Penn Calendar Penn A-Z School of Arts and Sciences University of Pennsylvania

टोक्यो और नई दिल्ली की बढ़ती नज़दीकियों के क्या कारण हैं ?

Author Image
25/09/2017
रूपकज्योति बोरा

अगस्त 2007 में जापानी प्रधान मंत्री शिंज़ो आबे ने अपने आरंभिक कार्यकाल के दौरान "दो सागरों के संगम” पर दिये गये अपने ऐतिहासिक भाषण में टिप्पणी की थी कि "प्रशांत और हिंद महासागर अब मिलकर स्वतंत्रता और समृद्धि के समुद्र के रूप में गतिशील हो रहे हैं.”  पिछली कालावधि के रिश्तों के विपरीत जापान और भारत के बीच अब जिस तेज़ी के साथ रिश्तों में गर्माहट बढ़ी है, वह अभूतपूर्व है.

दोनों देशों के बीच कई सदियों के ऐतिहासिक रिश्तों के बावजूद सन् 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद दोनों देशों के बीच दूरियाँ बढ़ती गईं, क्योंकि एक ओर सोवियत संघ से नई दिल्ली की नज़दीकियाँ बढ़ने लगीं और दूसरी ओर जापान अमरीका का नज़दीकी मित्रदेश बन गया. शीतयुद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के विघटन के बाद ही दोनों देशों ने नई भू-राजनैतिक वास्तविकताओं के आलोक में अपने संबंधों को नये सिरे से सुधारने का निश्चय किया.

इन्हीं प्रयासों के कारण  “पूर्व की ओर देखने की नीति” (जिसे बाद में “पूर्व की ओर सक्रिय होने की नीति” का नाम दिया गया) बनाई गई. इस नीति के उद्देश्य के अनुरूप ही नई दिल्ली ने दक्षिण पूर्वेशिया और पूर्वेशिया में नये सिरे से अपने संबंधों को पुनः व्यवस्थित करना शुरू कर दिया. तब से लेकर आज तक 1998 में भारत द्वारा किये गये परमाणु परीक्षण की घटना के बाद आए तनाव के अपवाद को छोड़कर दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध सुदृढ़ होते चले गये. हालाँकि इस दौरान चीन के साथ भारत के संबंधों में अनेक प्रकार की चिंताएँ बनी रहीं, फिर भी कई ऐसे कारण थे, जिनके कारण टोक्यो और नई दिल्ली के बीच नज़दीकियाँ बढ़ती रहीं.

जापान और भारत के बीच बढ़ते संबंधों के कारण
पहला कारण तो आर्थिक काऱण ही है, जिसके कारण दोनों देशों की नज़दीकियाँ बढ़ रही हैं. वार्षिक द्विपक्षीय शिखर बैठक में भाग लेने के लिए आए आबे के हाल ही के दौरे में, उन्होंने मुंबई और अहमदाबाद के बीच भारत के पहले तीव्र गति वाले रेल कॉरिडोर के निर्माण की आधार शिला रखी. जापान के लिए भी यह बहुत बड़ा कदम है, क्योंकि अब जापान अपनी शिंकरसेन (बुलेट ट्रेन) प्रौद्योगिकी को नई मंडियों में निर्यात करने की कोशिश में जुटा है, लेकिन इंडोनेशिया में चीनी कंसोर्शियम के कारण हाल ही में उसकी कोशिशों को झटका लगा था. सन् 2014 में जब मोदी ने जापान का दौरा किया था, उसी समय टोक्यो ने भारत में 3.5 ट्रिलियन येन के निवेश के लिए अपनी प्रतिबद्धता जताई थी.   

दूसरा कारण यह है कि जापान और भारत के बीच असैन्य परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग की अपार संभावनाएँ मौजूद हैं. जापान-भारत असैन्य परमाणु ऊर्जा करार लागू हो चुका है. इस करार के ज़रिये, विशेषकर जापान में विश्वास का एक नया दौर शुरू हो गया है, क्योंकि जापान दुनिया का एकमात्र देश हैं जिसने परमाणु हमले का दंश झेला है. साथ ही साथ भारत के लिए भी अपनी बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उसे भी ऊर्जा की निरंतर पूर्ति होती रहे, क्योंकि भारत अवशिष्ट ईंधन के भारी उपयोग के कारण प्रदूषण की गंभीर समस्या से पहले ही जूझ रहा है. टोक्यो के लिए भी यह एक बड़ा कारोबारी निर्णय था, क्योंकि अनेक जापानी कंपनियाँ परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में संलग्न हैं.

तीसरा कारण यह है कि भले ही उसके संबंध एक मित्रदेश के रूप में अमरीका के साथ सुदृढ़ हैं, फिर भी वह अब भागीदारी के लिए नये खिलाड़ियों की तलाश में है. परंतु अमरीका के ट्रंप प्रशासन द्वारा प्रशांत महासागर के आर-पार की भागीदारी अर्थात् ट्रांस-पैसिफ़िक पार्टनरशिप (TPP) से कदम वापस लिये जाने  के कारण जापान अब नये उत्साह के साथ नये ढंग से सोचने के लिए तैयार हो गया है. भारत के एक रणनीतिकार सी. राजमोहन लिखते हैं, “एशिया में अमरीका की भावी भूमिका के संबंध में अनिश्चय के बादल मंडराने लगे हैं.” इसके साथ-साथ यह भी स्पष्ट हो गया है कि उत्तर कोरिया की उलझन से निकलने के लिए ट्रंप प्रशासन को चीन के सहयोग की ज़रूरत है. यही कारण है कि जापान में कुछ स्तरों पर नये भागीदार के रूप में भारत की ओर नज़रें उठने लगी हैं.

