म्यांमार में जारी गृहयुद्ध में बड़े पैमाने पर लड़ाई का भारत के लिए क्या मतलब है? म्यांमार में हिंसा तब शुरू हुई जब सेना ने फ़रवरी 2021 में निर्वाचित सरकार को अपदस्थ करके जबरन सत्ता अपने हाथ में ले ली. जवाब में, तीन प्रमुख जातीय सशस्त्र समूहों ने एकजुट होकर थ्री ब्रदरहुड अलायंस (TBA) का गठन किया - अराकान आर्मी (AA), म्यांमार नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी (MNDAA) और तांग नेशनल लिबरेशन आर्मी (TNLA) - जिसने जुंटा बलों के खिलाफ़ एक संगठित आक्रमण शुरू किया. आज, कई मोर्चों पर लड़ाई तेज हो गई है, जिसमें अराकान आर्मी ने बांग्लादेश के साथ देश की सीमा पर नियंत्रण कर लिया है.
म्यांमार ने 1948 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता मिलने के बाद से ही जातीय विद्रोह देखा है, जिसने वर्तमान संघर्ष की रूपरेखा को आकार दिया है. काचिन इंडिपेंडेंस आर्मी (KIA), शान स्टेट आर्मी (SSA) और AA जैसे जातीय विद्रोही समूह दशकों से केंद्रीय प्राधिकारियों के खिलाफ़ विद्रोह कर रहे हैं. हालाँकि, 2021 के सैन्य तख्तापलट ने एक महत्वपूर्ण क्षण को चिह्नित किया, जब म्यांमार के सशस्त्र बलों के नागरिकों और दलबदलुओं द्वारा पीपुल्स डिफेंस फोर्सेज़ (PDF) का गठन किया गया. पीडीएफ़ (PDF) जुंटा से लड़ने वाले विभिन्न समूहों के साथ काम कर रहा है, जिसमें ऊपर उल्लिखित टीबीए (TBA) भी शामिल है. जवाब में, जुंटा ने अपने ही नागरिकों पर हवाई हमले किए, जिससे और अधिक विद्रोह भड़क गया और म्यांमार के लोग हिंसा के खतरनाक चक्र में फँस गए.
तख्तापलट से पहले, भारत म्यांमार में लोकतांत्रिक सरकार के साथ संबंध बनाने में सफल रहा था. जुंटा नेता मिन आंग ह्लाइंग के उदय और टीबीए (TBA) के हमलों के सामने देश के पूरे क्षेत्र पर सत्ता को मजबूत करने के लिए सेना के संघर्ष ने भारत के सामने पूर्वी मोर्चे पर चुनौतियों को कई गुना बढ़ा दिया है.
प्रवेशद्वार, निवेश, जातीय संबंध
भारत के लिए, बहुत कुछ दाँव पर लगा है. सबसे पहले, म्यांमार भारत के लिए दक्षिण-पूर्व एशिया का प्रवेशद्वार है, क्योंकि यह दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्रों के संगठन (ASEAN) का एकमात्र देश है जिसके साथ भारत की भूमि सीमा लगती है. गृहयुद्ध के मद्देनजर, नई दिल्ली ने संकेत दिया है कि वह सीमा को सील करने की योजना बना रहा है, लेकिन इस क्षेत्र के पहाड़ी इलाकों और भारी मात्रा में वर्षा को देखते हुए यह आसान काम नहीं है. भारत ने पहले ही मुक्त आवागमन व्यवस्था (FMR) को समाप्त कर दिया है, जो - क्षेत्र में घनिष्ठ जातीय संबंधों की स्वीकृति में - पहले किसी भी पहाड़ी जनजाति के सदस्य और भारत या म्यांमार के नागरिक को, और “दोनों तरफ सीमा के 16 किलोमीटर के भीतर रहने वाले, सीमा पास दिखाने पर सीमा पार करने की अनुमति देता था, जो हर दौरे पर आम तौर पर एक वर्ष के लिए वैध होता है, और प्रत्येक यात्रा पर दो सप्ताह तक रहता है।”
दूसरी बात यह है कि भारत ने म्यांमार में महत्वपूर्ण निवेश किया है, खास तौर पर बुनियादी ढाँचे के क्षेत्र में, जिसमें कलादान मल्टी मॉडल ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर परियोजना और भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग जैसी परियोजनाएँ शामिल हैं. देश में चल रहे गृह युद्ध के कारण इन परियोजनाओं में देरी हो सकती है. इसके अलावा, म्यांमार में 2016 में भारत सरकार द्वारा निर्मित सित्तवे नदी बंदरगाह जैसी परियोजनाएँ भी हैं, जो भारत के पूर्वोत्तर राज्यों को बंगाल की खाड़ी तक पहुँच प्रदान करने में महत्वपूर्ण हैं. उल्लेखनीय रूप से, 1947 में भारत के विभाजन के बाद इसके पूर्वोत्तर राज्य, जिनमें से चार म्यांमार के साथ सीमा साझा करते हैं, प्रभावी रूप से भूमि से घिरे हुए थे. भारत द्वारा निर्मित सित्तवे बंदरगाह ही एकमात्र बंदरगाह है, जो इसके लिए एक विकल्प प्रदान करता है.
