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विमुद्रीकरणः साफ़ तौर पर विध्वंस की राजनीति

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30/01/2017
अक्षय मंगला

8 नवंबर, 2016 को टेलीविज़न पर राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ऐसी  घोषणा की, जिससे सभी स्तब्ध रह गए. इसी दिन मध्यरात्रि से ₹500 और ₹1,000 के मूल्य-वर्ग के नोट अवैध हो जाएँगे. इस समय जो नकदी प्रचलन में है, वह एक अनुमान के अनुसार कुल नकदी का लगभग 86 प्रतिशत (₹15 ट्रिलियन) है. ऐसे अवैध नोट रखने वालों से कहा गया है कि वे 30 दिसंबर, 2016 तक बैंक में विमुद्रीकृत नोटों का विनिमय कर लें या उन्हें बैंक में जमा करा दें.

इस विध्वंसकारी नीति को अपनाने का घोषित कारण यही बताया गया है कि इससे “काले धन” पर रोक लगायी जा सकेगी. “काले धन” का मतलब है, ऐसा धन जो अघोषित स्रोतों से अर्जित किया गया हो. साथ ही एक घोषित कारण यह भी बताया गया कि इससे आपराधिक और आतंकवादी गतिविधियों से जुड़े जाली नोटों के फैलाव को भी रोका जा सकेगा. इस घोषणा के बाद परेशानियों से जूझते नागरिक घंटों तक बैंकों के सामने लाइन में खड़े रहकर अपने नोट बदलवाने की कोशिश में जुटे रहे. कुछ समय तक तो नकदी की कमी और उसके कारण चौपट अर्थव्यवस्था साफ़ नज़र आ रही थी. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने तो चालू राजकोषीय वर्ष के दौरान भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में एक प्रतिशत गिरावट की भी भविष्यवाणी कर दी है. 

इस नीति के गुण-दोषों को लेकर अर्थशास्त्रियों में काफ़ी मतभेद हैं. विशेषकर इस सवाल को लेकर उनमें गहरे मतभेद हैं कि जमा की गयी अघोषित नकदी पर एक बार जुर्माना लगाने से भविष्य में काले धन पर और उसकी जमाखोरी पर रोक लगेगी या नहीं. कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि विमुद्रीकरण से कर वंचकों की मानसिकता में स्थायी परिवर्तन आ जाएगा. दूसरे अर्थशास्त्रियों की राय है कि इससे कर वंचन और काले धन की जमाखोरी के और भी कई सूक्ष्म तरीके निकल आएँगे. हो सकता है कि लोग अपना पैसा सोने के रूप में या विदेशी बैंकों के खाते में जमा कर लें. इन मतभेदों के सुलझने में अभी कुछ और समय लगेगा. इस लेख में मैं विमुद्रीकरण की राजनीति और भारत की सार्वजनिक संस्थाओं पर उसके होने वाले प्रभाव पर विचार करना चाहूँगा. कई आलोचक मानते हैं कि विमुद्रीकरण के कार्यान्वयन को सरकार ने जितने फूहड़ तरीके से लागू किया था, उससे यह पता चल जाता है कि सरकार का रुख इस संबंध में काफ़ी स्वेच्छाचारी था और उसकी कार्रवाई भी फूहड़ तरीके से की गई थी. इससे ये सवाल स्पष्ट रूप में उभरकर सामने आते हैं : एक निर्वाचित सरकार ने ऐसी विध्वंसकारी नीति से संबंधित कदम उठाया ही क्यों? लोगों को इससे जो अल्पकालीन नुक्सान हुआ है, वह तो साफ़ दिखाई दे रहा है और दीर्घकालीन लाभों का भी कुछ पता नहीं है ? 

