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शहरी मध्यम वर्ग की राजनीतिः भारत की तीसरी लोकतांत्रिक लहर ?

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26/09/2016
पौलोमी चक्रबर्ती

पिछले दशक में शहरी मध्यम वर्ग की सक्रियता में निरंतर वृद्धि होती रही है. भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध ऐतिहासिक आंदोलन इसका जीवंत उदाहरण है. इसी आंदोलन से आम आदमी पार्टी (‘आप’ पार्टी ) का जन्म हुआ था. इसलिए इसे भारत की पहली श्रेणी-आधारित महत्वपूर्ण शहरी राजनैतिक पार्टी माना जा सकता है. हाल ही के इतिहास पर अगर हम नज़र दौड़ाएँ तो पाएँगे कि 2014 के आम चुनाव में बड़े शहरों के अलावा अन्य शहरों में भी मध्यम वर्ग का मतदान पहली बार गरीब वर्ग से कहीं अधिक हुआ था. वस्तुतः यह तर्क दिया जाता है कि मध्यम वर्ग में सरकारी नियमों के प्रति जागरूकता बढ़ जाने के कारण नीति संबंधी मुद्दों पर वैचारिक अंतर बढ़ने से ही मुख्यतः 2014 में भाजपा को चुनाव में भारी सफलता मिली थी. व्यापक शहरीकरण और आमदनी में वृद्धि होने से जनसांख्यिकीय परिवर्तन के कारण भविष्य में ये प्रवृत्तियाँ और भी बढ़ सकती हैं. इस समय भारत की शहरी आबादी 32 प्रतिशत है जो 2050 तक दुगुनी हो सकती है और अनुमान है कि मध्यम श्रेणी के लोगों की संख्या 2025 तक बढ़कर एक बिलियन तक हो सकती है.

इन तथ्यों के बावजूद शहरी मध्यम वर्ग के बारे में सबसे अधिक लोकप्रिय और विद्वत्तापूर्ण धारणा यही रही है कि यह वर्ग चुनावी राजनीति के प्रति तिरस्कार और उपेक्षा का भाव रखता है. उदाहरण के लिए हम अक्सर सुनते हैं कि मध्यम वर्ग नागरिक के रूप में अपनी सक्रियता का प्रदर्शन ऐसोसिएशन की ज़िंदगी जीने में करता है और चुनावी राजनीति को गरीबों का काम मानता है. भारत के महानगरों की नगरपालिकाओं के चुनावों के उम्मीदवार निवासी कल्याण संघ अर्थात् RWA (पड़ोसी संघ) के उम्मीदवार ही होते हैं और यही लोग आप और लोकसत्ता जैसी पार्टियों में आते हैं. अब वे इन चुनावों से दूर नहीं रहते. कुछ हद तक इन अंतर्विरोधी धारणाओं से क्या निष्कर्ष निकलता है? मध्यम वर्ग से कौन चुनाव लड़ता है?  सिविल सोसायटी में कौन सक्रिय है?  और पिछले कुछ वर्षों में मध्यम वर्ग में इतनी सक्रियता कैसे बढ़ गई है?  

