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कारोबार में अल्पसंख्यकः भारत अमरीका के सप्लायर विविधता के कार्यक्रमों से क्या सीख सकता है ?

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05/12/2016
नरेन करुणाकरन

अमरीकियों के पास लगभग 28 मिलियन छोटे कारोबार हैं. इनमें से 8 मिलियन कारोबार अल्पसंख्यकों के पास हैं और अल्पसंख्यकों के इन कारोबारों से उत्पन्न 64 प्रतिशत नई नौकरियाँ ऐसी हैं, जिनकी शुरुआत 1993 और 2011 के बीच हुई थी. लगभग आधे अमरीकी कामगार इन नौकरियों पर ही लगे हुए हैं. राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप की कामयाबी इन्हीं छोटे कारोबारों के कार्य-परिणामों पर ही निर्भर करती है. यह बात तो निःसंकोच मानी जा सकती है कि कई दशकों से सतत चलने वाले सप्लायर डाइवर्सिटी ईको सिस्टम में न तो कोई कटौती हो सकती है और न ही उसके विशेष दर्जे को कोई आघात पहुँच सकता है. अल्पसंख्यकों की मिल्कियत वाली फ़र्मों की वार्षिक सकल प्राप्तियाँ $1.4 ट्रिलियन डॉलर की हैं और इनमें 7.2 मिलियन लोग काम करते हैं.

सप्लायर विविधता के उपाय न केवल अमरीका के लिए बल्कि भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओँ के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि अधिकाधिक अल्पसंख्यकों से संबंधित या कारोबारी उद्यमों में सप्लाई चेन की कंपनियाँ और सरकारी विभाग शामिल हैं. ये विशेष प्रकार की वसूली करते हैं और इनके खास प्रकार के कारोबार या लक्ष्य निर्धारित होते हैं. अमरीका में सभी संघीय करारों के 23 प्रतिशत मूल्य के डॉलर छोटे कारोबारों को देने की अपेक्षा की जाती है. कुछ उप-लक्ष्य भी निर्धारित किये गये हैं: 5 प्रतिशत वंचित वर्ग के कारोबार (अल्पसंख्यकों) के लिए; 5 प्रतिशत महिलाओं की मिल्कियत में चलने वाले कारोबार के लिए ; 3 प्रतिशत विकलांग अनुभवी लोगों के कारोबार के लिए और 3 प्रतिशत ऐतिहासिक दृष्टि से ऐसे कारोबारी क्षेत्रों (HUB) के लिए, जिनका उपयोग बहुत कम हुआ है.

पिछले साल संघ सरकार ने छोटे कारोबारों को सबसे अधिक प्रतिशत मूल्य के करारों के डॉलर (25.75 प्रतिशत, कुल $90.7 बिलियन डॉलर) प्रदान किये थे. वंचित समुदाय के कारोबार को 10 प्रतिशत से भी अधिक लक्ष्य के करार दिये गये थे. फ़ोर्ड, जीएम, जॉन्सन ऐंड जॉन्सन,आईबीएम, वालमार्ट और माइक्रोसॉफ़्ट जैसे अमरीका के कुछ बड़े निगमों ने भी, जो राष्ट्रीय अल्पसंख्यक सप्लायर विकास परिषद (NMSDC) के सदस्य थे और जो एक नैटवर्क के रूप में काम करते थे, 100 बिलियन डॉलर के वार्षिक खर्च के साथ अपने देश में अल्पसंख्यकों के कारोबार के साथ एक जीवंत सप्लायर विविधता ईको सिस्टम बनाने में सहयोग दिया.     

सन् 2012 में भारत में एक कानून पारित किया गया, जिसमें छोटे कारोबारों के लिए 20 प्रतिशत का कोटा निर्धारित कर दिया गया, जिसमें 4 प्रतिशत उन कारोबारों के लिए रखा गया जिनकी मिल्कियत अनुसूचित जाति (SC) के लोगों के पास थी, जिन्हें  अनुसूचित जनजाति (ST) या दलितों के नाम से भी जाना जाता है और भारतीय समाज में जो सबसे अधिक उपेक्षित समुदाय हैं. यह कार्यक्रम अभी तक आगे नहीं बढ़ पाया है. एक साल पहले अनुसूचित जाति / जनजाति (SC/ST) के लोगों के पास ठेकेदारी का काम मुश्किल से 0.50 प्रतिशत था. भारत इस मामले में अमरीकी अनुभव से सीख सकता था.   

