भारत सरकार हर साल नागरिकों को पानी, साफ़-सफ़ाई, बिजली और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने के लिए सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे से संबंधित कार्यक्रमों को लागू करने के लिए भारी मात्रा में संसाधन जुटाती रही है. हालाँकि इन सभी प्रयासों से आम आदमी के जीवन-स्तर को सुधारने में बहुत हद तक मदद मिलने की संभावना होती है, फिर भी राजनैतिक प्रभाव की वजह से व्यापक रूप में आलोचना का शिकार होने के कारण इनके कार्यान्वयन में देरी होती रही है. लेकिन असल में ये राजनैतिक प्रभाव भारत में किस प्रकार सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे के कार्यान्वयन को प्रभावित करते हैं? इस सवाल के जवाब से ही हम समझ पाएँगे कि भले ही राजनैतिक हस्तक्षेप को टाला तो नहीं जा सकता, फिर भी गुणवत्ता की दृष्टि से ये कार्यक्रम कितने महत्वपूर्ण हैं.
मेरे शोध कार्य में केंद्र सरकार द्वारा सन् 2000 में प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना नाम से शुरू की गई राष्ट्रव्यापी ग्रामीण सड़क योजना का विश्लेषण करते हुए इसी सवाल का जवाब खोजने का प्रयास किया गया है. प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना केंद्र सरकार द्वारा ग्रामीण इलाकों में चलाई गई सबसे बड़ी योजनाओं में एक प्रमुख योजना है और 2012 और 2017 के बीच ग्रामीण विकास मंत्रालय के समग्र बजट में से इसके लिए 28 प्रतिशत राशि आबंटित की गई है.
किसी भी पैमाने से देखें तो भी हम पाएँगे कि प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना ने भारी सफलता प्राप्त की है. आरंभ से ही यह योजना पूरे भारत के एक लाख से अधिक लोगों को हर मौसम में जोड़ने में सफल रही है. सैम अशर और पल नोवोसाद द्वारा किये गये शोध कार्यों से भी यह स्पष्ट हो गया है कि इस योजना के अंतर्गत नवनिर्मित पक्की सड़कों के कारण ग्रामीण रोज़गार में भारी वृद्धि हुई है. इसके साथ-साथ जोनाथन लेहने, जेकब शपीरो और ऑलिवर वैंडन आइँदे के शोध कार्यों से इस बात के भी लिखित प्रमाण मिलते हैं कि इस योजना के कार्यान्वयन में भारी दुराचार और भ्रष्टाचार हुआ है. इस प्रकार इस योजना के कार्यान्वयन से राजनैतिक प्रभाव को व्यापक समर्थन तो मिला ही है, लेकिन ऐसे प्रभाव से मिलने वाले लाभ पर भी प्रतिक्रिया मिली-जुली रही है. राजनैतिक प्रभाव से कब और कैसे सार्वजनिक रूप में लोगों का भला होता है और साथ ही साथ उनका विकास भी होता है? और जब ऐसा होता है तो भ्रष्टाचार भी होता है और इससे जुड़े लोग इसमें अपना हिस्सा पाने की उम्मीद भी रखते हैं. अर्थशास्त्र में इस प्रवृत्ति को रैंट सीकिंग कहा जाता है.