2006-14 के बीच दिल्ली के अनेक पड़ोसी इलाकों में और अनेक राजनैतिक दलों में कई महीनों तक किये गये फ़ील्डवर्क के आधार पर तैयार मेरे शोध पत्र से यह निष्कर्ष निकलता है कि मध्यम वर्ग की सक्रियता दो कारकों पर निर्भर करती है: चुनावी क्षमता  के बारे में इनकी बनी-बनाई धारणा और राज्य भर में फैले हुए इनके पहले से ही स्थापित नैटवर्क. मध्यम वर्ग के कुछ लोग, जो राजनैतिक दलों द्वारा चुनावी दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाते हैं, मतदाताओं के तौर पर राज्य के साथ जुड़े होते हैं. फिर भी वे कभी-कभार विरोध प्रकट करके अपनी शिकायतें मुखर होकर सामने रख सकते हैं, लेकिन राजनैतिक प्रतिनिधि और मध्यम वर्ग के लोग संस्थागत चैनलों के माध्यम से अपने अधिकांश संघर्षों को सुलझा लेते हैं. इसमें मध्यम वर्ग का वह वर्ग भी शामिल है, जो सार्वजनिक सेवाओं के लिए और अपनी पदावधि की सुरक्षा बनाये रखने के लिए और खास तौर पर शहर के अनधिकृत कामों के लिए बहुत हद तक सरकारी विभागों पर निर्भर रहता है. लोकप्रिय धारणा के विपरीत, लोकनीति के आँकड़ों से पता चलता है कि मध्यम वर्ग अमीरों और शहर के गरीब लोगों की तुलना में चुनावों में कहीं अधिक दिलचस्पी लेता है और उसमें बढ़-चढ़ कर भाग भी लेता है.  इससे अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि राजनैतिक दल मध्यम वर्ग को मतदाता संघ का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं और ये लोग झोपड़पट्टी के निवासियों की तुलना में मध्यम वर्ग से वोट माँगने में ज़्यादा सक्रिय रहते हैं. यह बात खास तौर पर शहर के उन इलाकों के लिए सही है जहाँ पहले गरीब झोपड़पट्टी वाले रहते थे और अब उन्हें धीरे-धीरे हटाकर शहर के बाहर धकेलने की कोशिश हो रही है ताकि उस इलाके को अमीर लोगों के लिए अधिक खूबसूरत बनाया जा सके और इस प्रकार मध्यम वर्ग, मतदाताओं के अधिक से अधिक हिस्से को हथियाने में जुटा है.  .

दूसरी ओर मध्यम वर्ग की चुनावी विरक्ति से दो बातें होती हैं. इससे दो भिन्न प्रकार की राजनैतिक लामबंदी होती है. मध्यम वर्ग के वे लोग, जिनकी राज्य के ऊँचे तबकों अर्थात् नौकरशाही या राजनैतिक दलों तक पहुँच होती है, औपचारिक राजनीति के बाहर ही सक्रिय रहते हैं. ये मध्यमवर्गीय नागरिक या तो ऊँचे पेशेवर पदों पर आसीन होते हैं या फिर प्रबंधक वर्ग से जुड़े होते हैं. जहाँ एक ओर वे राज्य में अपने नैटवर्क का उपयोग सेवाओं के लिए अभी-भी कर सकते हैं, वहीं ग्राहक सेवा और संरक्षण की भावना से राजनैतिक दलों के साथ जुड़ने के लिए भी आतुर रहते हैं. यही कारण है कि वे चुनावी राजनीति के प्रति शंकालु बने रहते हैं. “औपचारिक नियमों” और “नौकरशाही के चैनलों” के प्रति अपने आग्रह के कारण वे अनौपचारिक निवासियों या उन लोगों के प्रति खास तौर पर शत्रुता का भाव पाले रखते हैं, जो अनियोजित बस्तियों में रहते हैं और गैर-रजिस्टर्ड गतिविधियों में संलग्न रहते हैं. 2000-07 के बीच दिल्ली में लगभग 90 प्रतिशत जनहित याचिकाएँ (PILs) मध्यमवर्गीय पड़ोसी ऐसोसिएशनों द्वारा ही दायर की गई थीं. उदाहरण के लिए ये याचिकाएँ सरकारी भूमि के अतिक्रमण जैसे मामलों से ही संबंधित थीं. मध्यम वर्ग का यही वर्ग सिविल सोसायटी में लगभग पूरी तरह से मीडिया और डिजिटल टैक्नोलॉजी के माध्यम से लामबंदी करता है. भारत में नये मध्यम वर्ग की स्थिति दुनिया के किसी अन्य देशों जैसी नहीं है. उनके संबंध में हम यही समझते हैं कि मध्यम वर्ग का यह छोटा-सा वर्ग व्यापक रूप में मीडिया और सार्वजनिक बहस को अपनी संख्या के अनुपात से कहीं आगे बढ़कर प्रभावित करता है.

