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धीमी गति और जड़ता से भरे संबंध : अमरीकी-भारत रक्षा और सुरक्षा संबंधों का अगला कदम

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31/07/2017
जोशुआ टी.व्हाइट

राष्ट्रपति ट्रम्प और प्रधानमंत्री मोदी के बीच जून माह में हुई शिखर वार्ता के बाद अमरीका और भारत दोनों देशों के नीति विशेषज्ञों ने चैन की साँस ली. आशंका के विपरीत कुछ लोगों को एक दूसरे से मुलाकात करते समय दोनों नेताओं के हाव-भाव और निर्णय भी बेहद सकारात्मक लगे. इस दौरे से एक बेहद महत्वपूर्ण बात सामने आई कि अमरीकी-भारत रक्षा और सुरक्षा संबंधों में निरंतरता बनी हुई है, जो अपने-आप में संतोष का विषय है. हालाँकि दोनों देशों के बीच अभी-भी अनेक ऐसे विवादग्रस्त द्विपक्षीय आर्थिक मसले हैं, जिनका समाधान नहीं हो पाया है, लेकिन यह उम्मीद बँधने लगी है कि दोनों देशों के बीच की भागीदारी के सुरक्षा आयाम से आगामी वर्षों में अमरीकी-भारत सहयोग को नई दिशा मिल सकती है.

रक्षा संबंधों में जो तेज़ी आई है, वह निश्चय ही आश्चर्यजनक है. एक ही दशक में रक्षा सौदे $1 बिलियन से बढ़कर $15 बिलियन तक हो गए हैं. अमरीका और भारत मिलकर तरह-तरह के जटिल सैन्य अभ्यासों में भाग लेने लगे हैं और अमरीकी सरकार ने भारत को ऐसे-ऐसे संवेदनशील प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण के लिए अनुमति प्रदान कर दी है, जो कि अब तक अमरीका के सबसे करीबी मित्रदेशों को ही दी जाती थी. सुरक्षा संबंधों में इतनी नज़दीकियाँ आने  लगी हैं कि (जैसा कि दिखाई भी पड़ने लगा है) अब दोनों देश आतंकवाद का मुकाबला करने और खुफ़िया जानकारी साझा करने पर भी मिलकर सोचने लगे हैं.

भले ही यह सहयोग कितना भी सार्थक क्यों न हो, इसमें बहुत तेज़ी नहीं लाई जा सकती. द्विपक्षीय रक्षा संबंधों की गति बहुत तेज़ नहीं हो पाई है, उसमें एक प्रकार की जड़ता अभी-भी बनी हुई है, लेकिन इसकी दिशा में किसी प्रकार के बदलाव की संभावना नहीं है. दोनों देशों के संबंधों की गाड़ी पटरी से उतरने की भी आशंका बहुत कम है. इसकी संभावना अंशतः इस कारण से भी थी कि भारत-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति-संतुलन के संबंध में दोनों देशों का दृष्टिकोण समान है और पूरे एशिया में चीन की उभरती शक्ति को लेकर दोनों देश समान रूप से चिंतित भी हैं. इससे दोनों ही देशों के द्विपक्षीय संबंध मज़बूत होंगे और दोनों ही देश इससे लाभान्वित होंगे. इस बात को लेकर दोनों देशों में आम सहमति है.

