पिछले दिसंबर में दक्षिणी सूडान में संघर्ष शुरू हो जाने के कारण हाल ही में नवोदित देश में भारत के मल्टी-बिलियन डॉलर की तेल परियोजना बंद हो गयी. अस्थिरता के कारण भारतीय राजनयिकों ने नुक्सान से बचने की कोशिशें शुरू कर दीं, क्योंकि भारत की राष्ट्रीय तेल कंपनी की अंतर्राष्ट्रीय सहयोगी कंपनी ओएनजीसी विदेश लिमिटेड (ओवीएल) के लिए आवश्यक था कि वह उस क्षेत्र से अपने कर्मचारियों को बाहर निकाले. वैश्विक तेल संसाधनों को हासिल करने में चीन को अक्सर भारत का सबसे बड़ा प्रतियोगी माना जाता है. लेकिन अंतर्राष्ट्रीय तेल उद्योग के क्षेत्र में एक दशक तक तेज़ी से हुई वृद्धि के बाद अब अस्थिर राजनीति और संघर्ष के दबाव के कारण भारत के विदेशी उपक्रम लड़खड़ाने लगे हैं.
पिछले एक दशक में सूडान और दक्षिणी सूडान में भारत को तेल के क्षेत्र में किये गये निवेश से तीन तरह के अनुभव हुए हैं. सबसे पहले तो हाल ही तक उसे खतरनाक ढंग से विदेशी तेल के क्षेत्र में मुनाफ़ा होता रहा है. लेकिन सूडान और सीरिया जैसे देशों में, जहाँ अमरीकी कंपनियों ने प्रतिबंध लगा रखा है और योरोपीय कंपनियाँ प्रतियोगिता में आने से आम तौर पर बचती रही हैं, प्रवेश करने के बाद भारत की ओवीएल कंपनी अंतर्राष्ट्रीय तेल उद्योग की एक खिलाड़ी बन गयी है. भारत की ओवीएल कंपनी का उदय कोई मामूली घटना नहीं थी. इसकी मूल कंपनी ओेएनजीसी इसके खराब कारोबार के कारण नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में इस सहायक कंपनी को बंद करने पर विचार कर रही थी. नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में ओवीएल की स्थिति इतनी खराब हो गयी थी कि इसके पूर्व प्रबंध निदेशक अतुल चंद्र ने अपने बेटे को मनाया कि कंपनी के कर्मचारियों को कारोबार बढ़ाने का प्रशिक्षण दिया जाए. अब तक उनका बेटा अंतर्राष्ट्रीय लेखा कंपनी फ़र्म आर्थर ऐंडर्सन के साथ काम करता रहा है.
बहुत ही सीमित पश्चिमी प्रतियोगिता के साथ तेल उत्पादक देशों में निवेश करने के लिए अपनायी जाने वाली उदार नीति और कार्यशैली अब तक तो कारगर सिद्ध हुई थी. ओवीएल ने विएतनाम में इस शताब्दी के आरंभ में अकेली गैस परियोजना से शुरुआत की थी और आज यह विश्व-भर के सोलह देशों में बत्तीस परियोजनाएँ चला रही है. ओेएनजीसी के बाद भारत में यह सबसे बड़ी तेल उत्पादक कंपनी है. सूडान में खास तौर पर ओवीएल काफ़ी आगे बढ़ गयी. जुलाई 2011 में सूडान से दक्षिणी सूडान के अलग होने के बाद इसके पास 75 प्रतिशत तेल संसाधन थे और संयुक्त सूडान में कंपनी का वार्षिक तेल उत्पादन औसतन 46 प्रतिशत से अधिक था. 2003 से लेकर 2010 तक ओवीएल का लाभ छह गुना बढ़ गया था, अर्थात् यह लाभ रु. 4,284 मिलियन से बढ़कर रु. 26,905 मिलियन (लगभग $80 मिलियन से बढ़कर $500 मिलियन) हो गया.
लेकिन ओवीएल की कोर्पोरेट सफलता अब डाँवाडोल होने लगी है. इस संदर्भ में दोनों सूडानों में निवेश करते हुए भारत को यह दूसरी सीख लेनी होगी कि अफ्रीका और अन्य तेल उत्पादक देशों की स्थानीय राजनीति स्थिर नहीं है. एक दशक पहले सूडान में चलने वाले नागरिक युद्ध और अमरीका से ख़राब संबंधों के चलते ओवीएल को पश्चिमी प्रतियोगिता के न रहने के कारण निवेश के लिए मज़बूत आधार मिल गया था. लेकिन आज दक्षिणी सूडान के अलग हो जाने के कारण और संघर्ष के चलते ओवीएल के तेल के कुँओं में अस्थिरता की स्थिति बन गयी है.
