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भारत का ज्ञान शक्ति के रूप में रूपांतरण

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14/01/2013
प्रियंवदा नटराजन

विश्व के परिदृश्य पर सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति के एक खिलाड़ी के रूप में भारत के उदय के कारण नयी आशाओं और आकांक्षाओं को बल मिला है. आर्थिक शक्ति होने के साथ-साथ अब भारत ज्ञान शक्ति के रूप में, नवोन्मेष और सृजनात्मक विचारों के केंद्र के रूप में भी उभरने लगा है. लेकिन यही हमारा अभीष्ट मार्ग और मंज़िल नहीं है. इसमें संदेह नहीं कि भारत के पास इस मंज़िल तक पहुँचने के साधन तो हैं, लेकिन जब तक बुनियादी संस्थागत परिवर्तन नहीं होते तब तक इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता.

विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबद्ध शैक्षणिक और अनुसंधान केंद्रों का भारतीय परिदृश्य ज्ञान शक्ति के रूप में भारत को उभरने देने में साफ़ तौर पर रुकावटें पैदा कर रहा है.  इसका प्रमुख कारण अनुसंधान संबंधी इसका बुनियादी ढाँचा और खास तौर पर इसका वर्तमान संस्थागत विन्यास है. ऐतिहासिक तौर पर भारतीय सिगनल व दूरसंचार उद्यम का जन्म पं. नेहरू के उस दृष्टिकोण का परिणाम है, जिसकी देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका समझी जाती है और जिसकी शुरूआत आज़ादी के बाद एक उछाल की तरह अचानक हुई थी. पं. नेहरू के संरक्षण में मेघनाथ साहा, विक्रम साराभाई, होमी भाभा और सी.वी. रमन जैसे उस पीढ़ी के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने तेज़ी से देशी वैज्ञानिक समुदाय को तैयार करने और तकनीकी आत्मनिर्भरता और सुविधा को हासिल करने के लिए उच्च प्राथमिकता के आधार पर वैज्ञानिक अनुसंधान को विकसित करने पर ज़ोर दिया था. इसलिए सोवियत संघ के मॉडल के आधार पर विशिष्ट विषयों से संबद्ध कुछ राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं को सीमित संसाधन उपलब्ध करा दिये गये थे. मेघनाथ साहा और होमी भाभा के बीच ज़ोर-शोर से बहस चला करती थी कि शुद्ध और अनुप्रयुक्त विज्ञान के केंद्र कहाँ स्थापित किये जाने चाहिए.  

स्वप्नदर्शियों और भारी व्यक्तित्व की धनी यह विख्यात पीढ़ी योरोपीय और रूसी मॉडलों से बहुत अधिक प्रभावित थी.कुछ वैज्ञानिकों ने अमरीका के अनुसंधान विश्वविद्यालय के मॉडल को अपनाने के बजाय सोवियत संघ के अनुसंधान के मॉडल को अपनाया और कुछ वैज्ञानिकों ने जर्मनी के कार्ल विलहेम संस्थान ( वर्तमान में मैक्स-प्लंक संस्थान) के अनुसंधान के मॉडल को अपनाया. संस्थागत टैम्पलेट का यह विकल्प अपनाने के कारण आज हमारी ये संस्थाएँ बहुत दरिद्र हो गयी हैं. अमरीका में अनुसंधान विश्वविद्यालय ही आज खोज और नवोन्मेष के मूलभूत आधार बने हुए हैं. अनुसंधान के मज़बूत आधार के साथ-साथ अंतःस्नातक और स्नातक स्तर के प्रशिक्षण को दृढ़ता से जोड़ने के कारण ही  स्वाभाविक इनक्यूबेटर उन तमाम नये विचारों को जन्म दे सकते हैं, उन्हें पल्लवित और विकसित कर सकते हैं जिन्हें सीधे ही अनुप्रयोगों में तत्काल ही बदला जा सकता हो और अधिक दीर्घकालीन बुनियादी विज्ञान के उस प्रकार के अनुसंधान को भी बढ़ावा दे सकते हैं जो तत्काल व्यावसायिक लाभ न दे सकते हों. इसी आरंभिक ऐतिहासिक दरार के कारण ही विश्वविद्यालयों में अनुसंधान को न तो पर्याप्त सहायता और समर्थन मिल सका और न ही संरचनात्मक बदलाव लाये जा सके जो विश्वविद्यालयों को जीवंत बनाने और पुनः आकार देने के लिए आवश्यक थे. इस बीच विश्वविद्यालय प्रणाली के बाहर विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में अधिकाधिक अनुसंधान संस्थान खुलते चले गये.  