हम विमुद्रीकरण के राजनैतिक तर्कों की तो छानबीन कर ही सकते हैं, भले ही उन्हें कितने ही फूहड़ तरीके से क्यों न लागू किया गया हो. गरीब लोकतांत्रिक देशों में ग्राहकवाद पर किये गये अनुसंधान से पता चलता है कि राजनीतिज्ञों के लिए मतदाताओं के सामने नीति संबंधी गंभीर घोषणाएँ करना निश्चय ही बहुत कठिन होता है. इसका मोटा कारण तो यही है कि इन देशों में संस्थागत कमज़ोरियाँ होती हैं, जिनके कारण सार्वजनिक नीति और उनके कार्यान्वयन की मशीनरी लगभग ठप्प हो जाती है, क्योंकि मतदाता किसी भी नीति की सफलता (असफलता) के लिए न तो किसी को श्रेय दे सकता है (और न ही उस पर दोषारोपण कर सकता है). राजनीतिज्ञों के सामने ऐसा कोई मंच नहीं होता जहाँ वे किसी भी नीति की प्रतियोगिता में भाग ले सकें. उन्हें ऐसी नीति को लागू करने के लिए कोई प्रोत्साहन भी नहीं मिलता. वस्तुतः शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे व्यापक लाभकारी कार्यक्रमों का परिणाम भी इस बात पर निर्भर करता है कि इन्हें स्थानीय एजेंसियाँ किस तरह से लागू करती हैं, लेकिन विडंबना यही है कि स्थानीय एजेंसियों के पास ऐसे कार्यक्रमों को लागू करने के लिए आवश्यक साधन-सामग्री भी नहीं होती.

इस तर्क का यह आशय कतई नहीं है कि गरीब लोकतांत्रिक देशों में भलाई का काम किया ही नहीं जा सकता. ऐसी स्थिति में आनंदी मणि और शरुन मुकंद यह तर्क देते हैं कि राजनीतिज्ञ लोगों की भलाई का उतना ही काम करते हैं, जितना उन्हें दिखाई देता है. यही कारण है कि वे नीतिगत लक्षणों को इस तरह से तामीर करते हैं कि मतदाता या तो उन्हें इस बात के लिए श्रेय दे सकते हैं या फिर उन पर दोषारोपण कर सकते हैं. अफ्रीका के गरीब लोकतांत्रिक देशों पर इन तर्कों को लागू करते हुए डेविड स्टेवाज (न्यूयॉर्क विवि में राजनीति के प्रोफ़ेसर) यही पाते हैं कि निर्वाचित सरकारें प्राथमिक शिक्षा का प्रसार करने के लिए स्कूल की फ़ीस तक खत्म कर देती हैं. उनका यह प्रयास सबको दिखाई देता है ताकि वे उसका श्रेय ले सकें. इस बीच लोकतांत्रिक दृष्टि से चुनी गई सरकारों का शिक्षा संबंधी सेवाओं के कार्यान्वयन और गुणवत्ता पर कोई असर नहीं रह जाता. यह एक ऐसी जटिल प्रक्रिया है, जिस पर नज़र रखना बहुत कठिन है. इसका नतीजा यह होता है कि राजनीतिज्ञों को प्राथमिक शिक्षा के प्रसार का श्रेय तो मिलने लगता है, लेकिन स्कूली प्रणाली में शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित नहीं हो पाती.

आइए, अब इस तर्क को मोदी जी की सबको स्तब्ध करने वाली घोषणा से जोड़कर देखते हैं, जिसके अनुसार प्रचलन में मौजूद 86% राशि को विमुद्रीकृत कर दिया गया है. ऐसा करके उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि वह भारत के स्वातंत्र्योत्तर इतिहास के एक ऐसे राष्ट्रनेता हैं, जिन्होंने सही अर्थों में नीति निर्माण करने का साहस दिखाया है. एक ही झटके में उन्होंने हर भारतीय को सरकार की ताकत का भलीभाँति दिग्दर्शन करा दिया. देश-भर में बैंकों के सामने लगी लंबी लाइनों ने सरकार की प्रचंड शक्ति का प्रदर्शन कर दिया है. अगर इसका लक्ष्य सचमुच ही भ्रष्टाचार के प्रति सरकार के गंभीर रुख को प्रदर्शित करना था तो इससे बेहतर विकल्प के बारे में सोचना भी मुश्किल है. इस घोषणा के बाद मीडिया के भारी विस्फोट ने जिस तरह से विमुद्रीकरण को भ्रष्टाचार विरोधी कदम के रूप में स्थापित कर दिया, उससे तो यही लगता है कि सरकार ने सोच-समझकर ही इसे भारी मुद्दा बनाने का प्रयास किया था. यह बात दीगर है कि इस नीतिगत निर्णय से विशाल आर्थिक लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलता मिलेगी या नहीं. राजनैतिक दृष्टि से तो यही अपेक्षा हो सकती है कि विमुद्रीकरण और मोदी सरकार द्वारा भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए उठाये गये गंभीर उपायों के बीच के संबंध को मतदाता समझ सके. सरकार द्वारा जनता पर जो सख्त कार्रवाई की जा रही है, उससे भी राजनैतिक प्रयास का ही संकेत मिलता है.

