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काम करने के अधिकार को सबल बनाने के लिएः भारत का दसवर्षीय राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम

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29/02/2016
रॉब जेकिन्स

फ़रवरी,2016 में भारत के राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम को लागू हुए दस साल पूरे हो गए. नरेगा क्रांतिकारी होने के साथ-साथ सीमित भी है. जहाँ इससे एक ओर प्रत्येक ग्रामीण परिवार को सार्वजनिक निर्माण की परियोजनाओं पर साल में सौ दिन का रोज़गार मिलता है, वहीं दूसरी ओर श्रम भी बहुत ज़्यादा करना पड़ता है और मज़दूरी भी बहुत कम मिलती है.

नरेगा पर बहुत-से आरोप लगाये गए हैं: गरीबी दूर करने में मदद करने का यह सबसे अच्छा ढंग नहीं है; सार्वजनिक निर्माण का काम भी अच्छे स्तर का नहीं होता ; और अधिकारी इस कार्यक्रम का पैसा भी हड़प लेते हैं. कुछ जगहों पर तो ये शिकायतें सही होती हैं, लेकिन सभी शिकायतें सही नहीं होतीं.  कुछ आरोपों में तो अतिशयोक्ति ही अधिक होती है. जब से 2004-2014 के बीच कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में सत्ता पर आसीन यूपीए गठबंधन की सरकार के नीतिगत एजेंडा के अनुसार काम करने के अधिकार पर पहल की गई है, तब से इस पर नरेगा के आर्थिक लाभों को बहुत ही व्यवस्थित रूप में कम करके ही आँका जाता रहा है. यह एक ऐसा कार्यक्रम है, जिसके अंतर्गत भारत के सबसे अधिक गरीब और हाशिये पर बैठे लोगों को कुछ आर्थिक मदद मिल जाती है. वस्तुतः ये वही लोग हैं जिन तक सामाजिक सुरक्षा के किसी भी कार्यक्रम की पहुँच नहीं होती.  

नरेगा के प्रखर आलोचक भी इसके राजनीतिक प्रभाव की अवहेलना करते हैं.  खास तौर पर वे तमाम तंत्र, जिनके ज़रिये मेरे सहलेखक और मैं यह मानते हैं कि इस कार्यक्रम के कार्यान्वयन की प्रक्रिया गरीबों की “राजनीतिक क्षमता” को बढ़ा सकती है. नरेगा के व्यापक महत्व को समझने के लिए पहले इसके राजनीतिक स्वरूप को समझना होगा. नरेगा के कार्यान्वयन की प्रक्रिया का करीब से अध्ययन करने वाले एक पर्यवेक्षक हिमांशु ने पाया है कि ऐसे कार्यक्रमों के अंतर्गत “हकदारी की राजनीति” केवल विधायी अधिकारों के रूप में नहीं, बल्कि भागीदारी की राजनीतिक प्रक्रिया के रूप में ही कार्यान्वित की जा सकती है और उचित सिद्ध की जा सकती है. हमारी आगामी पुस्तक Politics and the Right to Work: India’s National Rural Employment Guarantee Act (Hurst/Oxford) में हमने राजनीतिक क्षमता को राजनीतिक जागरूकता, संपर्क, विश्वास और कौशल के मिश्रण के रूप में परिभाषित किया है. नरेगा में भागीदारी और जवाबदेही का प्रावधान आम आदमी को एक ऐसी आवाज़ देता है, जिससे कि वह अपने-आपको स्थानीय निर्माण की परियोजनाओं और अवसरों के साथ एकाकार कर सके और इन परियोजनाओं की नागरिक-लेखा परीक्षा में सामूहिक तौर पर उनके एकबारगी पूरा होने तक (मज़दूरी के भुगतान के व्यवस्थित सत्यापन के ज़रिये) जोड़कर रख सके. नरेगा के निर्माताओं ने यह समझ लिया था कि सामाजिक लेखा-परीक्षा और जवाबदेही के तंत्र अपूर्ण रूप में ही काम करेंगे. कुछ भारतीय उन तमाम कार्यकर्ताओं से अधिक ही जानते थे, जिन्होंने नरेगा का डिज़ाइन ही ऐसा बनाया था, जिसमें तरह-तरह की धोखाधड़ी, देरी और टाल-मटोल की गुंजाइश बनी रहे ताकि शक्तिसंपन्न लोग इन योजनाओं का दुरुपयोग कर सकें. फिर भी वे यह मानते थे कि नरेगा के कार्यान्वयन में स्थानीय तौर पर निर्वाचित पंचायतों की ही प्रमुख भूमिका रहेगी, लेकिन अधिकारियों द्वारा इसके कार्यक्रमों से की जाने वाली चोरी के प्रयास भी होते ही रहेंगे. फिर भी इरादा यही था कि एक ऐसा संस्थागत ढाँचा खड़ा किया जाए जिससे बार-बार पनपने वाली असंतोष की भावना को निरंतर दावा करने की प्रक्रिया में परिणत किया जाता रहे.

