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यदि वैश्वीकरण एक खेल है तो लगता है कि भारत इसके विजेताओं में से एक विजेता हो सकता है. पिछले दशक में भारत के आर्थिक विकास की दर का रिकॉर्ड बहुत शानदार रहा है और इसने तेज़ी से आगे बढ़ते हुए हाई टैक सैक्टर में प्रवेश पा लिया है. यह संक्रमण जितना आईसीटी (सूचना व संचार प्रौद्योगिकी) में स्पष्ट दिखायी देता है, उतना किसी और सैक्टर में दिखायी नहीं देता. जहाँ चीन ने आईसीटी हार्डवेयर के क्षेत्र में अपना मुकाम हासिल किया है, वहीं भारत ने सॉफ़्टवेयर के क्षेत्र में अपनी शक्ति का लोहा मनवा लिया है. जहाँ एक ओर माइक्रोसॉफ्ट से लेकर एडोबी जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों ने भारत में अपने अनुसंधान और विकास (आर एंड डी) के केंद्र स्थापित कर लिये हैं, वहीं दूसरी ओर इनफ़ॉसिस और विप्रो जैसी स्वदेशी फ़र्मों ने वैश्विक खिला़ड़ी बनने के लिए आउटसोर्सिंग उछाल (बूम) का पूरा लाभ उठाया है.
क्या आईसीटी शक्ति के रूप में भारत का उदय हो रहा है? अभी नहीं. पिछले वर्ष अमरीका के राष्ट्रीय विज्ञान प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार नब्बे के दशक में अमरीका और जापान ने आईसीटी में 51 प्रतिशत वैश्विक मूल्य का इजाफ़ा किया था. सन् 2010 तक ये आँकड़े घटकर 38 प्रतिशत रह गये. हालाँकि इस गिरावट का कारण भारत नहीं था. इसका कारण था चीन. जहाँ चीन का शेयर 1.7 प्रतिशत से बढ़कर 12 प्रतिशत हो गया, वहीं भारत के शेयर में मामूली-सी वृद्धि हुई और यह शेयर 0.6 प्रतिशत से बढ़कर 1.5 प्रतिशत हो गया. कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के क्षेत्र में भी, जो भारत का मज़बूत गढ़ है, भारत का शेयर मात्र 1.7 प्रतिशत ही रहा.
ऐसा लगता है कि वैश्विक आईसीटी की मूल्य श्रृंखला में भारत के योगदान का इसमें कोई उल्लेख नहीं है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में आठ सौ से अधिक अनुसंधान व विकास (आर ऐंड डी) की विशेष इकाइयों की स्थापना की है और ये इकाइयाँ अन्य देशों की अनुसंधान व विकास (आर ऐंड डी) की इकाइयों के साथ मिलकर काम करती हैं. ईमेल और विचारों के आगे-पीछे होने से कोई यह कैसे अंदाज़ा लगा सकता है कि भारतीय इकाइयाँ अपने उपक्रमों की बॉटम लाइनों के लिए कितना योगदान कर रही हैं? फिर भी सही आँकड़े मिलने पर भी शायद तस्वीर बहुत अधिक नहीं बदलेगी. भारतीय परामर्शी फ़र्म ज़िन्नोव के अनुसार सन् 2011 में सभी उद्योगों में भारत में अनुसंधान व विकास (आर ऐंड डी) की इकाइयों पर कुल एमएनसी का खर्च $7.0-7.5 बिलियन अमरीकी डॉलर आया. फिर भी सन् 2010 में अकेले आईसीटी में ही चीन और भारत के बीच वर्धित मूल्य का अंतराल लगभग $300 बिलियन अमरीकी डॉलर था.
इसके अलावा आईसीटी में भारत का कुछ कामकाज ऐसा है जो कारोबारी रणनीति में बदलाव ला सकता है. क्लिफ़ जस्टिस ने, जो केपीएमजी की आउटसोर्सिंग प्रणाली का नेतृत्व करते हैं, हाल ही में लिखी अपनी रिपोर्ट का शीर्षक एक चेतावनी के साथ दिया है, ‘आउटसोर्सिंग की मौत’. निश्चय ही इसमें कुछ अतिशयोक्ति भी होगी, फिर भी इसमें एक चेतावनी तो निहित है ही. पिछले दशक में भारत के कुशल सॉफ़्टवेयर प्रोग्रामरों और कुछ कम मँहगे स्थानीय अमरीकियों के वेतन का अंतराल बहुत ही कम हो गया है. इस बीच कंपनियों को लगने लगा है कि अपने कारोबार के मुख्य भागों से संपर्क टूट जाने के कारण आउटसोर्सिंग के सूचना प्रौद्योगिकी के कामकाज में कुछ ऐसी लागत भी आती है जिसका अंदाज़ा पहले से नहीं लगाया जा सकता. भविष्य में आईसीटी निवेश को आकर्षित करने के लिए भारत को कुछ और भी सस्ती दरों पर वेतन की पेशकश करनी होगी.
