कोलकाता में पहली मैट्रो परियोजना के बाद भारत को लगभग दो दशक का समय लगा जब दूसरी मैट्रो रेल परियोजना सन् 2002 में दिल्ली में शुरू हुई. लेकिन उसके बाद भारत के विभिन्न शहरों में मैट्रो रेल परियोजनाओं की झड़ी लग गई. पिछले एक दशक में भारत के तेरह से अधिक शहरों में मैट्रो रेल प्रणालियों को मंजूरी प्रदान की गई और कई राज्य ऐसे हैं जो केंद्र सरकार से अभी-भी मैट्रो रेल परियोजनाओं की मंजूरी मिलने की बाट जोह रहे हैं. जहाँ एक ओर राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के भी अनेक राजनेता यह मानकर चल रहे हैं कि मैट्रो रेल प्रणाली ही एक मात्र उपाय है, जिससे भारत के शहरों में भीड़-भाड़ भरे यातायात और पर्यावरण की समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है, वहीं ज़मीनी हकीकत मैट्रो रेल प्रणाली के अंतर्राष्ट्रीय अनुभवों और भारत में प्रचलित मैट्रो प्रणाली से मिलने वाले लाभ से मेल नहीं खाती.
विकासशील देशों में सार्वजनिक परिवहन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मैट्रो रेल प्रणाली के प्रभावी योगदान के पक्ष में साक्ष्य न होने पर भी भारत के राज्य अपने शहरों में मैट्रो रेल प्रणाली लाने के लिए बेहद आतुर हैं. भारतीय अर्थशास्त्रियों के अनुसार नब्बे के दशक में अर्थव्यवस्था में आए उदारीकरण के बाद भारत के राज्यों के बीच निवेश की होड़ में इसके कारण सबसे वृद्धि हुई है. यही कारण है कि भारत के राज्य अपने इलाके में अधिकांशतः बुनियादी ढाँचागत विकास के माध्यम से अधिक से अधिक निवेश जुटाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं. भारत के शहरी कुलीन वर्ग के लोग और राजनेता मैट्रो प्रणाली को परिवहन का एक ऐसा माध्यम मानते हैं जिसकी अपील “अति-आधुनिक” है और साथ ही साथ इससे वातानुकूलित यात्रा का सुख भी मिलता है, जिसके कारण “अनुशासन” और “स्वच्छता” के मूल्यों की स्थापना भी की जा सकती है. यही कारण है कि बस जैसे यात्रा के अन्य तरीकों की तुलना में अधिक सुरुचिपूर्ण होने के कारण मैट्रो प्रणाली का अधिक विस्तार हो रहा है.
लेकिन मैट्रो रेल परियोजनाओं को लागू करने में भारी लागत आती है. सार्वजनिक तीव्र पारगमन प्रणालियों में मैट्रो रेल प्रणाली सबसे अधिक महँगी प्रणाली है और इसे लागू करने में बहुत अधिक भूमि की भी आवश्यकता होती है. यही कारण है कि मैट्रो परियोजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए भारी मात्रा में वित्तीय और प्रशासनिक संसाधनों की ज़रूरत पड़ती है. विकासशील देशों के शहरी परिवहन पर किये गए अपने पहले के अध्ययन के परिणामों के साथ-साथ कर्नाटक और केरल की दो मैट्रो परियोजनाओं के अपने शोध-कार्य से प्राप्त साक्ष्य के आधार पर मैं अनुभव करती हूँ कि किसी भी क्षेत्र में मैट्रो प्रणाली को अपनाने से पहले गंभीर विचार की आवश्यकता होती है. मैं यहाँ पर भारत के विभिन्न शहरों में, भले ही उनका आकार और आबादी कितनी भी क्यों न हो, मैट्रो प्रणाली लागू करने के लिए प्रचलित मौजूदा प्रवृत्तियों की ओर संकेत करना चाहूँगी. ये प्रवृत्तियाँ शहरी नियोजन में की गई जल्दबाजी की ओर संकेत करती हैं. इस प्रक्रिया में हमारे शहरों की सार्वजनिक परिवहन की आवश्यकताओं का न तो पूरी तरह से मूल्यांकन किया गया और न ही सभी पहलुओं पर गंभीर विचार-विमर्श किया गया.