इस सवाल की गहन छानबीन करने से मुख्यतः यही पता चलता है कि राज्य सरकार के वे मंत्री जिनका प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के कार्यान्वयन पर सीधा नियंत्रण रहता है, अपने लिए कुछ प्रोत्साहन राशि की भी अपेक्षा करते हैं. चूँकि भारत एक संसदीय लोकतंत्र है, इसलिए मंत्रियों के अपने कैरियर की संभावनाएँ भी अपने दल के सहयोगी सदस्यों की चुनावी सफलता से भी प्रभावित होती हैं. इस प्रकार यदि मतदाताओं को सार्वजनिक लाभ पहुँचाने से पदाधिकारियों को चुनावी सफलता मिलती है तो उसके कारण इन मंत्रियों को राज्य की विधान सभा में अपने दलीय सहयोगियों की मदद करने के लिए प्रोत्साहन तो मिलेगा ही और वे अपने मतदाताओं को सड़क मार्ग की सुविधा प्रदान कर सकेंगे. परंतु सड़क की सुविधा मिल जाने से जो लाभ पदाधिकारियों को मिलता है, उसे अनिवार्यतः निजी लाभ मानना चाहिए और इस कारण से मंत्रियों को इस बात के लिए प्रोत्साहन तो मिलेगा ही कि वे अपने दलीय सहयोगियों की कीमत पर उन अवसरों को अपने नियंत्रण में रखने का प्रयास करते हैं, जिनसे रैंट सीकिंग की गुंजाइश होती हो. वस्तुतः अपने दलीय सहयोगियों द्वारा रैंट सीकिंग में लिप्त होने के कारण पार्टी की छवि भी धूमिल हो सकती है. इसलिए मंत्रियों को चाहिए कि वे रैंट सीकिंग के अवसर पाने के इच्छुक अपने दलीय साथियों की हद को भी निर्धारित करें.
इन विचारों की जाँच-पड़ताल करने के लिए मैंने प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के लिए सरकार की अपनी ऑन लाइन प्रबंधन व निगरानी प्रणाली के उन आँकड़ों का उपयोग किया है जिनमें भारत-भर की हज़ारों अलग-अलग सड़क परियोजनाओं के आँकड़े मौजूद हैं. मेरा विश्लेषण बीमारू (बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड) राज्यों और उनके विभाजन से बने उन तमाम नये राज्यों में स्थित सड़क परियोजनाओं पर केंद्रित है, जहाँ ग्रामीण सड़कों की व्यवस्था बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है. इन क्षेत्रों में ऐतिहासिक कारणों से बुनियादी ढाँचे की खस्ता हालत है. प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के कार्यान्वयन के लिए राजनैतिक पदाधिकारियों को कैसे प्रोत्साहन राशि मिलती है, इस पर प्रकाश डालने के लिए मैंने संबंधित राज्य के विधायकों के विधान सभा क्षेत्र की प्रत्येक सड़क परियोजना से मिलान करने के लिए भौगोलिक सूचना सॉफ़्टवेयर का उपयोग किया है. इन आँकड़ों की मदद से मैंने इस बात की भी जाँच की है कि मंत्री और सामान्य विधायक, भले ही मंत्रियों के साथ उनके दलीय रिश्ते हों या न हों, अपने चुनाव क्षेत्रों में प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के कार्यान्वयन को कैसे प्रभावित करते हैं.
मेरा विश्लेषण इस विचार का प्रबल समर्थन करता है कि मंत्री अपने पक्ष के अधिक से अधिक कनिष्ठ सहयोगियों की सार्वजनिक कामों में मदद करने का प्रयास करते हैं और साथ ही रैंट पाने के अवसरों पर अपने सहयोगियों की पहुँच को कम करने के लिए भी प्रयत्नशील रहते हैं. इस विश्लेषण में खास तौर पर इस बात को भी उजागर किया गया है कि शासक दल से संबद्ध पदाधिकारियों में, भले ही वे मंत्री हों या साधारण विधायक, बुनियादी ढाँचों को बनवाने की औसतन अधिक क्षमता होती है. परंतु जब रैंट संबंधी अवसर सामने आते हैं तो उनका आकलन विभिन्न प्रकार के संकेतकों द्वारा ही किया जाता है और ये संकेतक हैं, “रिसाव" पर होने वाला खर्च, ठेकेदार के चयन में ढिलाई और सड़क निर्माण की गुणवत्ता और अनुत्पादक परियोजनाओं पर होने वाला वह व्यय, जिससे मंत्रियों के चुनाव क्षेत्र शासक दल के साधारण विधायक के चुनाव क्षेत्रों की कीमत पर औसतन लगातार लाभान्वित होते रहते हैं. ये विश्लेषण उनके विश्वास को बढ़ाने वाली अनेक प्रकार की तकनीकों पर निर्भर करते हैं और ये परिणाम पदाधिकारियों के पक्षपातपूर्ण गठजोड़ और मंत्री पद की हैसियत से इतर तत्वों द्वारा संचालित नहीं होते.