निश्चय ही इस प्रकार का स्पष्ट विध्वंस राजनैतिक दृष्टि से भारी जोखिम का काम हो सकता है, क्योंकि अगर मतदाता इसके लिए उन्हें श्रेय दे सकता है तो दोषारोपण भी कर सकता है.   गरीब मतदाताओं पर पड़ने वाले विमुद्रीकरण के असमान विभाजक नतीजों पर भी विचार किया जाना चाहिए. इससे सबसे अधिक तकलीफ़ उन लोगों को ही होनी थी जिनका गुज़ारा पूरी तरह से नकदी पर आधारित अनौपचरिक अर्थव्यवस्था से ही होता था. यह अर्थव्यवस्था भारत के सकल घरेलू उत्पाद की लगभग 45 प्रतिशत है और इसमें लगे कामगारों का प्रतिशत 80 प्रतिशत है. इससे खेतीबाड़ी की सप्लाई चेन को भारी झटका लगा और रबी की बुवाई के मौसम में किसानों को भी भारी नुक्सान झेलना पड़ा. निर्माण और उससे संबद्ध उद्योगों में गिरावट आने से आप्रवासी कामगार भी अपने गाँवों की ओर लौटने लगे. शहरी केंद्रों के बाहर बसे गाँवों के गरीब लोगों पर इसका सबसे अधिक असर पड़ा, क्योंकि इनके पास न तो बैंकों में खाते थे और न ही एटीएम मशीनें.

साथ ही जनता की राय भाजपा के पक्ष में भी जा सकती थी. वैसे तो मतदाताओं को पहली नज़र में सार्वजनिक संस्थाओं पर भरोसा ही नहीं होता कि वे इसे अच्छी तरह से लागू भी कर पाएँगी. यही कारण है कि वे इसके लिए मोदी सरकार को भी दोषी नहीं मान सकते. (बैंक के भ्रष्ट अधिकारियों को भी वे कुछ हद तक इसके लिए दोषी मान सकते हैं). इस बीच सरकार इस बात के लिए पूरा श्रेय तो ले ही सकती है कि उन्होंने काले धन को रोकने के लिए हर संभव कोशिश की. यदि संस्थागत कमज़ोरी के कारण विमुद्रीकरण को स्पष्ट राजनैतिक रणनीति के तौर पर पहले ही चरण में अपना लिया जाता तो भाजपा के लिए राजनैतिक जोखिम भी कम हो जाता. कमज़ोर संस्थागत परिवेश में मतदाता व्यवस्थित रूप में स्पष्ट नीतियों के लिए किसको श्रेय देता या किस पर दोषारोपण करता.. यह एक खुला सवाल है. कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया सुसंगत न होने से भी भाजपा को लाभ मिल सकता है, क्योंकि इसके विरुद्ध प्रतिक्रियाओं को समन्वित करने में यह पार्टी बराबर असमर्थ रही. विमुद्रीकरण के बारे में, खास तौर पर भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में विधान सभा के आगामी चुनावों के आलोक में जनता की राय का पता लगाने में विश्लेषकों को काफ़ी मुश्किल हो रही है. हम इसके बारे में तभी जान पाएँगे जब मतदाता मोदी की राजनैतिक चाल के बारे में यूपी में वोट के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया देंगे. 

