बांग्लादेश-भारत संबंध कदाचित् उप महाद्वीप में सबसे अधिक जटिल द्विपक्षीय संबंध हैं. सन् 1971 में बांग्लादेश की स्वतंत्रता के बाद से ही यह धारणा बनी रही है कि भारत की भूमिका पाकिस्तान के विरुद्ध मात्र अपने राष्ट्र हितों को साधने की रही है. सन् 1972 में शांति और मैत्री की संधि पर हस्ताक्षर करने के बाद दोनों ही देश आपसी संबंधों को सुधारने का प्रयास करते रहे, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. यही कारण है कि ज़मीन, पानी, अवैध आप्रवासन और सीमा सुरक्षा जैसे दशकों पुराने मुद्दे अभी तक सुलझ नहीं पाए हैं. उसी तरह बांग्लादेश भारत के बाज़ारों में खास तौर पर व्यापक रूप में निर्यात-योग्य अपने कपड़ों के उत्पादों की पहुँच बनाने में भी सफल नहीं हो पाया है.
सन् 2015 में जब भूमि सीमा करार की पुष्टि की गई तो इसे कामयाबी की एक ऐतिहासिक घटना और बांग्लादेश- भारत संबंधों में मील का पत्थर माना गया. सन् 1947 में इस उपमहाद्वीप में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंत होने के बाद से ही सीमांकन का मुद्दा अनसुलझा रहा. यही कारण है कि भूमि सीमा करार और भी महत्वपूर्ण बन गया. जहाँ एक ओर आशा की किरण दिखाई देने लगी है, वहीं दोनों सरकारों की राजनैतिक इच्छा-शक्ति भी एक महत्वपूर्ण कारण है, जिसकी वजह से इस लक्ष्य को हासिल किया जा सका है. साथ ही यह आशंका भी है कि शायद भूमि सीमा करार बहुत समय तक टिक न सके, खास तौर पर इसलिए कि दूसरे मुद्दे अभी-भी लंबित पड़े हैं.
भूमि सीमा करार कैसे संभव हो पाया ?
1 अगस्त, 2015 को द्विपक्षीय वार्ताओं में अपनी परिधीय स्थिति के बावजूद, भारत और बांग्लादेश ने औपचारिक रूप में साझी सीमा से लगे और बिखरे हुए 162 परिक्षेत्रों का दोनों ही स्तरों पर कम लागत पर दी गई रियायतों के साथ विनिमय किया और भावी संबंधों की सफलता का आधार तैयार किया. इन समझौतों के फलस्वरूप यह संभावना भी बनी है कि संबंधों के निर्वाह के पुराने तौर-तरीकों को छोड़ दिया जाए. भूमि सीमा करार के लिए अपेक्षित व्यापक वार्ताओं की तुलना में इससे कहीं अधिक बड़े लंबित मामलों को सुलझाना अब इतना जटिल नहीं रह गया है.
भारत और पाकिस्तान (बाद में बांग्ला देश) के बीच क्षेत्रीय विनिमय से संबंधित करार की पुष्टि के लिए भारत में संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता होती है. चूँकि भूमि सीमा करार का मामला ज़मीन के हस्तांतरण से संबंधित है, इसलिए इसकी जटिलता का अंदाज़ा शुरू से ही था. किसी भी परिक्षेत्र के हस्तांतरण का पहला प्रयास सन् 1958 में तब हुआ था, जब भारत और पाकिस्तान “बिना किसी क्षेत्रीय हानि या लाभ के विनिमय के लिए” सहमत हो गए थे. दूसरा समझौता सन् 1974 में भारत और बांग्ला देश के बीच हुआ था, लेकिन दोनों देशों के बीच मधुर संबंध न होने के कारण यह करार लागू न हो सका.