विकसित और विकासशील दोनों ही प्रकार के देशों में परिवहन की परियोजनाओं पर किये गए अध्ययन से मैट्रो रेल परियोजनाओं को सार्वजनिक परिवहन के माध्यम के रूप में सार्वभौमिक तौर पर लागू करने को लेकर कुछ सवाल उठे हैं. क्या मात्र मैट्रो रेल परियोजना को लागू करके निजी वाहनों के उपयोग में कमी आ सकती है? जहाँ एक ओर सफलता और विफलता के मिले-जुले आँकड़े हैं, वहीं अधिकांश अध्ययनों से यही संकेत मिलता है कि मैट्रो रेल परियोजनाएँ तभी लाभप्रद हो सकती हैं, जब उनका कार्यान्वयन सार्वजनिक परिवहन के अन्य साधनों के साथ समन्वय करते हुए सावधानी पूर्वक किया जाएगा. इसके अलावा, मैट्रो प्रणाली का प्रभावी उपयोग कारोबारी ज़िलों के आकार और आबादी की सघनता जैसे शहरों के स्थानिक गुणों पर निर्भर करता है. लेकिन दिल्ली मैट्रो जैसी भारत की सबसे अधिक विस्तृत और सघन नैटवर्क वाली मैट्रो प्रणाली में भी अंतर परिवहन के परस्पर समन्वय से संबद्ध उपायों को पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है. यही कारण है कि इसकी उपलब्ध क्षमता का कम से कम 20 प्रतिशत कम उपयोग किया जा सका है. चैन्नई मैट्रो जैसी अन्य परियोजनाएँ भी अपनी वाहन क्षमता से कम क्षमता पर चल रही हैं. इसकी दशा तो यह है कि अनेक स्टेशन बिल्कुल सुनसान पड़े रहते हैं. इसी तरह अधिकांश मैट्रो परियोजनाओं में भी यात्रियों को ढोने की अपेक्षित क्षमता का बहुत कम उपयोग हो पा रहा है.
व्यावहारिक संभाव्यता की दृष्टि से भारी निवेश के कारण दुनिया-भर की मैट्रो प्रणालियाँ आम तौर पर सरकारी सब्सिडी लेकर ही चलती हैं. भारत की भी यही स्थिति है. यहाँ भी सरकार ने सब्सिडी और इक्विटी के माध्यम से मैट्रो परियोजनाओं का भारी मात्रा में वित्तपोषण किया है. अंतर्राष्ट्रीय दानकर्ता एजेंसियों से प्राप्त भारी कर्ज़ के माध्यम से उन्हें राजस्व का भी लाभ प्राप्त हुआ है. उदाहरण के लिए, बैंगलोर और कोची – दोनों ही मैट्रो प्रणालियों के लिए सरकार ने इक्विटी और कर्ज़ के साथ-साथ जापानी अंतर्राष्ट्रीय निगम एजेंसी जैसी एजेंसियों से अतिरिक्त वित्तीय सहायता भी प्राप्त की है. लेकिन जहाँ तक सार्वजनिक परिवहन की आवश्यकताओं का खर्च परियोजनाओं द्वारा ही पूरा करने का प्रश्न है, ये सब्सिडी और कर्ज़ तर्कसंगत हैं, लेकिन भारत की आम शहरी गरीब जनता मैट्रो से यात्रा का खर्च उठाने में सक्षम नहीं है. यहाँ तक कि देश के निजी वाहनों का उपयोग करने वाले मध्यम श्रेणी के लोग भी मैट्रो प्रणाली का उपयोग करने के लिए बहुत उत्सुक नहीं हैं. फिर भी, व्यावहारिक रूप से, विकासशील देशों में मैट्रो परियोजनाओं के निर्माण के कारण बस परिवहन जैसे सार्वजनिक परिवहन के अन्य सस्ते तरीके में निवेश को बढ़ावा नहीं मिल पाता, जो अधिकांश निम्न मध्यम और शहरी गरीब लोगों की ज़रूरतों को पूरा करता है. इसके अलावा, व्यय की उसी रकम से बस प्रणाली बहुत बड़े क्षेत्र को कवर कर सकती है.
