आखिर क्रांतिकारी सशस्त्र गुट को छोड़कर उसी राजनैतिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए कैसे लौट आते हैं, जिसे पहले वे उखाड़ फेंकने की बात करते थे? इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि पुरुष और स्त्रियाँ विद्रोह क्यों करते हैं? लेकिन इस बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है कि विद्रोह का रास्ता छोड़कर वे सामान्य जीवन में क्यों और कैसे लौट आते हैं. परंतु नेपाल से लेकर कोलंबिया तक नीति-निर्माता अभी भी इस बात को लेकर बहुत चिंतित हैं.
मैंने अपनी आगामी पुस्तक में भारत में चल रहे माओवादी विद्रोह के संदर्भ में इस सवाल की छानबीन करने का प्रयास किया है. डेटा विश्लेषण से पता चलता है कि 2005-12 के बीच 781 माओवादी क्रांतिकारी दक्षिणवर्ती आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में विद्रोह के रास्ते को छोड़कर सामान्य जीवन में लौट आए थे. इसके विपरीत इसी अवधि में उसी क्रांतिकारी गुट से जुड़े झारखंड के केवल 54 और पश्चिम बंगाल के 39 क्रांतिकारियों ने ही अपने गुट को छोड़ा था. इसके अलावा, क्रांतिकारियों की वापसी केवल कुछ ज़िलों तक ही सीमित रही है. उदाहरण के लिए तेलंगाना के वारंगल और खम्मम ज़िलों में क्रांतिकारियों की वापसी की घटनाएँ बहुत बड़े पैमाने पर हुई हैं. इसी तरह झारखंड में क्रांतिकारियों की वापसी की घटनाएँ राँची और खुंटी ज़िलों तक ही सीमित रही हैं, लेकिन क्रांतिकारियों द्वारा अपने गुट को छोड़ने के जो कारण बताये जाते हैं, जैसे, नीति, विकास, औद्योगीकरण या क्रांतिकारी संगठन, ये कारण निकटवर्ती ज़िलों में अक्सर एक जैसे होते हैं". ऐसे परंपरागत कारणों को तो दोनों दिशाओं में नकारात्मक अदल-बदल के संदर्भ में भी स्वीकार नहीं किया जाता. इसके बजाय डेटा विश्लेषण की दृष्टि से क्रांतिकारियों की वापसी में घट-बढ़ का एक महत्वपूर्ण कारण नागरिक संघों (ये आँकड़े भारत के मानव विकास सर्वेक्षण से लिये गए हैं) की सदस्यता ही है. लेकिन ऐसे मूलभूत तंत्र कौन-से हैं जिनका संबंध क्रांतिकारियों की वापसी से जुड़ी ज़मीनी सच्चाई से है?
“रिटायरमैंट” अर्थात् “क्रांतिकारी जीवन को छोड़कर सामान्य जीवन में वापसी” शब्द का सबसे पहला प्रयोग 2013-14 में उत्तर और दक्षिण भारत के क्रांतिकारी अंचलों में हुआ था. यह शब्द “समर्पण” की तुलना में क्रांतिकारियों की वापसी की लंबी प्रक्रिया से कहीं अधिक उपयुक्त है, क्योंकि “समर्पण” के प्रक्रिया में उससे पहले होने वाले सौदेबाजी की लंबी और जटिल प्रक्रिया भी जुड़ी होती है.
मेरी मूलभूत खोज यही है कि राज्य-विद्रोह के परिदृश्य में क्रांतिकारी नागरिक संघों की छाया में विकसित होने वाले अनौपचारिक निकासी के नैटवर्क के माध्यम से क्रांतिकारी जीवन से सामान्य जीवन में वापस लौट आते हैं. बहुत-से माओवादी दक्षिण में क्रांतिकारी जीवन से अपने सामान्य जीवन में इसलिए लौट पाए क्योंकि उनके निकासी के नैटवर्क मेरे अनुसार इतने “मैत्रीपूर्ण” थे कि मिली-जुली भूमिकाओं और गठबंधनों वाले अनेक हितधारक आपस में मिलकर वापसी की असंख्य अनिश्चितताओं को दूर करके निकासी का सहज नैटवर्क बनाने में सफल हो जाते थे. इसके विपरीत उत्तर में विद्रोह से वापसी के अवसर कम ही मिल पाते हैं, क्योंकि वहाँ पर निकासी के नैटवर्क में “सामंजस्य का अभाव” होता है, जिसके कारण मुख्य खिलाड़ियों के बीच परस्पर अविश्वास और भय का वातावरण होता है और यही कारण है कि बड़े पैमाने पर क्रांतिकारियों की वापसी नहीं हो पाती.