ट्रम्प और मोदी द्वारा जारी किए गए संयुक्त वक्तव्य में रक्षा सहयोग के इस रणनीतिक तर्क को न केवल रेखांकित किया गया है, बल्कि इसे व्यापक भी बनाया गया है. अंतर्राष्ट्रीय कानून और राष्ट्रीय संप्रभुता जैसे “समान सिद्धांतों” को उद्धृत करते हुए इस वक्तव्य में एशिया में अमरीकी-भारत सहयोग की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है. यही बात 2015 के अभूतपूर्व संयुक्त रणनीतिक दृष्टिकोण में भी निहित थी. इसमें नैविगेशन की आज़ादी का भी उल्लेख किया गया है. इसमें बैल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की परोक्ष रूप में आलोचना की गई है और हिंद महासागर के क्षेत्र में अपने निवेश के द्वारा श्री लंका, बंगला देश और म्यांमार जैसे छोटे-छोटे देशों की आज़ादी को सीमित करने के चीनी प्रयास के संबंध में दोनों देशों की समान चिंता को प्रकट किया गया है. इसके अलावा उत्तर कोरिया के संबंध में भी दोनों देशों ने चीन को यह प्रबल संदेश देने की कोशिश की है कि चीन का यह दायित्व है कि वह अपने पड़ोसी देश उत्तर कोरिया को काबू करने का प्रयास करे.

संयुक्त राज्य अमरीका के प्रमुख रक्षा भागीदार के रूप में (जिसकी घोषणा पिछले वर्ष की गई थी) भारत की हैसियत के बारे में बताते हुए मोदी और ट्रम्प ने भावी सहयोग के क्षेत्रों को भी रेखांकित किया है. सहयोग के इन क्षेत्रों में शामिल हैं, समुद्री क्षेत्र में गहन सहयोग के द्वारा जागरूकता बढ़ाना. इससे “व्हाइट शिपिंग” करार होने की संभावना भी है. इस करार में वर्गीकृत व्यावसायिक डैटा साझा करने और अमरीका-भारत-जापान का साझा मलाबार वार्षिक सैन्य अभ्यास पर निवेश का प्रावधान भी शामिल होगा. राष्ट्रपति ने बहुत स्पष्ट रूप में इसे “विशाल हिंद महासागर में अब तक का सबसे बड़ा समुद्री सैन्य अभ्यास” माना है. यह अभ्यास पनडुब्बी विरोधी युद्धाभ्यास पर केंद्रित था.

निश्चय ही व्यापार घाटे पर भी ट्रम्प ने ज़ोर दिया है. इस बात पर भी कोई अचरज नहीं होना चाहिए कि इस बैठक का प्रमुख उद्देश्य भी यही था और यह बात अगले दिन उप राष्ट्रपति पैन्स द्वारा की गई टिप्पणी से भी स्पष्ट हो जाती है. शिखर-वार्ता की फ़्लैगशिप डील में ही यह घोषणा कर दी गई थी कि अमरीका ने बाईस समुद्री गार्जियन मानव-रहित हवाई सिस्टमों (UASs) की मल्टी बिलियन डॉलर की बिक्री की पेशकश की है. इसके लिए प्रशासन से यह अपेक्षा की जाती है कि मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण रिजीम (MTCR) के सदस्य के रूप में अपने दायित्वों के अंतर्गत "इनकार के अनुमान" (presumption of denial) की बाधा को दूर करे. भारत की समुद्री निगरानी के लिए गार्जियन भारत के लिए वरदान ही सिद्ध होगा. साथ ही इससे मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण रिजीम (MTCR) के प्रतिबंधों के अंतर्गत शासित दूर तक मार करने वाले अमरीका के अन्य मानव-रहित हवाई सिस्टमों (UASs) की बिक्री के लिए भी मार्ग प्रशस्त हो जाएगा.

आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए मोदी-ट्रम्प शिखर-वार्ता में उन तमाम उपलब्धियों की भी फिर से पुष्टि की गई है, जिनसे दोनों देश लाभान्वित हो सकते हैं. साथ ही उन क्षेत्रों को भी रेखांकित किया गया है जिनमें दोनों देश मिलकर अंततः नज़दीकी सहयोग कर सकते हैं.  अमरीकी-भारतीय नेताओं की बैठक में पाकिस्तान की विफलता की कठोर शब्दों में भर्त्सना की गई है कि वह पाकिस्तान को आतंकवादियों की सुरक्षित पनाहगाह के रूप में रोकने में कामयाब नहीं हुआ है. साथ ही हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन के नेता सैय्यद सलाहुद्दीन को अमरीका ने जिस तरह से आतंकवादी को रूप में घोषित किया है और आतंकवादियों को नामित और सूचीबद्ध करने के लिए जिस नये सलाहकार तंत्र को विकसित करने की बात कही है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ट्रम्प भविष्य में भी पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर घेरने का प्रयास करते रहेंगे और आगे बढ़कर भारत की कुछ शिकायतों को भी उठाएँगे.