दो वर्ष से भी कम अवधि में दक्षिणी सूडान में हाल ही के शटडाउन के फलस्वरूप राजनैतिक अस्थिरता के कारण ओवीएल को अपना तेल उत्पादन बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा. दक्षिणी सूडान ने जनवरी, 2012 में पड़ोसी सूडान के साथ पाइप लाइन के ट्रांज़िट शुल्क को लेकर झगड़ा होने के कारण पहले 350,000 बैरल प्रति दिन (बीपीडी) का उत्पादन बंद कर दिया. इस बार दक्षिणी सूडान के राष्ट्रपति सलवा कीर और उनके पूर्व उप-राष्ट्रपति रियाक मचर के बीच होने वाले सत्ता संघर्ष के कारण सारे देश में व्यापक हिंसा होने लगी.
सूडान के पिछले नागरिक युद्ध के दौरान मचर और दक्षिणी सूडान के दूसरे मिलिशिया ने नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में सूडानी कुँओं को बचाने के लिए सूडानी सरकार का सचमुच ही साथ दिया था. उनके समर्थन के कारण ही ओवीएल और अन्य कंपनियों को नये तेल क्षेत्रों को खोलने और उनमें तेल का उत्पादन करने में मदद मिली. दक्षिणी सूडान के मौजूदा संघर्ष में मचर और उनकी सेनाओं का तो अब यही मकसद हो गया है कि जिन तेल कुँओं को पहले उन्होंने संरक्षण प्रदान किया था, अब उनके उत्पादन को ठप्प कर दिया जाए. इस संघर्ष में अपनी स्थिति मज़बूत बनाने के लिए वे दक्षिणी सूडान सरकार की आमदनी के मुख्य स्रोत को ही बंद कर देना चाहते थे और बहुत हद तक उन्हें इसमें सफलता भी मिली. युनिटी राज्य में, जहाँ ओवीएल के सभी तेल-ठिकाने हैं, युद्ध शुरू होने के दो सप्ताह के अंदर ही तेल के सभी नल बंद कर दिये गये. सूडान और दक्षिणी सूडान में बार-बार की यह अस्थिरता ही वह प्रमुख कारण है, जिसकी वजह से पिछले तीन साल में ओवीएल का एक तिहाई तेल उत्पादन बंद हो गया है. पूर्व प्रबंध निदेशक डी.के. सर्राफ़ को, जो अब इसकी मूल कंपनी ओएनजीसी में प्रमुख पद पर हैं, विश्वास है कि इन तमाम गड़बड़ियों के बावजूद ओवीएल अज़रबैजान और म्यांमार में अब अपने नये उत्पादन के बल पर सन् 2014 में फिर से तेल के उत्पादन में वापसी करेगा. कंपनी बहुत ज़ोर-शोर से अपने अंतर्राष्ट्रीय पोर्टफ़ोलियो की गतिविधियों को व्यापक बनाने की कोशिश में जुटी है, लेकिन दक्षिणी सूडान में अभी भी कंपनी की कुछ बड़ी परिसंपत्तियाँ मौजूद हैं. जब तक इस संघर्ष का कोई समाधान नहीं निकलता तब तक आगे आने वाले कुछ समय तक ओवीएल अपनी बॉटम लाइन को गिरते हुए देखने के लिए विवश होगा.
सूडान और दक्षिणी सूडान में ओवीएल के भाग्य में परिवर्तन के कारण भारत के विदेशी तेल निवेश के इस दशक से तीसरा भाग्योदय हो सकता है. नयी दिल्ली ओवीएस और अन्य भारतीय राष्ट्रीय कंपनियों को नये विदेशी बाज़ारों में प्रवेश दिलाने में मदद करता रहा है, लेकिन दिक्कत केवल यही है कि भारत सरकार में राजनैतिक उठापटक के दौरान ऐसे निवेश की निरंतरता को बनाये रखने की क्षमता नहीं है. भारत को चाहिए कि वह प्रोत्साहन योजनाओं को सही स्वरूप प्रदान करे और संघर्ष या राजनैतिक परिवर्तन के हालात बनने से पहले ही अपनी उन कंपनियों को स्थिरता बनाये रखने में मदद करे जिन्होंने विदेशों में निवेश किया है. अगर ऐसा नहीं किया जाता तो बहुत-सा नुक्सान हो जाने के बाद फ़ायर फ़ाइटिंग करने का वर्तमान सिलसिला आगे भी चलता रहेगा.