लगभग चार दशकों के गतिरोध के बाद सितंबर, 2011 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए ने तीसरी बार पहल की और दोनों देशों ने 1974 के अनसुलझे मुद्दों को लागू करने के लिए भूमि सीमा के प्रोटोकोल पर हस्ताक्षर किये. लेकिन इस मुद्दे के “क्षेत्रीय हस्तांतरण” के पहलू पर संसद में करार का विरोध होता रहा और असम और पश्चिम बंगाल ने इसकी प्रक्रिया में अवरोध पैदा कर दिया. भाजपा और तृणमूल कांग्रेस दोनों ने ही इस आधार पर करार को पारित करने का विरोध किया कि विधेयक की विषयवस्तु के संबंध में उनसे पहले परामर्श नहीं किया गया और इससे असम और पश्चिम बंगाल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है.
लेकिन जब भाजपा के नेतृत्व में एनडीए ने सन् 2014 में सत्ता हासिल की तो इसे ठंडे बस्ते से बाहर निकालकर इस पर नये सिरे से वार्ताएँ शुरू की गईं. प्रधान मंत्री मोदी और उनकी पार्टी ने पहले के अपने स्टैंड को बदल लिया और भूमि सीमा करार के पक्ष में राष्ट्रीय स्तर पर आम सहमति बनाई ताकि संवैधानिक संशोधन का मार्ग प्रशस्त हो सके. संसद में एनडीए का बहुमत होने के कारण यह काम उनके लिए कठिन नहीं रहा.
असम के दावों को विधेयक से हटा दिया गया और उसके बाद उन्होंने इस पर बहुत ज़ोर नहीं दिया और पश्चिम बंगाल के गंभीर मतभेदों को राजकोषीय मदद देने का आश्वासन देकर दूर कर दिया गया. इसके अलावा, असम और प. बंगाल दोनों को ही सीमा वार्ता के हाल के दौर में शामिल कर लिया गया. अपने राजनैतिक समर्थन के आधार को व्यापक बनाने के लिए मोदी सरकार भूमि सीमा करार को सफलता पूर्वक कार्यान्वित करना चाहती है. इसके लिए आवश्यक है कि सभी स्तरों पर गठबंधन करके आपसी सहयोग का वातावरण तैयार किया जाए. संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि भारतीय नेतृत्व ने घरेलू स्तर पर राजनैतिक व्यावहारिकता का रास्ता अपनाकर भारतीय संसद के दोनों सदनों से संशोधन का प्रस्ताव पारित कराने का मार्ग प्रशस्त कर लिया है.
बांग्ला देश के लिए भूमि सीमा करार पर हस्ताक्षर करने का मतलब है कि उनके स्तर पर काम पूरा हो गया. चूँकि उनके संविधान में संसद में विदेश नीति पर चर्चा की आवश्यकता का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए कार्यपालिका इस संबंध में कोई भी निर्णय लेने में पूरी तरह से सक्षम है. जहाँ बांग्ला देश ने 1974 में ही भूमि सीमा करार की पुष्टि कर दी थी, वहीं भारतीय संसद में इसकी पुष्टि मई 2015 में जाकर हुई थी. भूमि हस्तांतरण के पथ को प्रशस्त करने के लिए बांग्ला देश की प्रधान मंत्री शेख हसीना ने और प्रधानमंत्री मोदी ने 1974 में किये गये भूमि सीमा करार की पुष्टि से संबंधित दस्तावेज़ों का और 6 जून, 2015 को सन् 2011 के तत्संबंधी प्रोटोकोल का परस्पर विनिमय किया.
बांग्ला देश-भारत संबंधों को आगे बढ़ाने का मार्ग
भारत में राज्यों और केंद्र के बीच के तनाव-पूर्ण संबंधों को सुलझाने के लिए दृढ़ राजनैतिक इच्छा-शक्ति और द्विपक्षीय संकल्प बहुत आवश्यक है. भूमि सीमा करार ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रगति के पथ पर अग्रसर होने के लिए अतीत की मानसिकता को बदलना होगा. तथापि संबंधों को सुधारने के लिए भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. उदाहरण के लिए भारत ने बांग्ला देश की सीमा पर कँटीली तारें लगाई हैं, जो अपने-आप में इस अंतर्राष्ट्रीय नियम का उल्लंघन है कि पड़ोसी देशों की सीमाओं के बीच डेढ़ सौ गज़ की मानव-रहित भूमि होनी चाहिए. साथ ही दोनों देशों के बीच नदी के पानी के बँटवारे का मामला भी अभी तक विवादग्रस्त है. भारतीय सीमा सुरक्षा बल द्वारा बांग्ला देशी के नागरिकों को मार गिराने (अक्सर उन्हें गलती से तस्कर और अपराधी समझकर) की घटनाएँ बार-बार होती रहती हैं. बांग्ला देश की आम जनता को यह पसंद नहीं आता.