अब इसके बाद अमरीका और भारत के रक्षा और सुरक्षा के संबंध कहाँ तक आगे बढ़ सकते हैं ? तीन ऐसे क्षेत्र हैं, जिन पर गौर किया जा सकता है. पहला क्षेत्र तो यही है कि रक्षा संबंधी उपकरणों की बिक्री में भारी तेज़ी की उम्मीद की जा सकती है. भारत एक लंबे अरसे से अपने रक्षा उपकरणों को आधुनिक बनाने के प्रयास में जुटा है और माँग पर आधारित अमरीकी-भारत रक्षा व्यापार को और अधिक बढ़ाने में अंशतः नई दिल्ली की इस समझ से भी मदद मिलेगी कि ट्रम्प इन द्विपक्षीय संबंधों को उस हद तक ही आगे ले जाएँगे जिससे अमरीका में ही भारी मात्रा में इन उपकरणों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होता हो. अमरीकी-भारत रक्षा व्यापार और व्यापारिक पहलों से अमरीका को अपनी नीति को उदारीकृत टैक्नोलॉजी रिलीज़ पॉलिसी के रूप में विकसित करने में मदद मिल रही है. इस समय कुछ रक्षा प्रौद्योगिकियाँ ऐसी हैं जो लाइसेंस-पुनरीक्षा के अंतर्गत आती हैं और उम्मीद है कि जिनकी पुनरीक्षा की जाएगी उनके अनुमोदित होने की भी संभावना रहेगी.

वस्तुतः उदारीकरण इतने नाटकीय रूप में हुआ है कि भारत को दी जाने वाली रक्षा प्रौद्योगिकी की शेष प्रमुख बाधाएँ घटती जा रही हैं और कटिंग ऐज सिस्टमों का गहन सह-विकास अपने स्वरूप में राजनैतिक होने के बजाय स्पष्ट रूप में संरचनात्मक अधिक है और कुछ हद तक भारत के अपने निर्णयों के अनुरूप भी है. दूसरा क्षेत्र यही है, जिस पर गौर किया जा सकता है. ऐतिहासिक रूप में अमरीका द्वारा कुछ संवेदनशील प्रौद्योगिकियों को रिलीज़ करने का आधार सभी चार प्रमुख अप्रसार रिजीम में उस देश की सदस्यता पर निर्भर रहा है. भारत अब मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण रिजीम (MTCR) का सदस्य है और वास्सेनार अरेंजमैंट के लिए आवेदन करने की प्रक्रिया में भी है. ऑस्ट्रेलिया ग्रुप और वाशिंगटन चीनी विरोध के बावजूद परमाणु सप्लायर ग्रुप में नई दिल्ली की सदस्यता के लिए प्रयत्नशील हैं. इसके अलावा, कतिपय संवेदनशील प्रौद्योगिकियों के अंतरण के औचित्य को सिद्ध करने के लिए या अमरीकी रक्षा समुदाय द्वारा इसे कानूनी रूप में अनुमोदित कराना भी तब तक बहुत मुश्किल होगा जब तक कि भारत यह सिद्ध न कर दे कि वह इनका उपयोग अमरीका के साथ मिलकर सार्थक रक्षा गतिविधियों (संयुक्त पैट्रोल या ऑपरेशन जैसी गतिविधियों) के लिए ही करेगा और ऐसे समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए इच्छुक रहेगा जिनके कारण उसे संवेदनशील संचार सुरक्षा और भू-देशीय सूचनाएँ साझा की जा सकती हों. अब तक भारत नौकरशाही के विरोध के कारण और कुछ हद तक प्रभुसत्ता संबंधी अस्पष्ट सरोकारों के कारण इन संचालनात्मक और कानूनी उपायों का विरोध करता रहा है.