चीन भारत के लिए आदर्श म़ॉडल नहीं है. विदेशी संबंध परिषद के सीनियर फ़ैलो ऐडम सैगल के शब्दों में, चीन प्रौद्योगिकीय नवोन्मेष संबंधी ‘हार्डवेयर’ अर्थात् धन, तकनीशियनों और उपकरणों के मामले में तो आगे है, लेकिन बेहतर ‘सॉफ़्टवेयर’ अर्थात् कानूनी संरक्षण और उपक्रमों व विश्वविद्यालयों के बीच संपर्क-सूत्रों के संदर्भ में उसे अभी बहुत कुछ करना शेष है. इसके अलावा चीन के इंटरनैट-नियंत्रण के कारण न केवल सूचनाएँ सीमित हो जाती हैं, बल्कि विदेशी फ़र्मों से प्रतिस्पर्धा में भी कमी आ जाती है. अन्य अनेक चीज़ों के अलावा चीन में फ़ेसबुक, ट्विटर और कुछ गूगल सेवाओं पर भी प्रतिबंध लगा हुआ है. इस प्रकार के प्रतिबंधों से (भले ही वे वांछित हों या नहीं) कम नवोन्मेषकारी और कम प्रतिस्पर्धी कंपनियों की जमात बन जाने की खतरा मंडराता रहता है.
फिर भी यह सवाल अभी-भी हमारे सामने खड़ा हैः क्या भारत का आईसीटी उद्योग पिछड़ रहा है? कुछ हद तक इसका उत्तर चीन की स्वेच्छाचारी प्रणाली में निहित है. आखिर चीन जब चाहे अपनी कंपनियों को ठीक उसी तरह नयी प्रौद्योगिकी में निवेश करने के लिए मजबूर कर सकता है, जैसे वह कुछ सरकारों को कर सकता है. फिर भी यह स्पष्ट नहीं है कि नौकरशाही के ज़रिये आगे बढ़ने के बीजिंग के प्रयास सफल भी हुए हैं या नहीं. हाल ही के कुछ वर्षों में अपने सबसे बड़े राज्य-अधिकृत उपक्रमों की निगरानी के लिए चीन के विशेष आयोग ने अपने राज्य-अधिकृत परिसंपत्ति व पर्यवेक्षण प्रशासन (एसएएसएसी) नामक राज्य- फ़र्मों पर आर ऐंड डी में निवेश करने और पेटेंटों के लिए आवेदन करने के लिए दबाव डाला था. राज्य- फ़र्मों पर इसका असर भी हुआ, लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि परिणामी निवेश कैसे हैं और नये पेटेंटों का भारी मूल्य है या नहीं. इसके अलावा, भले ही एसएएसएसी के चीनी सरकार के साथ संपर्क हों,लेकिन वे खास तौर पर हुवेई, ज़ेडटीआई और लेनोवो आदि आईसीटी की सफल दास्तान वाली कंपनियों की अनदेखी नहीं कर सकते. ऐसा लगता है कि इसका उत्तर कहीं अन्यत्र निहित है.
चीन ने पिछले दशक से जिन ‘तकनीकी-राष्ट्रीय’ नीतियों को अपना रखा है, उनका क्या हुआ? घरेलू फ़र्मों के साथ पक्षपात करते हुए चीन उन्हें मूल्य श्रृंखला में आगे लाने के लिए अवसर प्रदान करने में लगा रहता है. फिर भी यह आईसीटी के लिए अक्सर समस्या पैदा करता रहा है. कुछ साल पहले चीन ने डब्ल्यूएलएएन ऑथेंटिफ़िकेशन ऐंड प्राइवेसी इन्फ्रास्ट्रक्चर नामक अपने वायरलैस कंप्यूटिंग मानक को आगे बढ़ाने का प्रयास किया था, लेकिन इसमें वह विफल रहा. चीन के 3 जी टेलीफ़ोनी – टीडी-एससीडीएमए- को घरेलू मानक बनाने से देश को सीमित लाभ ही हुआ है. इसके अलावा देशी ‘नवोन्मेष’ को सरकारी वसूली का लक्ष्य बनाने की चीनी योजना को विदेशी दबाव के कारण अंततः दरकिनार करना ही पड़ा.