तीसरी बात यह है कि म्यांमार भारत की “ऐक्ट ईस्ट पॉलिसी” (“Act East Policy”) की सफलता के लिए महत्वपूर्ण है, जिसका उद्देश्य दक्षिण-पूर्वेशिया और पूर्वी एशिया के देशों के साथ भारत के ऐतिहासिक संबंधों को फिर से मज़बूत करना है. नई दिल्ली को दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) के साथ ज़्यादा सफलता नहीं मिली है, और इसके बजाय उसने अपना ध्यान दक्षिण-पूर्व एशिया और पूर्वी एशिया के साथ संबंध बनाने पर केंद्रित कर दिया है. म्यांमार बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग (BIMSTEC) के लिए बंगाल की खाड़ी पहल का एक महत्वपूर्ण सदस्य है, जो भारत, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार, थाईलैंड, नेपाल और श्रीलंका को जोड़ता है. हाल ही में बांग्लादेश में भारत समर्थक सरकार को हटा दिया गया है, म्यांमार में उसके प्रभाव में कोई और कमी नई दिल्ली के लिए पड़ोस को और भी चुनौतीपूर्ण बना देगी.
चौथी बात यह है कि म्यांमार में कई विद्रोही संगठन नशीले पदार्थों की तस्करी में भी लगे हुए हैं और इसका भारत के पूर्वोत्तर पर गंभीर असर हो सकता है, जहाँ पहले से ही नशीले पदार्थों के इस्तेमाल में तेज़ी देखी गई है. इसके अलावा, म्यांमार के सीमावर्ती क्षेत्रों से शरणार्थी बड़ी संख्या में मणिपुर और मिज़ोरम राज्यों में प्रवेश कर रहे हैं. लोगों की निरंतर बढ़ते आमद से इस क्षेत्र के सामाजिक-राजनीतिक माहौल पर असर पड़ेगा. मणिपुर पहले से ही मैती (जो इम्फाल घाटी में और उसके आस-पास रहते हैं) और कुकी (जो आस-पास की पहाड़ियों में रहते हैं) के बीच जातीय संघर्षों में घिरा हुआ है, जिसमें राज्य सरकार ने हिंसा के लिए शरणार्थियों को दोषी ठहराया है. केंद्र सरकार ने हाल ही में मणिपुर के मुख्यमंत्री के इस्तीफ़े के बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन (केंद्र से सीधा प्रशासन) लगाया है.
चीन की भूमिका
भारत को समीकरण में चीन की भूमिका पर बारीकी से नज़र डालने की ज़रूरत होगी. बीजिंग इस क्षेत्र में विपक्षी समूहों के साथ भी सहयोग कर रहा है और सरकारी बलों के साथ भी, क्योंकि देश में सरकारी बलों और विपक्षी समूहों दोनों के साथ ही उसके घनिष्ठ संबंध हैं. सत्तारूढ़ जुंटा के लिए, बीजिंग का समर्थन बिल्कुल अनिवार्य है क्योंकि चीन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) का सदस्य है और उसके पास वीटो शक्तियाँ हैं. चीन ने देश में बुनियादी ढाँचे में भी निवेश किया है, जैसे कि एक तेल और गैस पाइपलाइन, जो दक्षिणी चीन से म्यांमार के क्यौकप्यू तक जाती है. इससे चीन को मलक्का जलडमरूमध्य को बायपास करने में मदद मिलेगी जो हमेशा से चीन के लिए एक दुखती रग रही है.
चीन म्यांमार का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भी है और देश के लिए उसकी बड़ी निवेश योजनाएँ हैं. भारत की तरह, वह भी लड़ाई का अंत देखना पसंद करेगा क्योंकि बीजिंग द्वारा वित्तपोषित और समर्थित कई बुनियादी ढाँचा परियोजनाएँ भी जारी हिंसा के कारण रुकी हुई हैं. हाल ही में जुंटा नेता मिन आंग ह्लाइंग ने 2021 के तख्तापलट के बाद चीन की अपनी पहली यात्रा में ग्रेटर मेकांग उपक्षेत्र और अयेयावाडी-चाओ फ्राया-मेकांग आर्थिक सहयोग रणनीति (ACMECS) के शिखर सम्मेलन के लिए चीन में कुनमिंग का दौरा किया था. बीजिंग को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, विशेष रूप से अमेरिका से जुंटा के लिए अपना समर्थन समाप्त करने के लिए दबाव का सामना करना पड़ा है.
