भारत के कारोबारी समुदाय के लिए यह दशक अस्थिरता से भरा रहा है. भारत में उदारीकरण के बाद कारोबार करने के कुछ पैटर्न पर बहुत बुरा असर पड़ा है और इसके साथ ही कई ऐसे व्यापार मालिकों की किस्मत ने भी उनका साथ नहीं दिया, जिन्होंने तीस साल पहले भारत की अर्थव्यवस्था को यथाशीघ्र खोलने के लिए अपने कारोबार को दाँव पर लगा दिया था. वित्तीय क्षेत्र के उच्च निवल मूल्य वाले व्यक्तियों (HNIs) के भारत से बाहर चले जाने और कर संबंधी कारणों और धन संरक्षण के लिए वैकल्पिक नागरिकता और आवासी सुविधा पाने के इच्छुक लोगों की संख्या इस दशक में बढ़कर सबसे अधिक हो गई है. आवाजाही की चिंताओं के साथ-साथ कोविड-19 के कारण भी इसमें बाधा ज़रूर पड़ी है. दूसरी ओर, हमने भारत के स्टार्टअप युनिकॉर्न के प्रतिनिधि उद्यमियों के एक नए वर्ग को उदय होते हुए भी देखा है और साथ ही साथ कुछ बड़े कारोबारी समूहों की किस्मत को भी चमकते हुए देखा है. उद्योगों की एक श्रृंखला में, भारत में पूँजी का संकेंद्रण उदारीकरण के बाद के नए शिखर पर पहुँच रहा है क्योंकि बड़े व्यापारिक समूहों के अधिग्रहण (स्टार्टअप, दिवालिया फ़र्म, बुनियादी ढाँचा संपत्ति, नए अनुबंध आदि) की सूची हर महीने सुर्खियों में रहती है. जो लोग प्रतिस्पर्धा और मंथन में विश्वास करते हैं, उनके लिए यह एक खतरे की घंटी है. यह उदारीकरण के बाद के कुछ दशकों में देखी गई अर्थव्यवस्था जितनी उद्यमशीलता की तेज़ी के ठीक उलट है. हालाँकि, उन तमाम लोगों के लिए जो बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं के माध्यम से भारतीय राष्ट्रीय चैंपियन बनने की उम्मीद रखते हैं, यह आवश्यक समेकन है, जो रचनात्मक विनाश के एक अपरिहार्य चक्र का विनाशकारी पहलू है.
इस किस्से का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भारत के आर्थिक विकास के प्राथमिक इंजन के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग (PSB) प्रणाली का पतन है. हालाँकि सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग (PSB) प्रणाली के माध्यम से ही अभी भी भारत में अधिकांश ऋण दिए जाते हैं, भारत की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) पर मँडराते संकट की लंबी छाया ने उन्हें सिकुड़ते बाज़ार शेयर के बीच छोड़ दिया है और गहन संस्थागत जोखिम का खतरा (विशेष रूप से औद्योगिक और बुनियादी ढाँचे के लिए ऋण के कारण) बढ़ गया है, सार्वजनिक मंडियों में (स्टॉक मूल्यों में भारी कमी के कारण) भरोसे में कमी आ गई है और राजनीतिक और नौकरशाहों की हेरा-फेरी से मुक्त रहने की उनकी क्षमता में उन्हें भारी संदेह पैदा हो गया है.
पेंशन फंड, सॉवरेन वेल्थ फंड, निजी इक्विटी निवेशकों, बहुराष्ट्रीय निगमों (MNCs) और बहुपक्षीय वित्त संस्थानों से आने वाली सस्ती पूँजी से भरी दुनिया में, भारत के अनेक सबसे बड़े व्यापारिक समूह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSB) की ऋण प्रणाली से बाहर निकलने का विकल्प चुन रहे हैं. वे अक्सर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSB) के ऋणों के साथ संबद्ध राजनीतिक वित्तपोषण की व्यवस्था के अधीन काम करने के बजाय विदेशी स्रोतों से पूँजी जुटाने और बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNCs) के साथ दीर्घकालिक व्यापार व्यवस्था करना पसंद करते हैं.