अन्य कल्याण योजनाओं की बलि देकर ही मैट्रो परियोजनाओं को भारी मात्रा में सब्सिडी दी जाती है. भूमि के अर्जन में देरी के कारण या अन्य कानूनी मसलों के कारण बाहरी एजेंसियों द्वारा दिये गये कर्ज़ का ढेर अक्सर बढ़ता ही जाता है. इन परियोजनाओं में निजी भागीदारी के सवाल पर भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए. भूमि-अर्जन की भारी-भरकम नियमावली के बिना निजी भागीदारी का लाभ उठाकर निजी व्यापारी मैट्रो कॉरिडोर से जुड़ी सार्वजनिक भूमि का बेरोक-टोक व्यावसायिक प्रयोजनों के लिए उपयोग करने लगेंगे, क्योंकि उनका उद्देश्य तो भारी मुनाफ़ा कमाना ही होता है. उदाहरण के लिए, बैंगलोर और कोची – दोनों ही मैट्रो प्रणालियों के लिए जो भूमि ली गई थी, उसमें परियोजना की आवश्यकताओं के अलावा कुछ और ज़मीन भी थी, जिसे अब लाभ कमाने वाली रियल इस्टेट संबंधी गतिविधियों के संचालन के लिए परिवर्तित कर लिया गया है और ये गतिविधियाँ मुख्यतः उच्च आय वर्ग के लोगों के लिए हैं. इसके अलावा, भूमि जैसे महत्वपूर्ण संसाधनों का अन्यत्र उपयोग किफ़ायती आवास या शिक्षा या स्वास्थ्य प्रणाली जैसी कल्याणकारी गतिविधियों की बलि चढ़ाकर ही किया जाता है. कहीं अन्यत्र मैंने इस प्रकार की भागीदारी को विनियमित करने में राज्य की अक्षमता के कारण भारत में मैट्रो परियोजनाओं से संबंधित सरकारी-निजी भागीदारी के मामलों में व्याप्त भ्रष्ट आचरणों का भी उल्लेख किया है.
मैट्रो रेल प्रणालियों का एक बार संचालन होने के बाद उन्हें उखाड़कर बंद करना बहुत मुश्किल होता है और उनके संचालन की लागत भी बहुत अधिक होती है. इसलिए उन्हें बंद करना व्यावहारिक नहीं होता. हालाँकि भारत सरकार ने मैट्रो प्रणाली के मूल्यांकन के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किये हैं, लेकिन जिस दर पर मैट्रो परियोजनाओं की मंजूरी दी जा रही है, उनमें इन सभी दिशा-निर्देशों की धज्जियाँ उड़ा दी जाती हैं. इसलिए मैट्रो प्रणाली की आवश्यकताओं के आकलन के लिए अपेक्षित मूल्यांकन प्रणाली प्रत्येक शहर की आवश्यकताओं के अनुकूल होनी चाहिए और उसके साथ व्यापक अनुवर्ती कार्रवाई की प्रणाली भी होनी चाहिए ताकि इस मूल्यांकन को वास्तविक नीति के कार्यान्वयन में उचित स्थान प्रदान किया जा सके. शहरों के अंदर ही परिवहन के विभिन्न तरीकों को अपनाकर और उन्हें समन्वित करके शहरों में परिवहन की आवश्यकताओं के समग्र दृष्टिकोण के आधार पर शहरी नियोजन की योजनाओं को विकसित करके उन्हें रणनीतिक स्वरूप प्रदान किया जाना चाहिए. अंततः शहरी आबादी के सीमित वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उच्च स्तर की बुनियादी ढाँचागत परियोजनाओं के लिए भारी निवेश को अन्यत्र स्थानांतरित करने के बजाय शहर के अधिकांश निवासियों के लिए कम लागत वाले परिवहन मोड की क्षमता और दक्षता को बढ़ाने के लिए निवेश को क्रमबद्ध किया जाना चाहिए.
मीनाक्षी सिन्हा ने किंग्स कॉलेज, लंदन से अंतर्राष्ट्रीय विकास में पीएच डी की है. अपने मौजूदा शोध कार्यों में वह शहरी भारत में परिवहन की परियोजनाओं और भूमि के उपयोग पर शोध कर रही हैं.
हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919