सप्लायर विविधता कार्यक्रमों के पीछे तर्क क्या है? ये उपाय इसलिए आवश्यक हैं, क्योंकि छोटे और अल्पसंख्यकों के कारोबार में अभी तक भेदभाव बरते जाने के कारण बहुत-सी बाधाएँ हैं. स्थूल रूप में सप्लायर विविधता आर्थिक विकास और मदद का एक ऐसा साधन है जिससे समाज में धन और आमदनी के भारी अंतर को कम किया जा सकता है. यद्यपि बहुत-से निगम आज भी विविधता के उपायों को लेकर प्रतिबद्ध हैं, लेकिन अगर इस कार्यक्रम में सफलता मिली है तो इसका कारण है सरकार का दृढ़ संकल्प. बड़े निगम खुले शब्दों में अब सप्लायर विविधता को ‘कारोबारी दृष्टि से’ भी उपयोगी मानने लगे हैं.

इस साल व्यक्तिगत देखभाल के उत्पाद बनाने वाला युनिलीवर नामक निगम सिर्फ़ इसलिए ही राष्ट्रीय अल्पसंख्यक सप्लायर विकास परिषद (NMSDC) में शामिल हो गया, क्योंकि उपभोक्ता डॉलर अल्पसंख्यकों को हाथ में हैं. अफ्रीकी अमरीकियों की वर्तमान खरीद शक्ति लगभग $1 ट्रिलियन डॉलर है और सन् 2017 तक यह $1.3 ट्रिलियन के आँकड़े को छू सकती है. भारत में दलितों की खरीद की शक्ति पर कोई अध्ययन नहीं किया गया है, मध्यम वर्ग के दलितों की बढ़ती संख्या को अगर उपभोक्ता के प्रिज़्म से देखा जाए तो यह बहुत आकर्षक हो सकता है. अगर इस मुद्दे पर प्रकाश डाला जाए तो शायद भारतीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ स्तब्ध रह जाएँगी और इनके साथ कारोबार करना चाहेंगी.

जनरल मोटर्स ने डिट्रॉइट के दंगों के बाद अफ्रीकी अमरीकियों के साथ सन् 1968 में कारोबार शुरू किया था. आज यह अमरीका का सबसे बड़ा सप्लायर विविधता कार्यक्रम है, जिसमें स्थापना से लेकर अब तक अल्पसंख्यक फ़र्मों पर कुल टियर-1 के साथ $84 बिलियन डॉलर का खर्च किया गया है. इसी कारोबारी संबंध के कारण ही कार की खरीद के बारे में निर्णय लेते समय जनरल मोटर्स के अपने ग्राहकों के साथ घनिष्ठ संबंध बनने लगे, जिसका उसे कंपनी को लाभ भी मिला. अल्पसंख्यकों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाते समय कंपनी को बस उनके सरोकारों का ध्यान रखना होगा. सप्लायर विविधता ऐसा ही एक मार्ग है.

दिलचस्प बात तो यह है कि बहुत कम बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ ऐसी हैं जो सप्लायर विविधता की चैम्पियन रहने के बावजूद इस अवधारणा को भारत ले जाने में दिलचस्पी रखती हैं. भारत में भी सरकार का संकल्प ऐसा ही होना चाहिए जैसा अमरीका में था. सन् 1978 में अमरीकी सार्वजनिक कानून 95-507 पारित किया गया था, जिसने एक झटके में ही निजी क्षेत्र को यह सोच अपनाने के लिए बाध्य कर दिया था कि “उप-ठेकेदारी” के स्पष्ट उद्घोष के साथ वे अपनी सप्लाई चेन को विशाखित करने की दिशा में काम शुरू कर दें. इस कानून में यह व्यवस्था की गई थी कि $500,000 डॉलर से अधिक माल और सेवाओं के लिए और $1 मिलियन डॉलर तक के निर्माण कार्यों के लिए संघीय ठेके की बोली लगाने वाली कंपनियाँ एक विस्तृत उप-ठेकेदारी योजना बनाकर प्रस्तुत करेंगी जिसमें अल्पसंख्यकों के कारोबार के उपयोग के ब्यौरे दिये गये हों. इसे शहरी स्तर पर भी लागू किया गया है. उदाहरण के लिए फ़िलेडेल्फिया ने शहर में $951 मिलियन डॉलर का विश्लेषण करके सन् 2015 में अर्ध-सार्वजनिक करार किये. इसमें से 30.6 प्रतिशत ($290.4 मिलियन डॉलर) करार अल्पसंख्यकों/महिलाओं/विकलांग कारोबारियों के उद्यमों (M/W/DSBE) के लिए थे, जबकि सन् 2014 में इसका प्रतिशत 29.4 था.