नई अर्थव्यवस्था और छोटे कारोबारियों को शायद ही कभी सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग (PSBs) प्रणाली तक पहुँचने का विशेषाधिकार मिलता है; सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) द्वारा शाखा-स्तरीय स्थानीय ऋण देने की पिछली संस्कृति पिछले कुछ दशकों में काफ़ी खराब हो गई है और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) के लिए स्टार्टअप्स के वित्तपोषण पर विचार करने या सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) के ईको सिस्टम पर बड़े दाँव लगाने पर बारहमासी ऊर्ध्वमुखी लड़ाई-सी बन गई है. जब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) ने गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFCs) के माध्यम से मध्यवर्ती ऋण देने में अपना हाथ आजमाया, तो दुर्भाग्य से इसने ऑन-लैंडिंग (जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर लीजिंग ऐंड फ़ाइनेंशियल सर्विसेज़ लिमिटेड) के केंद्रीभूत रूपों को जन्म दिया है, जिनके निशान अभी भी ताजा हैं. मुख्य रूप से बड़े निगमों को ऋण की सुविधा प्रदान करने में सुविधा महसूस करने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) ने अपने पीछे जो पूँजी छोड़ी है, उसके अंतराल को आंशिक रूप में ही सही, लेकिन अपर्याप्त रूप से,सहकारी समितियों, क्षेत्रीय बैंकों, छोटे वित्तीय बैंकों, छोटी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ (NBFCs), फ़िनटैक स्टार्टअप और निश्चित रूप से अन्य अनौपचारिक वित्तीय संस्थाओं जैसे छोटे वित्तीय खिलाड़ियों द्वारा भरा गया है.
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) के पास अभी-भी निवेश करने के लिए बड़ी मात्रा में जमाराशियाँ मौजूद हैं लेकिन इस समय ऋण पाने के इच्छुक अपनी पसंद के अनेक बड़े भारतीय कारोबारियों को उन्होंने ऋण देना बंद कर दिया है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) से भगदड़ आंशिक रूप से इस बात का परिणाम है कि उन्होंने भारत के नए दिवालियापन कानून को कैसे लागू किया है; वित्तीय संकट में प्रमोटरों को दिवालियेपन की कार्यवाही के माध्यम से अपनी संपूर्ण स्वामित्व की हिस्सेदारी खोने का खतरा लगने लगा है. ये कारोबार अक्सर प्रतिष्ठा और पूँजी के नेटवर्क (कभी-कभी अयोग्य) पर बनाए जाते थे, जिन्हें प्रमोटर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) और राजनीतिक व्यवस्था के साथ व्यापक रूप में बना लेते थे. आश्चर्य नहीं कि कई प्रमोटरों ने इनसॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड (IBC) से संबद्ध नई कार्यवाही के साथ हेरा-फेरी करने की कोशिश में इस कानून के साथ खिलवाड़ करने के लिए हर तरह के हथकंडे आज़माए हों. भले ही जोखिम से बचने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) ने बॉर्डरलाइन वाले ऐसे मामलों में ही इनसॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड (IBC) को लागू किया था, जिनमें समझौते की बहुत कम गुंजाइश थी, बाज़ार-मूल्य से उनकी संपत्ति बहुत कम थी या अन्य हल्के प्रस्ताव भी रखे गए थे, जिन्हें बैंकर मंदी के दौरान इस्तेमाल करते हैं.
2010 के मध्य में नौकरशाही को प्रभावित करने वाली नीतिगत बीमारी अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में फैल गई है और इसके परिणामस्वरूप, औद्योगिक ऋणों में वृद्धि अब तक के सबसे निचले स्तर पर आ गई है. अपने अनेक बैंकिंग सहयोगियों की गिरफ्तारी और उनके अपराध सिद्ध होने और वरिष्ठ स्तर के प्रबंधकों और दोषी उधारकर्ताओं के अपेक्षाकृत बच निकलने से घबराकर कई मध्य-स्तर के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) के प्रबंधक कारोबार को इनसॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड (IBC) को भेजना पसंद करते हैं और यथासंभव ऐसे औद्योगिक ऋणों से अधिकतर बचने का प्रयास करते हैं, जो अनिवार्यतः राजनीतिक ऋण प्रक्रिया के नकारात्मक जोखिम से जुड़े रहते हैं. जो कारोबारी (भारत के बड़े व्यापारिक समूहों और अच्छी क्रैडिट रेटिंग्स वाले कारोबारियों को) ऋण प्रदान करने के इच्छुक रहते हैं, वे हमेशा अपना पैसा ही नहीं देखते.