यहाँ मैं आपको राजू अन्ना की कहानी सुनाती हूँ. राजू अन्ना वारंगल ज़िले में क्रांतिकारी जीवन से वापस लौटकर सामान्य जीवन जी रहे हैं. उनके अनुभव का व्यापक परिदृश्य क्रांतिकारी जीवन से वापस लौटकर आए उन सभी 34 क्रांतिकारियों से मेल खाता है, जिनसे मैं स्वयं तेलंगाना में मिली थी. राजू अन्ना ने जब क्रांतिकारी जीवन से वापस लौटने का निर्णय किया तो सबसे पहले उसने माओवादी गुट के अपने वरिष्ठ को एक पत्र लिखा और उस पत्र में वापस लौटने के कारणों का स्पष्ट किया. पहले तो उसके गुट को लोगों ने उसे समझाने की कोशिश की और अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया, लेकिन अंत में वे मान गए.
अपनी पार्टी के अनुमोदन के बावजूद राजू अन्ना वापस नहीं लौटा, क्योंकि उसे लगता था कि जैसे ही वह हथियार छोड़ेगा, उसे मार दिया जाएगा. उसकी शिकायत यही है कि भारत सरकार की योजना के अनुसार क्रांतिकारियों को पहले आत्मसमर्पण करना होगा और उसके बाद उन्हें पुनर्वास का एक पैकेज दिया जाएगा ताकि वे सामान्य जीवन में लौटने के बाद अपनी गुज़र-बसर कर सकें, लेकिन सरकार इस बात पर विचार नहीं करती कि सामान्य जीवन में लौटने पर भी उन्हें धमकियाँ मिलती रहती हैं और उनकी जान खतरे में रहती है और वास्तव में यही कारण है कि वे क्रांतिकारी जीवन छोड़कर सामान्य जीवन में लौटने का साहस नहीं जुटा पाते. मैं उत्तर और दक्षिण में क्रांतिकारी जीवन छोड़कर सामान्य जीवन में लौटने वाले सत्तर से अधिक क्रांतिकारियों से मिल चुकी हूँ. उन सभी ने माना है कि लोकतांत्रिक जीवन में लौटने के बाद उनके जीवन पर खतरा और भी बढ़ जाता है. अगर भारत सरकार अपनी तरफ़ से सौदेबाजी का रास्ता छोड़ दे और सामान्य जीवन में वापस लौटने वाले क्रांतिकारियों के संरक्षण का दावा न करे तो भारत सरकार का कुछ नहीं बिगड़ेगा.
महत्वपूर्ण प्रतिबद्धता की समस्या के इस सिद्धांत का भी सरकारी संस्थाएँ पूरी तरह से पालन नहीं करतीं. मेरी धारणा है कि क्रांतिकारी सामान्य जीवन में तभी वापस लौटते हैं जब अनौपचारिक निकासी के नैटवर्क उन्हें ऐसा कोई वैकल्पिक प्रवर्तन तंत्र प्रदान करते हैं जिससे विश्वास के ज़रिये स्थानीय रूप में समस्या का निदान हो जाता है और उनके लिए गुज़र-बसर की व्यवस्था भी हो जाती है. मैं यह भी बताना चाहूँगी कि इस प्रकार के अनौपचारिक नैटवर्क को विकसित करने के लिए भौतिक स्थान और भावनात्मक वातावरण निर्मित करने की भी आवश्यकता होती है और यह काम दक्षिण में ज़मीनी स्तर पर नागरिक संगठनों ने बहुत कारगर ढंग से किया है, लेकिन उत्तर में ऐसा काम नहीं हुआ है. दूसरे शब्दों में कहें तो दक्षिण में निकासी नैटवर्क बहुत मज़बूत हैं और सहयोगी संस्थाओं का जीवन बहुत जीवंत है, जबकि उत्तर में यह ढाँचा बहुत जर्जर है और नागरिक संस्थाएँ भी बहुत कमज़ोर हैं.