राजनैतिक प्रतिनिधियों द्वारा चुनाव की दृष्टि से मामूली-सा बने रहने की धारणा के अलावा मध्यम वर्ग के वे लोग जिनके पास राज्य के अंदर नैटवर्क नहीं है, न तो अपनी चिंताओं को लेकर प्रभावी रूप में आवाज़ उठा सकते हैं और न ही उनके पास राजनीति का पूरी तरह बहिष्कार करने का ही विकल्प रहता है. सार्वजनिक सेवाओं के लिए उन्हें सरकार की ज़रूरत तो है, लेकिन उनकी पहुँच वहाँ तक नहीं है. मध्यम वर्ग के ये लोग चुनावी चैनलों के माध्यम से सरकारी मशीनरी का भाग बने रहने का प्रयास करते हैं.  मध्यम वर्ग के RWAs द्वारा समर्थित कई नगर निगमों के चुनावों के उम्मीदवार इसके जीवंत उदाहरण हैं. आर्थिक उदारीकरण के कारण राज्य-सोसायटी के संबंधों में आए व्यापक परिवर्तनों के फलस्वरूप मध्यम वर्ग की राजनैतिक लामबंदी के रूप में ये प्रवृत्तियाँ और भी बढ़ने लगी हैं. आर्थिक वृद्धि के फलस्वरूप मध्यम वर्ग में आए विस्तार के कारण सार्वजनिक सेवाओं में सुधार लाने की माँग दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है.  साथ-ही-साथ सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण और राजकोषीय विकेंद्रीकरण के कारण स्थानीय स्तर पर वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता बढ़ती जा रही है. दो कारकों के समन्वय ने स्थानीय राजनीति को और भी विवादास्पद बना दिया है. इस प्रकार मध्यम वर्ग की लामबंदी कुछ हद तक राज्य के बढ़ते संसाधनों के संदर्भ में शासन की गुणवत्ता और सार्वजनिक सेवाओं की डिलीवरी में अंसतोष के कारण होती है. सिविल सोसायटी से लेकर चुनावी क्षेत्र में सक्रियता का यह संक्रमण मध्यम वर्ग के समूहों के लिए एक ऐसा साधन है, जिससे वे सरकारी संसाधनों के वितरण पर अधिक से अधिक सीधा नियंत्रण बनाये रखने में कामयाब होते हैं.

व्यापक दृष्टि से राजनैतिक प्रक्रिया में जुड़ने के मध्यम वर्ग के ये प्रयास सरकार की उस क्षमता को प्रदर्शित करते हैं, जिसके कारण चुनावी चैनलों या नौकरशाही के माध्यम से अधिक से अधिक मध्यम वर्ग के लोग राजनैतिक प्रक्रिया में भाग लेने लगे हैं. मध्यम वर्ग के वे लोग जो चुनावी राजनीति से अलग-थलग पड़ जाते हैं, सिविल सोसायटी में अधिक सक्रिय रह सकते हैं. इस बात का अंदाज़ा इसी बात से हो जाता है कि मध्यम वर्ग के ये लोग अनेक विशिष्ट नीतिगत मुद्दों पर व्यापक रूप में विरोध प्रदर्शन करते हैं और भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारत के आंदोलन जैसे मामलों में सार्वजनिक भ्रष्टाचार का विरोध करते हैं. इन विरोध प्रदर्शनों का उद्देश्य औपचारिक राजनीति के क्षेत्र से बाहर रहकर सरकारी नीतियों को प्रभावित करना होता है. सिविल सोसायटी में सक्रियता का संक्रमण चुनावी लामबंदी के रूप में तभी होता है जब वे नीतियों को प्रभावित करने में विफल रहते हैं. मध्यम वर्ग की लामबंदी के दो ही तर्क हैं, जिनका भारी प्रभाव भारत की राजनीति के स्वरूप पर पड़ता है और भारत का शहरीकरण तेज़ी से होने लगता है. अगर राजनैतिक भागीदारी का विस्तार सामाजिक दृष्टि से नब्बे के दशक में चिह्नित वंचित वर्ग में भी होने लगता है तो “दूसरी लोकतांत्रिक लहर” भी आ सकती है. ऐसी स्थिति में यह मानने की पुख्ता वजह हो सकती है कि राजनीति में शहरी मध्यम वर्ग की बढ़ती भागीदारी आगामी वर्षों में भारत की तीसरी लोकतांत्रिक लहर बन सकती है. 

पौलोमी चक्रबर्ती ब्राउन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान की डॉक्टरेट की प्रत्याशी हैं. उनसे poulomi_chakrabarti@brown.edu पर संपर्क किया जा सकता है.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919