहिए कि वह इस समूह विशेष के लिए प्रमाणीकरण की शर्त पर अनाज के राशन की दुकान खोले. लेकिन यह याद रखना होगा कि ऐसे अप्रत्याशित संकट के समय समावेशन की गलतियाँ बहिष्करण की गलतियों से कम परिणामकारी होंगी. रिसाव और जवाबदेही के सरोकारों पर मानवीय भावनाएँ अधिक हावी होनी चाहिए.
देवेश कपूर जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय स्कूल ऑफ़ ऐडवान्स्ड इंटरनेशनल स्टडीज़ के दक्षिण एशिया अध्ययन में स्टार फ़ाउंडेशन प्रोफ़ेसर हैं और CASI के पूर्व निदेशक (2006-18) रहे हैं.
मिलन वैष्णव कारनेई ऐंडोमैंट फ़ॉर इंटरनेशनल पीस के सीनियर फ़ैलो और निदेशक हैं.
वरली डॉसन स्टैनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के विद्यार्थी हैं.
यह लेख CASI – प्रवर्तित अध्ययन “ उत्तर भारत में शहरीकरण के बहुविध प्रभावः लिंग, आर्थिक अवसर और सामाजिक परिवर्तन” के डेटा से लिया गया है.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919