उसके बाद दक्षिण के “मैत्रीपूर्ण” निकासी के नैटवर्क के कारण ही राजू अन्ना क्रांतिकारी जीवन छोड़कर सामान्य जीवन में लौट पाए. अपने क्रांतिकारी जीवन में राजू अन्ना ने बंधुआ मज़दूरी करवाने वाले, बलात्कार, सूदखोरी और हत्याओं में लिप्त एक बहुत बड़े ज़मींदार को मार डाला था. भयभीत और अपमानित होकर ज़मींदार का परिवार वहाँ से भागकर राजधानी में बस गया, जहाँ उन्होंने काफ़ी मुनाफ़े वाला नया कारोबार शुरू कर दिया और भारी राजनीतिक सत्ता भी हासिल कर ली. राजू अन्ना को आशंका थी कि उसके गाँव लौटने पर वह निहत्था हो जाएगा और ज़मींदार का परिवार यह खबर पाकर उसे और उसके परिवार को मारकर बदला लेने की कोशिश करेगा.
लेकिन राजू अन्ना को इस तरह का कोई खतरा पुलिस और राजनीतिज्ञों से नहीं था, क्योंकि उसके अनुसार इन लोगों को अनेक क्रांतिकारियों के समर्पण के कारण कई बार सम्मानित किया जा चुका है. वे अधिक से अधिक क्रांतिकारियों को सामान्य जीवन में लौटने के लिए प्रोत्साहित करना चाहते हैं और वापस लौटने वाले क्रांतिकारियों पर हमला करने से उन पर बुरा असर पड़ सकता था. राजू अन्ना भी यह मानता है कि माओवादियों की स्थिति “पानी की मछली” की तरह है. वे भी ऐसे इलाकों में अपने पुराने साथियों पर हमला नहीं करना चाहते जहाँ वे नये रंगरूट भर्ती करना चाहते हैं और अपने आंदोलन को फैलाना भी चाहते हैं.
अपने जीवन पर संभावित हमलों की आशंका को कम करने के लिए राजू अन्ना सबसे पहले अपने परिवार के पास पहुँच गया. वहाँ उसने नागरिक स्वतंत्रता वाले एक स्थानीय कार्यकर्ता से संपर्क किया. उस कार्यकर्ता ने उसे पुलिस अधीक्षक, नागरिक स्वतंत्रता वाले अन्य कार्यकर्ताओं और उन तमाम नौकरशाहों से मिलवाया, जो विभिन्न पेशेवर और नागरिक संघों की सदस्यता के ज़रिये परस्पर जुड़े हुए थे. ये लोग वास्तव में स्पष्ट रूप में ही भौगोलिक और सामाजिक दृष्टि से सचल सम्मति-निर्माता थे. मैं इन्हें आंदोलन उद्यमी (ME) मानती हूँ और ये लोग द्वि-स्तरीय निकासी नैटवर्क के सबसे ऊँचे पायदान पर होते हैं. दक्षिण में आंदोलन उद्यमी (ME) सत्ता वर्ग के सामने स्पष्टता से अपनी बात रखने, अदालत के सामने सरकार को उत्तरदायी सिद्ध करने और मानवाधिकारों का उल्लंघन करने के लिए क्रांतिकारियों को खरी-खोटी सुनाने, विरोध प्रदर्शन करने और शांति-वार्ताएँ चलाने के लिए विख्यात हैं, न कि कॉमरेडों को भटकाने वाले लोगों के रूप में उनकी छवि है. अपनी इन्हीं गतिविधियों के कारण वे एक ऐसा भावनात्मक वातावरण बनाने में सफल हो जाते हैं, जिसके कारण लोकप्रिय क्रांतिकारी गुट को छोड़कर क्रांतिकारी सामान्य जीवन में लौटने लगे हैं. वापसी की इस प्रक्रिया को विसैन्यीकरण और स्थायी शांति के लिए एक महत्वपूर्ण कदम माना जाता है.
वापसी के इस दोषारोपण के बाद राजू अन्ना के पड़ोसियों और करीबी दोस्तों को उसकी वापसी की खबर मिली. संघर्ष वाले क्षेत्रों में अध्यापक, दर्जी, किसान, घर बनाने वाले आदि रोज़मर्रे के इन लोगों को द्वि-स्तरीय निकासी नैटवर्क के निचले पायदान में रखा जा सकता है. मैं इन्हें वापसीकरण आयोजक (RS) मानती हूँ. इन वापसीकरण आयोजकों (RS) की पहचान क्रांतिकारियों की वापसी करवाने वाले लोगों के रूप में है और ये लोग क्रांतिकारियों की वापसीकरण की प्रक्रिया को मिलने वाली धमकियों का मुकाबला करते हैं. ये वापसीकरण आयोजक (RS) गाँव में धीरे-धीरे दूरगामी सर्वानुमति बनाने के लिए खेलकूद के क्लबों, पुस्तक क्लबों और पेशेवर संघों में नियमित रूप में बैठकें करते हैं और एक क्रांतिकारी के सुरक्षित घर लौटने पर अन्य क्रांतिकारियों के भी अपने परिवार में लौटने की संभावना बनने लगती है और संघर्ष वाले क्षेत्रों में रहने वाले अधिकांश परिवार अंततः यही तो चाहते हैं.