साक्ष्य के अनुसार सप्लायर विविधता संबंधी उपाय सभी स्तरों पर, संघ सरकार लेकर स्थानीय सरकारों पर भी लागू होते हैं. भारत में नीतिगत उपाय मुख्यतः पूँजी तक सीमित रहते हैं और इस प्रक्रिया को सुगम बनाने पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है.   अमरीका में पूँजीगत सरोकारों का तो ख्याल रखा ही जाता है, क्योंकि छोटे कारोबार के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती रहती है. पिछले साल लघु कारोबारी प्रशासन (SBA) ने कुल $27.8 बिलियन डॉलर के ऋणों की मंजूरी दी थी.

हालाँकि पूँजी एक बहुत बड़ी आवश्यकता है, लेकिन सफल कारोबार शुरू करने या उसे चलाने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय के किसी उद्यमी के पास अनेक क्षमताओं की भी कमी होती है. क्षमता निर्माण किसी भी कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण साधन होता है. ईको सिस्टम के उपाय से ऐसे कई सरोकारों का ख्याल रखा जा सकता है. पिछले कई वर्षों में लघु कारोबारी प्रशासन (SBA) और अल्पसंख्यक कारोबार विकास एजेंसी (MBDA) नामक संघीय एजेंसी ने एक अनूठा सुविधा देने वाला फ्रेमवर्क बनाया है. अल्पसंख्यकों के कारोबार का प्रमाणन, प्रशिक्षण और प्रबंधन की शिक्षा से लेकर विदेशी मंडियों की खोज में मदद करने जैसे बेहद बुनियादी मुद्दों पर मदद करने के लिए भी योजना बनाई जा रही है.

कुछ महीने पहले ही अल्पसंख्यक कारोबार विकास एजेंसी (MBDA) ने अल्पसंख्यकों के कारोबार को हज़ारों अमरीकी संघीय प्रयोगशालाओं के संसाधनों से जोड़ने के लिए समावेशी नवोन्मेषकारी पहल (I-3) की है. इसके पीछे मंशा यही है कि अल्पसंख्यकों की फ़र्मों को नवोन्मेषकारी बनाया जाए और बिग डैटा से इंटरनैट तक का सफ़र आसान बनाया जाए.  इनमें से दो कार्यक्रम उल्लेखनीय हैं : द मैंटर-प्रोटीज प्रोग्राम और 36 वर्ष पुराना लघु कारोबार विकास केंद्र (SBDC) नैटवर्क.

लघु कारोबारी प्रशासन (SBA) का द मैंटर-प्रोटीज प्रोग्राम छोटी अल्पसंख्यक फ़र्मों की बड़े कारोबार के साथ सहयोग करने में मदद करता है, भले ही यह किसी अल्पसंख्यक की फ़र्म हो या किसी अश्वेत की मिल्कियत हो. मार्गदर्शी कंपनियाँ भी प्रोटीज फ़र्म के साथ संयुक्त उपक्रम बनाकर संघीय करारों के लिए प्रतिस्पर्धा में भाग ले सकती हैं और ऐसी फ़र्मों (जिनमें ईक्विटी होल्डिंग की सीमा 40 प्रतिशत हो) में निवेश भी कर सकती हैं. अमरीका में 1,000 केंद्रों वाले लघु कारोबार विकास केंद्र (SBDC) का नैटवर्क एक ऐसी भागीदारी है, जिसमें अमरीकी कांग्रेस, लघु कारोबार विकास केंद्र (SBDC), निजी क्षेत्र, राज्य सरकारें और कॉलेज / विश्वविद्यालय भी शामिल हैं. ये केंद्र ज़्यादातर अल्पसंख्यक उद्यमियों को प्रबंधन और तकनीकी सहायता निःशुल्क प्रदान करते हैं.   