आज बांग्ला देश और भारत के बीच अतीत की भूलों को सुधारने की बहुत गुंजाइश है. बांग्ला देश में शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार भारत की विश्वसनीय सहयोगी मानी जाती है. पिछले रिकॉर्ड से पता चलता है कि जब भी कभी उनकी सरकार ढाका में सत्ता में आई है, दोनों देशों के संबंध बहुत अच्छे रहे हैं. 1996 की गंगा जल संधि और 1997 में चकमा और अन्य पहाड़ी दलों का भारत से प्रत्यर्पण ये दोनों इस बात के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. सन् 2008 में दोनों देशों के बीच पारगमन करार न होने पर भी भारतीय परिवहन की सेवाएँ बांग्ला देश को प्रदान करने के लिए अंतर्देशीय नदी प्रोटोकोल का उपयोग किया गया था.
बांग्ला देश में अवामी लीग की वर्तमान सरकार अपनी प्रतिद्वंद्वी बांग्लादेश नैशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) को मात देने के लिए भारत को बिना किसी अपेक्षा के अधिक से अधिक भारी रियायतें देने की पक्षधर रही है, जबकि बीएनपी को दिल्ली में भारत-विरोधी माना जाता है. जहाँ इसका अर्थ यह है कि हसीना सरकार के कार्यकाल में द्विपक्षीय संबंध बेहतर हो सकते हैं, वहीं इसे बांग्लादेश-भारत संबंधों का सही प्रतिबिंब नहीं माना जा सकता.
बांग्ला देश की जनता हसीना-भारत (बांग्ला देश -भारत के विपरीत) संबंधों को हाल ही में संदेह की नज़र से देखने लगी है. उल्लेखनीय बात यह है कि अवामी लीग की सरकार को लेकर लोगों में यह धारणा बनती जा रही है कि वह सत्ता में बने रहने के लिए भारत को प्रश्रय देने का प्रयास कर रही है और दूसरी तरफ़ भारत अपनी द्विपक्षीय वार्ताओं के ज़रिये ढाका से अवांछित लाभ उठाने का प्रयास कर रहा है. बांग्ला देश में जनता का असंतोष इस बात को लेकर भी है कि भारत की ऊर्जा कंपनियों की पहुँच बांग्ला देश के बाज़ारों में भी होने लगी है. इसी तरह ज़ीरो पॉइंट में सीमारेखा बनाई जा रही है, तीस्ता संधि लागू नहीं हुई है और बांग्ला देशी कंपनियों और टीवी चैनलों की पहुँच भारत के बाज़ारों में नहीं हो सकी है.
भारत-बांग्ला देश संबंधों को कामयाब बनाने के लिए भारत को बांग्ला देश के लोगों का दिल जीतना होगा और ऐसे उपाय करने होंगे जिनसे शत्रु पड़ोसी की छवि को मिटाया जा सके. भूमि संबंधी समस्याओं को सुलझाने के लिए भूमि सीमा करार पर हस्ताक्षर करके भारत ने इस दिशा में अच्छी शुरुआत की है. भारत-बांग्ला देश संबंधों को स्थायी बनाने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति से प्रेरित होकर ही एक-दूसरे के लाभ की दृष्टि से कदम उठाना आवश्यक है.
तमीना एम. चौधुरी वर्ल्ड बैंक, वाशिंगटन डीसी में सलाहकार हैं और दक्षिण एशिया में देशी पहचानः साम्राज्यवादी चटगाँव के पर्वतीय क्षेत्रों में दावे करना (Indigenous Identity in South Asia: Making Claims in the Colonial Chittagong Hill Tracts (Routledge, 2016) की लेखिका हैं. आपने कैंब्रिज विश्वविद्यालय, यू.के. से पीएचडी की है.
हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919