इस जटिल ईको सिस्टम को ठीक करने और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) और वित्तीय मंडियों में सार्थक सुधार लाने के बजाय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) की पूरी तरह से अनदेखी करने की प्रवृत्ति पनप रही है. सत्ता के नये दलाल वे हैं जो विदेशी पूँजी की भाषा बोल सकते हैं: ये हैं स्टार्टअप के वे संस्थापक जो अपने नज़रिये को उन वैंचर पूँजीपतियों और व्यापारिक घरानों को बेच सकते हैं, जो FAANG (Facebook, Amazon, Apple, Netflix, Google) कंपनियों से निवेश ला सकते हैं और उन्हें भारत के अप्रत्याशित कारोबारी परिवेश में विश्वसनीय राजनीतिक मध्यस्थता की पेशकश कर सकते हैं, वे निकट भविष्य में उभरने वाले स्टार्टअप युनिकॉर्न, जिनकी आरंभिक सार्वजनिक पेशकश (IPO) के मूल्यांकन में निजी इक्विटी की त्वरित खुराक मिलने पर तेज़ी से वृद्धि हो सकती है, वे रियल इस्टेट समूह, जो ग्रीन-प्रमाणित व्यावसायिक रियल इस्टेट के निर्माण के लिए टियर-1 भारत में इच्छुक ESG फ़ंड में बड़ी रकम लगा सकते हैं और जो अंतर्राष्ट्रीय पूँजीपतियों और भारतीय कारोबार के बीच सौदेबाजी कर सकते हैं. पूँजी के लिए मध्यस्थता करना और उस पर नियंत्रण बनाये रखना हमेशा ही महत्वपूर्ण रहा है लेकिन उन तमाम किरदारों और वित्तीय संस्थाओं को जिनमें पिछले एक दशक में ही नाटकीय परिवर्तन आया है, निजी इक्विटी फ़र्मों के साथ हाथ मिलाने वाले बैंकिंग क्षेत्र के अनेक पूर्व दिग्गजों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNCs) के सलाहकारों के साथ देखा जा सकता है.
संभवतः इस संक्रमण के सबसे अधिक गंभीर परिणामों में से एक है, बड़ी वित्तीय संस्थाओं में क्षेत्रीय और स्थानीय ऋण प्रक्रियाओं का क्षरण. मार्च 2020 के अंत तक पूरे देश का 54 प्रतिशत ऋण वितरण भारत के दस जिलों में हुआ था. राष्ट्रीयकरण से पूर्व सिंडीकेट बैंक जैसे बैकों की प्रतिष्ठा इस बात के लेकर थी कि उन्हें छोटे उधारकर्ताओं और उनके कारोबार के साथ-साथ उनकी ऋण संबंधी आवश्यकताओं और उसका भुगतान करने की उनकी क्षमता की भी अच्छी जानकारी रहती थी. पिछले कुछ दशकों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) सहित कई बड़ी वित्तीय संस्थाएँ बड़े टिकट वाले ऋणकर्ताओं के पीछे भागने लगी हैं, जिसका नुक्सान उनकी शाखाओं और स्थानीय लेन-देन को भी होने लगा है. छोटे ऋणकर्ताओं को टालने का एक कारण यह भी है कि भारी-भरकम चैकलिस्ट, विनियमन संबंधी आवश्यकताओं और कागज़ी कार्रवाई के कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) के प्रशासनिक खर्च में बढ़ोतरी होने लगी है.