तत्संबंधी प्रभाव का आकलन करने वाले बयान में बताया गया हैः लघु कारोबार विकास केंद्र (SBDC) द्वारा हर तेतीस मिनट में सक्रिय क्लाएंट वाला नया कारोबार शुरू किया जाता है; हर सात मिनट में एक नये रोज़गार का अवसर पैदा होता है; हर चार मिनट में $100,000 डॉलर की नई बिक्री की जाती है और हर पंद्रह मिनट में $100,000 डॉलर की पूँजी प्राप्त की जाती है.

इसका यह अर्थ नहीं है कि सप्लायर विविधता के इस नये ईको सिस्टम में कोई दोष नहीं है. इसके कार्यान्वयन में भी अनेक कमियाँ हैं और इसकी वृद्धि भी बेमेल है. अल्पसंख्यक कारोबार विकास एजेंसी (MBDA) के उपलब्ध नवीनतम आँकड़ों के अनुसार अफ्रीकी अमरीकी फ़र्मों की समन्वित वार्षिक सकल प्राप्तियाँ लगभग $150 बिलियन डॉलर हैं, जबकि एशियन अमरीकी फ़र्मों की प्राप्तियाँ लगभग $699 बिलियन डॉलर और स्पेनिश फ़र्मों की प्राप्तियाँ लगभग $473 बिलियन डॉलर हैं. अफ्रीकी अमरीकी लोग अन्य अल्पसंख्यकों की तरह इन योजनाओं का लाभ उठाने में विफल रहे हैं.  

फ़िलेडेल्फिया में श्वेत महिलाओं की मिल्कियत वाले कारोबार का उपयोग सबसे अधिक किया गया है. सक्रिय कार्यकर्ताओं के अनुसार इन फ़र्मों की आड़ में श्वेत पुरुष ये कारोबार चलाते हैं. उन्होंने $100 बिलियन डॉलर के वार्षिक खर्च वाले अल्पसंख्यकों के कारोबार और उसके परिणामस्वरूप उच्च वर्ग के अल्पसंख्यकों के एक छोटे-से समूह के निर्माण की ओर भी संकेत किया. उन्होंने लगभग 200 कंपनियों के उस “क्लब” की ओर भी संकेत करते हुए बताया कि वार्षिक विविधता वाले खर्च के साथ-साथ इन कंपनियों का कुल मूल्य $50 बिलियन डॉलर है.

तथापि तमाम कमियों और विकृतियों को बावजूद अमरीका में सप्लायर विविधता ईको सिस्टम का अल्पसंख्यकों के समुदाय पर निर्विवाद रूप में अच्छा असर पड़ा है. राष्ट्रीय अल्पसंख्यक सप्लायर विकास परिषद (NMSDC) और अन्य संस्थाएँ इस प्रभाव का आकलन करने के लिए व्यापक अध्ययन कर रही हैं. भारत इस बारे में अमरीकी अनुभव से बहुत कुछ सीख सकता है. खास तौर पर, आवश्यकता इस बात की है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के उद्यमियों के लिए ईको सिस्टम के माध्यम से व्यापक गठबंधन करके क्षमताओं का निर्माण किया जाए (क्षमता निर्माण इस कार्यक्रम की सफलता की कुंजी है); भारत में सप्लायर विविधता की वर्तमान नीति ऊपर से नीचे की है. इसकी शुरुआत नीचे (देश की नगरपालिकाओं) से की जानी चाहिए; और निजी क्षेत्र को जोड़ने के लिए उप-ठेकेदारी का नज़रिया बेहद ज़रूरी है, लेकिन इसका कानूनी प्रावधान सरकार को ही करना होगा.    

नरेन करुणाकरन द इकॉनॉमिस्ट टाइम्स में वरिष्ठ पत्रकार हैं और कैसी के 2016 के पतझड़ सत्र 2016 में विज़िटिंग फ़ैलो हैं.

 हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919