क्या कारण हैं कि टोक्यो और नई दिल्ली दोनों के लिए ही आवश्यक है कि वे चीन के साथ अच्छे संबंध बनाये रखें. अनेक मुद्दों पर तो भारत और चीन के संबंधों में काफ़ी सहयोग बना भी रहता है. दोनों ही देश ब्रिक्स के सदस्य हैं. भारत पहला देश था, जिसने आगे बढ़कर एशियाई बुनियादी ढाँचा निवेश बैंक (AIIB) अभियान की पहल की थी. इसी साल जून के मध्य से भारत और चीन भूटान के डॉकलाम क्षेत्र (जिस पर चीन ने दावा किया है) में सड़क के निर्माण के बारे में अत्यंत तनावपूर्ण स्थिति में फँसे रहे हैं, लेकिन भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान दोनों देशों ने एक संयुक्त बयान में यह स्वीकार किया था कि “चीन और भारत दोनों के ही फलने-फूलने के लिए दुनिया में काफ़ी गुंजाइश है.”

अगर चीन के मुद्दे को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मान लिया जाता है तो हम रक्षा के क्षेत्र में भारत और जापान के बीच सहयोग की बहुत गुंजाइश देख पाएँगे, लेकिन अभी तक स्थिति ऐसी बनी नहीं है. वस्तुतः भारत और जापान दोनों ही जापान में निर्मित टोह लेने वाले US2i समुद्री विमान की खरीद के लिए विचार-विमर्श में लगे हुए हैं, लेकिन (भारत में आबे की हाल ही की यात्रा के बावजूद) अभी तक इस बारे में सौदा पक्का नहीं हो पाया है. इससे पता चलता है कि रक्षा सहयोग के क्षेत्र में दोनों देशों को अभी बहुत दूरी तय करनी है.

इसके अलावा, 2016-17 के बीच भारत-जापान का व्यापार मात्र $13.61 बिलियन डॉलर ही रहा है, जो बहुत ही नगण्य है. 2015-16 के मुकाबले इसमें 6.21 प्रतिशत की गिरावट आई. इसके विपरीत, तमाम राजनैतिक तनावों के बावजूद सन् 2015 में भारत-चीन का व्यापार $70-4 बिलियन डॉलर रहा.

जापान के लिए चीन का महत्व इस कारण से भी है कि चीन दुनिया का एकमात्र देश है जिसने उत्तर कोरिया के साथ नज़दीकी रिश्ते बनाये रखे हैं. हाल ही के महीनों में उत्तर कोरिया ने जापान के धैर्य कड़ी परीक्षा लेते हुए दो ऐसे मिसाइल परीक्षण किये थे, जो जापान के होक्काइडो नामक उत्तरी द्वीप के ऊपर से होते हुए गुज़रे थे. जापान उत्तर कोरिया को लेकर कैच-22 के एक ऐसे जटिल मकड़जाल में फँसा हुआ है जिसमें से बाहर निकलने की कुंजी सिर्फ़ चीन के पास ही है.

टोक्यो ने मई में बीजिंग में आयोजित बैल्ट ऐंड रोड (BRI) मंच की बैठक में सत्ताधारी उदार लोकतांत्रिक पार्टी (LDP) से संबद्ध तोशीहीरो निकाई के नेतृत्व में अपना प्रतिनिधि मंडल भेजकर बैल्ट ऐंड रोड की पहल (BRI) में अपनी रुचि प्रदर्शित की है. टोक्यो भारत के सुदूर उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के विकास के लिए ODA अनुदान देकर ईरान के चाबहार बंदरगाह के विकास के लिए भारत के साथ साझेदारी करने पर भी विचार कर रहा है.

आगे का रास्ता
नई दिल्ली और टोक्यो दोनों को ही बीजिंग के साथ सहयोग करते रहने की ज़रूरत है. भारत के विदेश सचिव डॉ. एस, जयशंकर ने इसी वर्ष के आरंभ में सिंगापुर में भाषण देते हुए कहा था कि भारत और चीन दोनों को ही प्रयास करना चाहिए कि उनके बीच के मतभेद विवाद के कारण न बनने पाएँ. इस दौरान, बढ़ते आर्थिक रिश्तों के कारण टोक्यो और नई दिल्ली के बीच आगामी वर्षों में नज़दीकियाँ बढ़ती जाएँगी. तभी तो कहा जाता है “ यही अर्थव्यवस्था है, बेवकूफ़.”

डॉ. रूपकज्योति बोरा सिंगापुर के राष्ट्रीय विवि (NUS) के दक्षिण एशिया अध्ययन संस्थान में विज़िटिंग रिसर्च फ़ैलो हैं. उनकी नवीनतम रचना है, ऐलिफ़ैंट और समुराई. जापान को भारत पर भरोसा क्यों करना चाहिए? (कावेरी बुक्स सर्विस, 2017). वह अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जापानी संस्थान (टोक्यो) और कैम्ब्रिज विवि (यू.के.) में भी विज़िटिंग फ़ैलो रहे हैं. उनसे rupakj@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है और @rupakj पर ट्विटरसे फ़ॉलो किया जा सकता है.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919