बैंकिंग प्रणाली के सामने एक बड़ा सवाल यह भी मँडराने लगा है: क्या भारत के अनुसूचित बैंक देश-भर के छोटे और बड़े, औपचारिक और अनौपचारिक कारोबारियों को सचमुच पूँजी उपलब्ध करा रहे हैं? बैंकिंग गतिविधियों के डिजिटलीकरण और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFCs) द्वारा ऋण देने के लिए अधिक उदार नीतियाँ अपनाने के कारण प्रमुख प्रौद्योगिकीय नवाचारों का जन्म हुआ है; Aye Finance जैसे स्टार्टअप्स ने कारोबारियों को लक्षित करके स्थानीय ऋण देना शुरू कर दिया है और कई निजी बैंक भी ऐसी छोटी इकाइयों को सह-ऋण प्रदान करने की संभावनाओं को तलाश कर रहे हैं जो अपने नैटवर्क और स्थानीय जानकारी के कारण सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) को ऋण देने की प्रक्रिया को अधिक प्रभावी बना सकते हैं. लेकिन लगता है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक (PSBs) छोटी इकाइयों के साथ संपर्क बढ़ाने में झिझक महसूस करते हैं और बड़े व्यापारिक घरानों के साथ संबद्ध गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFCs)
के साथ ही भागीदारी करना पसंद करते हैं. स्वाभाविक है कि इसके कारण चिंताएँ बढ़ने लगी हैं. भारत में छोटे कारोबारियों को उधार देना कोई ऐसी विशिष्ट गतिविधि नहीं होनी चाहिए जहाँ नीति निर्माण के दौरान भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक जैसे संगठनों से कभी-कभार सलाह ली जाती है; यह हर बड़े बैंक की मूलभूत क्षमता थी और होनी भी चाहिए. फिर भी पिछले तीस वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक (PSB) ने व्यापक तौर पर दूसरी दिशा में ही कदम बढ़ाये हैं.
आर्थिक केंद्रीकरण अलग-अलग रूप बदलकर आ रहा हैः कुछ भौगालिक इलाकों में उधार पाने योग्य कारोबारियों को ही ऋण प्रदान करने से ये कारोबारी विदेशी पूँजी बाज़ार में प्रवेश नहीं कर पाते और अपने देश में अधिकांश ऋण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक (PSBs) से ही प्राप्त करने के लिए विवश होते हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने ही स्तर पर काम करने के बजाय स्थानीय प्रतिष्ठित फ़र्मों के साथ साझेदारी करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. जैसे-जैसे भारत कोविड-19 के दुष्परिणामों और गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) के संकट से उबर रहा है, वहाँ हमारे सामने एक अवसर भी मौजूद है,जहाँ बैंक भारत के कारोबारियों को ऋण प्रदान करने की अपनी नीति को नया स्वरूप प्रदान कर सकते हैं. लेकिन अभी तक, राजकोषीय प्रोत्साहन और सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) के विकास की बयानबाजी ही होती रही है और यही कारण है कि बैंक इन इकाइयों को पूँजी उपलब्ध कराने में काफ़ी पीछे रहे हैं. इस बात को बहुत कम स्वीकार किया गया है कि कुछ निगमों के भारी मात्रा में आर्थिक केंद्रीकरण के नकारात्मक परिणाम भी हो सकते हैं, खासकर जब ये निगम वितरकों के रूप में पारंपरिक मूल्य श्रृंखला के अंत में पैराशूट करते हैं और छोटे कारोबारियों से जबरन मार्जिन वसूलते हैं. भारत जापान या दक्षिण कोरिया जैसा राष्ट्रीय चैंपियन बनने की आकांक्षा कर सकता है, लेकिन जिस तरह का उसका रुझान है, वह बहुत खतरनाक है. वह रूस या मैक्सिको के तानाशाही साँचे में नई पीढ़ी को बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहा है. हम यही उम्मीद कर सकते हैं कि उभरते हुए वित्तीय वातावरण में अधिग्रहण को प्रोत्साहित करने के बजाय प्रतिष्ठित लोगों के साथ वास्तविक अर्थों में रचनात्मक प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलेगा.
रोहित चंद्रा इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ टैक्नोलॉजी, दिल्ली में पब्लिक पॉलिसी के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार
<malhotravk@gmail.com> / Mobile : 91+991002991/WhatsApp:+91 83680 68365