तीसरा और अंतिम क्षेत्र है आतंकवाद का विरोध करने से संबंधित क्षेत्र. मोदी और ट्रम्प दोनों ने ही सीमाक्षेत्रों की सुरक्षा बढ़ाने को प्राथमिकता दी है. आतंकवाद विरोधी संवाद करने के लिए अमरीका और भारत द्वारा आयोजित सरकारी बैठकों में भाग लेने के मेरे अनुभव को देखते हुए यह स्पष्ट होने लगा है कि भारत सरकार यह समझने लगी है कि वह 11 सितंबर,2001 के बाद अपनी घरेलू सुरक्षा को अमरीका ने जिस तरह से सुदृढ़ किया, उससे भारत बहुत कुछ सीख सकता है. सीमारक्षा संबंधी प्रौद्योगिकी प्रदान करने से लेकर वाच-लिस्टिंग तक और खुफ़िया जानकारी से लेकर भारतीय कानून प्रवर्तन की एजेंसियों को आतंकवाद का विरोध करने से संबंधित अमरीका के तकनीकी सहयोग को बढ़ाने तक आतंकवाद-विरोधी सामान्य लक्ष्यों की भागीदारी में बहुत गुंजाइश है. इनमें से कुछ गतिविधियों में शामिल होकर भारत वैश्विक आतंकवाद-विरोधी अभियान में अनौपचारिक रूप में अपना योगदान दे सकता है.

यह भी सचाई है कि अमरीकी-भारत भागीदारी से जुड़े इन तीनों क्षेत्रों में जोखिम तो है ही. यह भी हो सकता है कि चीन के प्रति अमरीकी नीति में बदलाव आ जाए, जिसके कारण एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमरीका-भारत की संयुक्त कार्रवाइयों के पीछे जो तर्क है, उससे जुड़े दोनों पक्षों के प्रश्न ही उलझने लगें. यह भी हो सकता है कि भारत की विकास-यात्रा में रुकावट आ जाए, जिसके कारण रक्षा के उसके आधुनिकीकरण के कार्यक्रम में बाधा उत्पन्न हो जाए. और यह भी हो सकता है कि निरंतर उलझती वैश्विक व्यवस्था की परेशानियों से भयभीत होकर भारत बहुत सँभलकर और झिझकते हुए अमरीका से रक्षा संबंधों को बनाने का प्रयास करे, जिसके कारण संचालन गतिविधियों में कमी आ सकती है और प्रौद्योगिकी सहयोग का क्षेत्र भी सीमित हो सकता है.

लेकिन इस समय तो रक्षा और सुरक्षा संबंधों की दिशा काफ़ी सकारात्मक है. ट्रम्प-मोदी शिखर वार्ता के दौरान जितने जोरदार ढंग से इस दिशा में आगे बढ़ने का संकल्प दोनों नेताओं ने दोहराया था, उससे यह संकेत तो मिल ही गया था कि भले ही धीमी गति से ही सही, वे एक ऐसे सुदृढ़ सुरक्षा संबंधों की ओर बढ़ रहे हैं जो इक्कीसवीं सदी के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होगा.     

जोशुआ टी. व्हाइट साउथ एशिया स्टडीज़ की प्रैक्टिस में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं और वाशिंगटन में जॉन्स हॉपकिन्स स्कूल ऑफ़ ऐडवान्स्ड इंरनैशनल स्टडीज़ में ईस्ट एशिया स्टडीज़ में ऐडविन ओ. राइशार सैंटर में फ़ैलो हैं. वह पहले ओबामा व्हाइट हाउस की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के दक्षिण एशिया मामलों के वरिष्ठ सलाहकार और निदेशक के रूप में काम कर चुके हैं.

 

हिंदीअनुवादः डॉ. विजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919