इससे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य शायद यह है कि चीन की निर्माण की मजबूत आधार शिला विशाल बाज़ार होने के कारण अब आईसीटी उत्पादों से अटी पड़ी है. चीन मोबाइल फ़ोन, स्मार्ट फ़ोन और पीसी आदि का दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार बन गया है. एमएनसी अब यहाँ केवल निर्यात के लिए नहीं आते, बल्कि स्थानीय ग्राहकों से होड़ करने के लिए अधिक आते हैं. इसका अर्थ यह है कि स्थानीय आर ऐंड डी को स्थानीय रुचियों, अधिक फुटकर और अधिक बिक्री के बाद की सर्विस के लिए ही अपने आपको अनुकूल बनाना होता है.
जैसा कि टोरेंटो विश्वविद्यालय के लॉरेन ब्रैंड्ट और ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के ऐरिक थन ने दर्शाया है कि चीन के विशाल बाज़ार अब चीनी फ़र्मों को अपग्रेड करने के लिए प्रोत्साहन देने लगे हैं. चीनी कंपनियों के लिए विकसित अर्थव्यवस्थाओं के साथ होड़ करना आसान नहीं है, क्योंकि बाज़ार की उनकी समझ अच्छी नहीं है और प्रौद्योगिकीय अपेक्षाएँ भी ऊँची हैं. परंतु उनके लिए देसी ज़मीन में प्रवेश पर लगे प्रतिबंध भी कम हैं. चीनी फ़र्में चीनी उपभोक्ताओं के साथ तो होड़ कर सकती हैं और जो होड़ में आगे निकल जाती हैं उन्हें निचले बाज़ार में मूल्य की विभिन्न प्रतिस्पर्धाओं से बचने के प्रयोजन से अपग्रेड करने के लिए प्रोत्साहन भी मिलता है.
क्या भारत चीन के पदचिह्नों पर चल सकता है? कुछ हद तक तो ऐसा होने भी लगा है. मोबाइल फ़ोन के उपभोक्ताओं की विशाल आबादी के हिसाब से नोकिया ने भारत में निर्माण का काम भी शुरू करके अपनी व्यापक उपस्थिति दर्ज भी करा ली है. इस बीच बिज़नैस मॉनिटर इंटरनैशनल के अनुसार भारतीय हैंडसैट निर्माताओं ने घरेलू बाज़ार में अपना शेयर सन् 2007 में 1 प्रतिशत से बढ़ाकर सन् 2010 में 15 प्रतिशत कर लिया है. परंतु आम तौर पर भारत आईसीटी के कारोबार में अपनी जगह बनाने के लिए अभी-भी संघर्ष कर रहा है. वस्तुतः इलैक्ट्रॉनिक उत्पादों के संदर्भ में भारत के आयात में घट-बढ़ हो रही है, क्योंकि भारतीय व्यापारी और उपभोक्ता नये टेलीफ़ोन उपकरण से लेकर टैबलेट पीसी तक सब कुछ हासिल करने के लिए भूखों की तरह लपक रहे हैं. इसके परिणामस्वरूप अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील प्रौद्योगिकी के आयात के लिए चिंता बढ़ रही है और साथ ही बढ़ता व्यापार घाटा भी चिंता का सबब होने लगा है.
जनवरी में भारत सरकार ने नये नियम बनाकर इन चिंताओं के निवारण का प्रयास किया है. इन नियमों के अनुसार तकनीकी कंपनियों के लिए आवश्यक होगा कि वे अपने उत्पादों का निर्माण घरेलू स्तर पर ही करें. यह गलत तरीका है. भारत को चाहिए कि वह मात्र आयात को कम करने के बजाय ऐसे वैश्विक उत्पादन नैटवर्क में मूल्य बढ़ाकर अपनी स्थिति को मज़बूत करे जिनके ज़रिये आईसीटी उत्पादनों का निर्माण किया जाता है. इससे आरंभिक बुनियाद पर कोई असर नहीं पड़ेगाः हाल ही के वर्षों में किये गये प्रयासों के बावजूद भारत को अपने बुनियादी ढाँचे और मानव पूँजी में सुधार लाना होगा और विश्वविद्यालय प्रणाली में भी सुधार की बेहद आवश्यकता है. निश्चय ही भारत चीन नहीं है. इसलिए इसे अपना ही रास्ता बनाना होगा. लेकिन भारत को अपने पड़ोसी की सफलता से एकाध बातें तो सीखनी ही होंगी.
ऐन्ड्रू बी. कैनेडी ऑस्ट्रेलियन राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के क्रॉफ़ोर्ड स्कूल ऑफ़ पब्लिक पॉलिसी में सीनियर लैक्चरर हैं और ‘कासी’ के विंटर (शरद ऋतु) 2013 में विज़िटिंग स्कॉलर हैं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>