भारत के लिए स्पष्ट विध्वंस की राजनीति के क्या निहितार्थ हैं ? सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि भारतीय रिज़र्व बैंक की साख कम हुई है. आधुनिक मौद्रिक प्रणाली भरोसे पर ही टिकी होती है. यह भरोसा खास तौर पर उन केंद्रीय बैंकों पर टिका होता है, जिनका काम ही मुद्रा सप्लाई को नियंत्रित करना और मोटे तौर पर आर्थिक परिवेश में स्थायित्व बनाये रखना है. जिस तरह से पुरानी मुद्रा को बहुत ही रहस्यात्मक ढंग से और ऊबड़-खाबड़ रूप में अवैध घोषित किया गया था और नये नोटों को जारी किया गया था, उससे भारतीय रिज़र्व बैंक की आज़ादी सवालों के घेरे में आ गयी है. पहले 50 दिनों में रिज़र्व बैंक ने 59 सार्वजनिक अधिसूचनाएँ जारी की थीं. पैसा जमा कराने और निकालने के नियमों में तदर्थ परिवर्तनों से अनिश्चितता का माहौल गहराता गया. बुनियादी साधन-सामग्री जुटाने की तैयारियों की बेहद कमी रही, जिसके कारण हर बात में विलंब होता रहा. नये छापे गये नोटों का आकार पुराने नोटों से अलग था, इसलिए नये नोटों को एटीएम मशीनों में डालने से पहले इन मशीनों में संशोधन करना आवश्यक था ताकि उनसे नये नोटों को निकाला जा सके. इससे भी बुरी बात तो यह हुई कि रिज़र्व बैंक ने समय से पहले पर्याप्त मात्रा में नोट छापकर नहीं रखे थे. इसके पास अभी भी बैंकिंग प्रणाली की आवश्यकता के अनुरूप नोट छापने की क्षमता नहीं है. यही कारण है कि नकदी की कमी के कारण वास्तविक रूप में आर्थिक गतिविधियाँ थम गईं. रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर और वर्तमान कर्मचारी भी खुलकर उसकी आलोचना करने लगे, जिसके कारण रिज़र्व बैंक की प्रतिष्ठा को भारी धक्का लगा. अगर निजी निवेशकों के मन में रिज़र्व बैंक की साख कम हो जाए तो भारत में लोग पूँजी नहीं लगाएँगे, जो अर्थव्यवस्था को उभारने के लिए बेहद ज़रूरी है.

रिज़र्व बैंक जैसी ऐतिहासिक दृष्टि से सक्षम संस्थाएँ ही ऐसे विध्वंस को रोक सकती हैं. मेरी नज़र में रोज़मर्रे की यही परेशानियाँ देश के लिए अधिक घातक सिद्ध हो सकती हैं. उदाहरण के लिए कर संग्रह की बात को ही लेते हैं. हाल ही में जारी किये गये आँकड़ों से पता चलता है 2013 में केवल 1 प्रतिशत लोगों ने ही आयकर भरा था. भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कराधान का अनुपात बेहद कम अर्थात् 16.6 प्रतिशत है, जबकि उदीयमान अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों में यही अनुपात 21 प्रतिशत और आर्थिक सहयोग व विकास संगठन (OECD) में इसका अनुपात 34 प्रतिशत है. करवंचन करने वाले दोषी नागरिकों को पकड़कर उन्हें दंडित करने के बहुत कम उदाहरण हमारे सामने हैं और इस समस्या का निराकरण मात्र विमुद्रीकरण से अपने-आप नहीं हो जाएगा. कर संग्रह करने वाली एजेंसियों में मूलभूत सुधार की आवश्यकता है. इसके लिए उन्हें न केवल अधिक कर्मचारी भर्ती करने होंगे, बल्कि आचरण के व्यावसायिक मानदंड भी स्थापित करने होंगे. कराधान की क्षमता इस बात निर्भर करती है कि समाज उसके नियमों का अनुपालन करे और इससे ही नागरिकों का विश्वास भी सार्वजनिक संस्थाओं पर बढ़ता है. मोदी ने स्वयं यह माना है कि कराधान एजेंसियों और करदाता के बीच कराधान अधिकारियों के “उत्पीड़न” की संस्कृति के कारण ही “विश्वास की कमी” है. उनकी सरकार को अवसर मिला है कि वे व्यावसायिक रूप में कराधान एजेंसियों में सुधार लाएँ. लेकिन साफ़ तौर पर विध्वंसकारी नीतिगत उपायों को लागू करने की मूल प्रेरणा ही राष्ट्र-निर्माण के लिए जटिल और दीर्घकालीन उपायों के विरुद्ध जा सकती है. अंत में यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हमें अपने-आपसे यह पूछना होगा कि क्या विमुद्रीकरण चुनावी ढंग से ही “काम करता है” और क्या भारत की संस्थाओं को दाँव पर लगाकर ही यह संभव हो सकता है.

अक्षय मंगला हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल में सहायक प्रोफ़ेसर हैं. इस स्कूल में वह बिज़नेस, सरकार और अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था संबंधी इकाइयों का अध्यापन करते हैं.

 

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919