राजू अन्ना के मामले में वापसीकरण आयोजकों (RS) ने ज़मींदार के परिवार को भी अपनी बैठकों में बुलाया था और ज़मींदार की विधवा को मनाने की कोशिश की थी कि वह यह वायदा करे कि वह राजू अन्ना और उसके परिवार को किसी तरह का कोई नुक्सान नहीं पहुँचाएगी. ऐसे स्थानों पर जहाँ सभी लोग एक-दूसरे को जानते हैं, सार्वजनिक तौर पर प्रचारित वायदों का बहुत असर होता है, क्योंकि यहाँ लोग एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं और यही कारण है कि वे इस बात को तार्किक दृष्टि से भी समझ लेते हैं कि क्रांतिकारी जीवन को छोड़कर सामान्य जीवन में सुरक्षित वापसी से सभी हितकारकों को लाभ ही होता है और मानवीय आधार पर भी सकारात्मक ढंग से वे इस बात को स्वीकार कर लेते हैं.
इसके साथ-साथ आंदोलन उद्यमियों (ME) ने ज़मींदार के परिवार के लिए नये हाई वे पर बनने वाले एक गैस स्टेशन के लाइसेंस की व्यवस्था भी कर डाली. इसके कारण उन्हें आर्थिक लाभ भी हुआ और विश्वास का तंत्र भी मज़बूत हो गया. जहाँ एक ओर भारत सरकार सामान्य जीवन में लौटकर आने वाले क्रांतिकारियों की सुरक्षा के वायदे को निभाने में पूरी तरह से विफल रही, वहीं अनौपचारिक निकासी नैटवर्क के माध्यम से नुक्सान की भरपाई के साथ-साथ वैकल्पिक प्रवर्तन तंत्र भी विकसित कर लिये गये ताकि वापस लौटने वाले क्रांतिकारियों की आशंका को निर्मूल सिद्ध किया जा सके. यही वास्तव में एक वजह थी, जिसके कारण क्रांतिकारी सामान्य जीवन में वापस लौटने का साहस नहीं जुटा पाते थे.
वापसीकरण आयोजक (RS) और आंदोलन उद्यमी (ME) दोनों ही नागरिक संगठनों में सदस्यता साझा करते हैं, लेकिन अंतरंग सामाजिक संबंधों को कतई साझा नहीं करते. वस्तुतः “कमज़ोर संबंधों की यही वह ताकत” है जिसके कारण भारी सामाजिक दूरियों के बावजूद शांति-निर्माण की प्रक्रिया में भागीदारी संभव हो पाती है और सामाजिक दृष्टि से समान वर्गों के बीच भी संबंध मज़बूत होते जाते हैं.
इस शोधकार्य का सबसे महत्वपूर्ण निहितार्थ यह दर्शाना है कि सामान्य जीवन में वापस लौटने के इच्छुक क्रांतिकारी तब तक वास्तव में लौट नहीं पाते जब तक कि वे पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हो जाते कि हथियार छोड़ देने के बाद भी उनकी हत्या नहीं की जाएगी. इस प्रक्रिया में सरकार का कुछ नहीं बिगड़ता. इस धारणा के बजाय कि आकर्षक आर्थिक पैकेजों से क्रांतिकारियों को सामान्य जीवन में वापस लौटने के लिए लुभाया जा सकता है, नीति-निर्माताओं को रचनात्मक दृष्टि से यह सोचना चाहिए कि इस समस्या का वास्तविक समाधान संस्थाओं के नवोन्मेष के माध्यम से तभी होगा जब इस प्रक्रिया में उन तमाम आम आदमियों को भागीदार बनाया जाएगा, जो संघर्ष वाले क्षेत्र में रहते हैं और शांति बनाये रखने से सबसे अधिक वे ही लाभान्वित होंगे.
रुमेला सेन कोलंबिया विवि के राष्ट्रविज्ञान विभाग में पोस्ट डॉक्टरल स्क़ॉलर हैं.
हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919