इसके अलावा अन्य विश्लेषणों से भी पता चलता है कि मंत्री और ऊपर वर्णित उनके कनिष्ठ सहयोगियों के बीच का अंतर केवल यही नहीं है कि वे अपने मंत्री से कम शक्तिशाली हैं. इसके बजाय इन विश्लेषणों से यह भी पता चलता है कि सड़क पूरी करने के लिए और उत्पादक सड़क परियोजनाओं पर होने वाले खर्च के बारे में अपने विवेक का इस्तेमाल करने का प्रसंग आने पर रैंट पाने के लिए जब नौकरशाही पर दबाव डालने के अवसर आते हैं तब मंत्रियों के साथ अपने इन्हीं दलीय संबंधों के कारण साधारण विधायक घाटे में रहते हैं. खास तौर पर जहाँ एक ओर ये विधायक उत्पादक परियोजनाओं पर विवेकाधीन खर्च के लिए लाभ में रहते हैं, वहीं अनुत्पादक परियोजनाओं के विवेकाधीन खर्च के लिए वे घाटे में रहते हैं, क्योंकि ऐसी परियोजनाएँ ही रैंट की विशेष स्रोत होती हैं. साथ ही ये विधायक रैंट पाने के अवसर आने पर उस समय और भी अधिक घाटे में रहते हैं जब उन्हें सड़क निर्माण के सह-दलीय प्रभारी मंत्री के साथ-साथ प्रशासनिक ज़िले के साथ भी सब कुछ साझा करना पड़ता है. इससे यह पता चलता है कि यही मंत्री हैं, जो अपने सहयोगियों को रैंट पाने में सहयोग करते हैं या फिर उन्हें वंचित रखते हैं.
इसलिए जब भारत में या अन्य किसी देश में प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना जैसी सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे से संबंधित योजनाओं के कार्यान्वयन में राजनैतिक कारणों से अक्सर विलंब होता है तो ज़रूरी नहीं है कि इसका प्रभाव अनिवार्यतः हानिकारक ही हो, भले ही राजनैतिक हस्तियाँ निजी लाभ पाने के उद्देश्य से अवसर की तलाश में सक्रिय होकर बुनियादी ढाँचे पर अपना नियंत्रण बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहती हों. इसका कारण यह है कि राजनैतिक हस्तियों को चाहिए कि वे निजी लाभ की अपनी इच्छा और पद पर बने रहने की अपनी इच्छा के बीच संतुलन बनाये रखने का प्रयास करते रहें. लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली में इसका अर्थ यह होगा कि आपको मतदाताओं के बीच अपनी पार्टी की छवि को बनाये रखने के लिए निरंतर प्रयास करना होगा. इस प्रकार जहाँ एक ओर मंत्री निजी लाभ के लिए बुनियादी ढाँचे से संबंधित व्यवस्था पर अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहते हैं, वहीं अपनी पार्टी के कनिष्ठ सहयोगियों के चुनाव क्षेत्रों में भी सार्वजनिक हित के काम में जुटे रहना चाहते हैं. संक्षेप में विकास कार्यों को लागू करने के लिए राजनैतिक प्रभाव का उपयोग करना हमेशा हानिकारक नहीं होता. इस शोध कार्य में इसी बात पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है कि ऐसा कब और क्यों होता है.
अंजली थॉमस बॉलकेनजॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ टैक्नोलॉजी के सैम नन स्कूल ऑफ़ इंटरनैशनल अफ़ेयर्स में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919