भारत के विदेश मंत्री ने यथाशीघ्र ही स्थिति का जायज़ा लेने के लिए दक्षिणी सूडान की राजधानी में एक टीम को भेज दिया था. सुदीप कुमार, संयुक्त सचिव के नेतृत्व में एक टीम को पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका भेजा गया था. उसके बाद उन्होंने अदीस अबाबा में युद्ध विराम संबंधी वार्ताओं में भी भाग लिया. यह तो ठीक है कि भारत ने अपनी उपस्थिति का एहसास कराया लेकिन दक्षिणी सूडान में शांति बहाल करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों में अभी-भी उसके प्रयास छुटपुट ही हैं.
अप्रैल 2011 में सूडान और दक्षिणी सूडान में भारत ने विशेष दूत भेजा. अभी हाल ही तक पी.एस राघवन इस पद पर बने रहने वाले अंतिम राजनयिक थे. विदेश मंत्रालय के विकास भागीदारी प्रशासन में नेतृत्व के अपने अनुभव से संपन्न राघवन दक्षिणी सूडान में भारत के हितों के संवर्धन के लिए उत्कृष्ट अधिकारी थे. लेकिन 2013 के उत्तरार्ध में उन्हें रूस का नया राजदूत बना दिया गया. दक्षिणी सूडान में विस्फोटक स्थिति के बावजूद विशेष दूत के पद को भरा नहीं गया.
विदेशों में भारत के तेल संबंधी हितों के संरक्षण का ढाँचा विदेश मंत्रालय के घेरे में बंद रहता है और उसकी क्षमताओं का पूरा उपयोग नहीं हो पाता. हाल ही में विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने वक्तव्य दिया था कि दक्षिणी सूडान में ओवीएल की परेशानियाँ “रोज़मर्रे की ज़िंदगी का ही एक हिस्सा” है. इससे पता चलता है कि भारत के विदेश मंत्री को ज़मीनी सचाई का पता नहीं है और इससे समस्या के समाधान में मदद नहीं मिलेगी. सूडान और दक्षिणी सूडान में उच्च स्तर पर भारत सरकार की कोई गतिविधि नहीं है.
भारतीय पक्ष की तुलना में चीनी सरकार विदेशों में अपने आर्थिक हितों की रक्षा में कहीं अधिक तेज़ी से राजनयिक कदम उठा रही है. अफ्रीकी मामलों के चीन के विशेष प्रतिनिधि ज़ॉन्ग जियाहुआ युद्ध विराम के लिए होने वाली वार्ताओं में कहीं अधिक सक्रिय रहे हैं. उन्होंने कहा था कि विदेशों से संबंध बढ़ाने की दिशा में दक्षिणी सूडान के साथ राजनयिक संबंध बनाना एक “नया अध्याय” था. कई दशकों से वे दूसरे देशों के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाते रहे हैं.
भारत निश्चय ही चीनी प्रतियोगिता के मुकाबले बिलियन डॉलर का तेल का सौदा हासिल करने के लिए आगे भी प्रयत्नशील रहेगा. लेकिन भारत के कॉर्पोरेट जगत् और राजनीति के अग्रणी खिलाड़ियों को सूडान और दक्षिणी सूडान में अंतर्राष्ट्रीय जगत् में तेल के भारी निवेश के बढ़ते और घटते व्यापार से सबक लेते हुए कहीं अधिक बुद्धिमानी से काम लेना होगा. तेल के क्षेत्र में भारत की दुनिया-भर में बढ़ती पताका को नीचे गिराने में स्थानीय राजनीति की भूमिका को कम करके नहीं आँका जा सकता.
ल्यूक पैटे The New Kings of Crude: China, India, and the Global Struggle for Oil in Sudan and South Sudan (हर्स्ट पब्लिशर्स 2014)के लेखक हैं और डैनिश अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में वरिष्ठ अनुसंधानकर्ता हैं. यह लेख सूडान, दक्षिणी सूडान और भारत पर लिये गये उनके साक्षात्कार पर आधारित है. @LukePatey (https://twitter.com/LukePatey)
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>