नरेगा ने पंचायतों को गाँव और ज़िले के स्तर पर सबल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. नरेगा की कम से कम आधी निधि का उपयोग उन परियोजनाओं पर खर्च करना अपेक्षित होता है, जिनका डिज़ाइन और कार्यान्वयन पंचायतों द्वारा किया जाता है. नरेगा के संसाधनों के कारण ही अपनी तमाम कमियों के बावजूद भी निर्वाचित ग्राम पंचायत ऐसे केंद्र के रूप में विकसित हो गए हैं जहाँ गरीब लोगों की जवाबदेही की माँगों को कानूनी जामा पहनाया है. राजस्थान जैसे कुछ राज्यों में तो इस प्रक्रिया को प्रतिष्ठित सिविल सोसायटी द्वारा और तमिलनाडु जैसे अन्य राज्यों में राज्य के सक्षम नौकरशाहों द्वारा सहयोग प्रदान किया गया. सिविल सोसायटी से संपर्क बनाकर नरेगा जैसी अधिकार-आधारित पहल की क्षमता को बढ़ाने के लिए बहुत ही सार्थक प्रयास किया जा सकता है, लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि हर प्रकार के सिविल संपर्क से ऐसे ही सार्थक परिणाम मिलें. राजस्थान और मध्यप्रदेश के फ़ील्ड में किये गये अध्ययन से यह पता चलता है कि उन तमाम हाइब्रिड संगठनों के लिए यह संपर्क अधिक प्रभावशाली रहा है, जिनके एनजीओ रूढ़िवादी होते हैं और जिनका फ़ोकस शासन और सर्विस की डिलीवरी रहता है और जिनकी सामाजिक गतिविधियों में टकराहट और लामबंदी की प्रवृत्तियाँ रहती हैं. 

नरेगा के संस्थागत स्वरूप और डिज़ाइन से संरक्षणवादी राजनीति पूरी तरह खत्म तो नहीं हुई, लेकिन उसको आघात ज़रूर लगा है. नरेगा की परिकल्पना करने वालों ने यह सोचा भी नहीं था कि इसके लागू होने से भारत में लंबे समय से चली आ रही राजनीतिक संरक्षकों की दखलदांजी और काम के वितरण में स्थानीय अधिकारियों द्वारा श्रमिकों की मज़दूरी हड़पने की प्रवृत्ति तत्काल ही खत्म हो जाएगी, लेकिन नरेगा के आरंभिक समर्थकों का यह पक्का विश्वास था कि भारत में नरेगा के लंबे सफ़र में संरक्षणवाद की समाप्ति के बाद के आने वाले समय में यह एक ऐसा महत्वपूर्ण चरण सिद्ध होगा, जिसमें सरकार का राजनीतिक भविष्य इसी बात पर उत्तरोत्तर तय होगा कि नरेगा के कार्य-परिणाम इसके घोषित उद्देश्यों के अनुरूप निष्पक्ष रूप में डिलीवर हुए हैं या नहीं. सिविल सोसायटी के संगठनों द्वारा राज्य से साथ भागीदारी के रूप में या विरोध करते हुए इस कार्यक्रम के बारे में सुझाये गये सुधार कार्यक्रमों के कारण ही यह तय किया गया कि मज़दूरी श्रमिकों के व्यक्तिगत खातों में सीधे ही जमा करा दी जाए. यही कारण है कि औपचारिक वित्तीय क्षेत्र में भी ग्रामीण लोगों की तादाद में भारी वृद्धि हुई. श्रमिकों की मज़दूरी की चोरी के ऐसे बेशर्म कारनामे इस तरह की अग्रणी रोज़गार योजनाओं में बहुत कम हो गए हैं. नरेगा के श्रमिकों के साथ ऐसे संपर्क ने ही उन्हें प्रमुख पदाधिकारियों की भूमिका के प्रति अधिक सचेत कर दिया है, भले ही नरेगा का काम अपेक्षाकृत ठीक-ठाक चल रहा हो या इसे मात्र स्थानीय तौर पर प्रभावशाली लोगों के लाभ के लिए ही चलाया जा रहा हो.

अत्यंत महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक आयामों पर भी नरेगा का गौण रूप में व्यापक प्रभाव पड़ता है. इन परियोजनाओं में भाग लेने वाले लोग ऐसे कार्यस्थलों पर भी जाते हैं जो उनकी जाति-बिरादरी या समुदाय से अलग हटकर हों और अक्सर उन्हें ऐसे इलाकों में भी जाना पड़ता है जहाँ अलग-अलग बिरादरी के लोग काम करने के लिए आते हैं और जहाँ (उनकी मज़दूरी रोक लिये जाने पर) वे सभी लोग सामूहिक तौर पर विरोध करते हैं.    नरेगा की परियोजनाओं में काम करने वाली अनेक महिलाएँ तो घर से निकलकर सीधे ही सार्वजनिक स्थलों पर आ पहुँचती हैं, जो अपने-आपमें सही दिशा में उठाया गया महत्वपूर्ण राजनीतिक कदम है. यह बात भी महत्वपूर्ण है कि सरकारी काम, भले ही अस्थायी हों, सम्मानजनक होते हैं.  कुछ वर्षों में ही नरेगा की सभी परियोजनाओं में प्रति व्यक्ति काम करने वाले श्रमिकों में आधे से अधिक भागीदारी महिलाओं की रही है. उनके परिवार में भी उनकी हैसियत में वृद्धि हुई है और एक अध्ययन से तो यह पता चला है कि नरेगा से मज़दूरी मिलने के कारण उनके साथ होने वाली घरेलू हिंसा में भी कमी आई है.