अतीत में चीन ने पूर्वोत्तर भारत में विभिन्न विद्रोही समूहों को समर्थन दिया है और इस बार वह एक बार फिर मुश्किल हालात का फायदा उठाना चाहता है. नई दिल्ली इस क्षेत्र के सभी विद्रोही समूहों के साथ युद्ध विराम समझौते पर सफलतापूर्वक हस्ताक्षर करने में सफल रहा है, जो पहले भारतीय राज्य के खिलाफ़ थे. अगर बीजिंग फिर से इस आग को हवा देने लगा है, तो यह भारत के लिए और भी बड़ी चुनौती होगी.
चैनल और समन्वय
भारत के पास बहुत ज़्यादा विकल्प उपलब्ध नहीं हैं. भारत ने जुंटा के साथ आधिकारिक बातचीत की है, यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या वह विपक्षी समूहों से संपर्क कर रहा है, क्योंकि इस बारे में सार्वजनिक तौर पर कम बयान दिये गए हैं. यह स्थायी नहीं हो सकता है. हाल के वर्षों में, इस क्षेत्र को विकसित करने और कनेक्टिविटी बनाने के लिए पूर्वोत्तर भारत में बड़ा निवेश किया गया है. उदाहरण के लिए, जापान इंटरनेशनल को ऑपरेशन एजेंसी (JICA) के वित्तपोषण से इस क्षेत्र में भारत का सबसे लंबा पुल बनाया जाएगा. नई दिल्ली को यह याद रखना चाहिए कि म्यांमार में जारी हिंसा बढ़ने से इस क्षेत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. और इसे कुछ साल पीछे धकेल देगा. जहाँ एक ओर विपक्षी समूहों से जुड़ने के प्रयास निश्चित रूप से जुंटा को परेशान करेंगे, वहीं नई दिल्ली को दीर्घकालिक रूप से सोचने की आवश्यकता होगी, विशेष रूप से मिजोरम और मणिपुर जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में झटके को देखते हुए. अतीत में भी, नई दिल्ली ने म्यांमार की लोकतंत्र समर्थक नेता, आंग सान सू की की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (NLD) के साथ संबंध बनाए रखे हैं, जबकि जुंटा के साथ भी उसके अच्छे संबंध हैं.
म्यांमार आसियान (ASEAN) का सदस्य है और आसियान के साथ प्रभावी समन्वय भारत के लिए जुंटा के साथ जुड़ने की कुंजी है. यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि नई दिल्ली चीन के नेतृत्व वाली बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) में शामिल नहीं हुआ है और इसलिए, भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय राजमार्ग जैसी कनेक्टिविटी परियोजनाएँ भारत की “ऐक्ट-ईस्ट पॉलिसी” (“Act-East Policy.”) के लिए महत्वपूर्ण हैं. भारत के पूर्वोत्तर राज्यों, जैसे मिजोरम और मणिपुर में म्यांमार से लोगों की आमद देखी गई है और इसलिए, यह देखना नई दिल्ली के हित में है कि म्यांमार या कम से कम सीमावर्ती क्षेत्रों में लड़ाई समाप्त हो. नई दिल्ली एक करीबी साझेदार रूस से भी संपर्क कर सकता है, जो म्यांमार की जुंटा के साथ भी घनिष्ठ संबंध रखता है और सरकारी बलों को हथियारों का एक प्रमुख सप्लायर है.
जुलाई 2024 में, भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, अजीत डोभाल ने बिम्सटेक (BIMSTEC) देशों के सुरक्षा प्रमुखों की बैठक के दौरान नेपीदॉ में अपने म्यांमार के समकक्ष एडमिरल मो आंग से मुलाकात की और माना जाता है कि उन्होंने म्यांमार की स्थिति के बारे में नई दिल्ली की चिंताओं से उन्हें अवगत कराया.
अतीत में, नई दिल्ली आंग सान सू की के करीब रहा है, लेकिन इसने उसे जुंटा के साथ संवाद के चैनल खोलने से नहीं रोका. यहाँ मुद्दे की बात यह है कि जब म्यांमार में स्थिति को सँभालने की बात आती है तो नई दिल्ली को कुछ नई कूटनीति और लीक से हटकर समाधान अपनाना होगा. देश के कई हिस्सों पर जुंटा की पकड़ तेज़ी से कम हो रही है, ऐसे में बेहतर यही होगा कि नई दिल्ली को विभिन्न जुंटा विरोधी ताकतों से भी जुड़ना चाहिए.
रूपकज्योति बोरा जापान फ़ोरम फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज़ में वरिष्ठ अनुसंधान फ़ैलो हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (हिंदी), रेल मंत्रालय, भारत सरकार
Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India
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