सन् 2014 में सत्ता में नई सरकार के रूप में भाजपा के आने पर भी नरेगा टिकी हुई है, यह इस बात का प्रतीक है कि इसमें टिकाऊ राजनीतिक स्थिरता भी है. वस्तुतः यह मोटे तौर पर नरेगा को बनाये रखने की सतत प्रक्रिया की ही सहज परिणति है और इससे नरेगा के ढाँचे को भी बल मिलता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा नरेगा की गंभीर उपेक्षा करने के कारण इसकी राजनीतिक प्रतिक्रिया भी बहुत तीव्र रही है. विरोध की इस प्रतिक्रिया में उन तमाम स्थानीय लोगों ने भी अपनी आवाज़ बुलंद की है, जिन्हें नरेगा में कोई काम नहीं मिल रहा था या फिर मज़दूरी कम मिल रही थी. ग्रामीण क्षेत्रों में तो इस प्रकार के विरोध राजनीतिक जीवन की नियमित गतिविधि ही बन गई है. उदाहरण के लिए, नरेगा को भारत के आर्थिक दृष्टि से सबसे पिछड़े इलाकों तक सीमित कर देने के सरकारी  प्रयास का विरोध विरोधी दलों द्वारा स्थानीय लोगों के साथ मिलकर जबर्दस्त रूप में किया गया और उसे विफल कर दिया गया. इस अधिनियम की मूल भावना को समाप्त करने के लिए कुछ परोक्ष उपाय भी किये गये. उदाहरण के लिए, सन् 2010 के बाद पिछली (कांग्रेस के नेतृत्व वाली) सरकार के मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल द्वारा वित्तीय संकटों से निबटने के उद्देश्य से खर्च को कम करने के लिए अपनाये गये उपायों का भी इस्तेमाल किया जा रहा है.     

निकट भविष्य में नरेगा को समाप्त न करने का एक कारण यह भी है कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित भाजपा के अनेक बड़े नेता भी इस बात को समझने लगे हैं कि यदि नरेगा को सही ढंग से लागू किया गया तो इसके दो राजनीतिक लाभ मिल सकते हैं: इससे लाभान्वित होने वाले समुदायों के चुनावी समर्थन के साथ-साथ ज़िला व उप-ज़िला स्तर के उन तमाम प्रभावशाली राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों का समर्थन भी मिल सकता है, जो नरेगा को सही तरीके से लागू करने के उपायों से भलीभाँति परिचित होते हैं.

कदाचित् नरेगा के जीवित रहने की संभावना का प्रमुख कारण यही है. प्रधानमंत्री मोदी और उनके प्रमुख आर्थिक सलाहकारों की नरेगा के प्रति विमुखता होते हुए भी यह कार्यक्रम आज भी जीवित है. अन्य उच्चस्तरीय नीतिगत कार्यक्रमों को भी सही ढंग से सँभाल न पाने के कारण शासक दल इसके राजनीतिक लाभ से भी वंचित हो रहा है. खास तौर पर सरकार जिन लोगों की ज़मीन का अनिवार्य रूप में अधिग्रहण करना चाहती थी, उन्हें भी सही ढंग से कानूनी संरक्षण देने में सरकार विफल रही है. भारत के तीन साल पुराने भूमि अधिग्रहण कानून को संशोधित करने का सरकार का प्रयास भी विफल रहा है और इसका विरोध सभी विरोधी दलों द्वारा किया गया. यहाँ तक कि भाजपा से संबद्ध दल भी इसके विरोध में अपना सुर मिलाते रहे. ऐसी स्थिति में पार्टी का नेतृत्व हर कीमत पर अपनी छवि किसान-विरोधी/ गरीब-विरोधी न बनने देने के लिए कृतसंकल्प है. ऐसी परिस्थिति में नरेगा पर सीधा हमला करने का जोखिम कोई भी दल नहीं उठा सकता. यह बात अलग है कि घोर उपेक्षा की वर्तमान परिस्थिति में भी नरेगा के रूप में गरीब लोगों की राजनीतिक क्षमता इसी तरह बढ़ती रहेगी.

रॉब जेकिन्स, हंटर कॉलेज और सिटी युनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयॉर्क  (CUNY)के स्नातक केंद्र में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर हैं,

 

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919