अनुसंधान को शिक्षण से अलग करने के कारण सबसे अधिक नुक्सान विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबद्ध अंतःस्नातकीय शिक्षा को हुआ, जिसमें बुनियादी सुधार लाने की आवश्यकता है. शिक्षाशास्त्र को अनुसंधान से अलग करने के कारण ही दोनों ही गतिविधियों को भारी नुक्सान हुआ. पश्च-माध्यमिक शिक्षा में महत्वपूर्ण चिंतन कौशल को विकसित न करने के कारण ही अंतःस्नातकीय पाठ्यक्रम में वह चमक नहीं रही और इसने ही विश्वविद्यालयों के संकाय सदस्यों को विद्वान् न बन पाने के कारण अनेक प्रोत्साहनों से वंचित कर दिया और कुंठाग्रस्त और हताश शिक्षाशास्त्रियों की एक पीढ़ी को भी जन्म दे दिया. दूसरी ओर अधिकांश अनुसंधान केंद्र फलने-फूलने लगे और उनमें से कुछ संस्थान तो विश्व स्तर के हो गये. इसके उदाहरण हैं, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामैंटल रिसर्च (टीएफ़आईआर), इंटर युनिवर्सिटी सैंटर फ़ॉर ऐस्ट्रोनॉमी ऐंड ऐस्ट्रोफ़िज़िक्स ( आईयूसीएए), राष्ट्रीय जीववैज्ञानिक केंद्र (एनसीबीएस) और भारतीय विज्ञान संस्थान ( आईआईएस). परंतु नवोन्मेष में विश्व स्तर पर अग्रणी रहने के लिए भारत को अनुसंधान उद्यमों को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने की आवश्यकता है.

भारत में एक बार फिर से अनुसंधान और शिक्षण को तत्काल ही परस्पर जोड़ना होगा. संरचनात्मक परिवर्तनों को विश्वविद्यालय प्रणाली में लाने की आवश्यकता है. विश्वविद्यालयों को चाहिए कि वे अपने अनुसंधान में जबर्दस्त उछाल लाने के लिए संकाय सदस्यों को अनुसंधान के लिए अवकाश और संसाधन सुलभ कराएँ. आवश्यकता इस बात की है कि वे अनुसंधान संस्थानों में सहयोगियों के बीच सहयोग को बढ़ावा दें और ऐसा करने के लिए उन्हें निधि भी प्रदान करें. यह कार्य भारत सरकार के विज्ञान व इंजीनियरी अनुसंधान परिषदों (एसईआरसी) में उपलब्ध निधि को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अवसंरचना कार्यक्रम में सुधार लाने के लिए वितरण करके किया जा सकता है.एसईआरसी इस प्रकार के मात्र सहयोगपरक कार्यों के लिए अनुदान कार्यक्रम आबंटित कर सकती है. अनुसंधान और शैक्षिक महाविद्यालयों के बीच वैज्ञानिक सहयोग को सक्रिय रूप में बढ़ावा देने का लाभ यह होगा कि इससे एक ऐसी सरणी तैयार हो जाएगी जिससे अंतःस्नातक अनुसंधान के काम में जुट जाएँगे. इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप विश्वविद्यालयों को कम से कम सभी ऑनर्स डिग्री पाठ्यक्रमों में अंतःस्नातकों के लिए  अनुसंधान परियोजनाओं की आवश्यकता होगी. अनुसंधान के चक्र की स्थापना के लिए आवश्यक होगा कि अंतःस्नातकीय पाठ्यक्रम की अवधि बढ़ाकर चार साल कर दी जाए.

अंतःस्नातकों को अनुसंधान से जोड़ने के क्षेत्र में दिखायी देने वाली कमी को दूर करने के लिए सही दिशा में आंशिक रूप में उठाया गया एक कदम तो यही है कि भारतीय वैज्ञानिक शिक्षा व अनुसंधान संस्थानों (आईआईएसईआर) की स्थापना की गयी. इनमें से पाँच संस्थानों की स्थापना पर्याप्त निधि के साथ मोहाली, पुणे, भोपाल, कोलकाता और तिरुअनंतपुरम में की गयी है. अनुसंधान विज्ञान के अंतःस्नातकों के पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग है और प्रत्येक विद्यार्थी इसका स्वाद  भारतीय वैज्ञानिक शिक्षा व अनुसंधान संस्थानों (आईआईएसईआर) में ही चख लेता है. परंतु इसका कोई सादृश्य  मानविकी और समाज विज्ञान में नहीं मिलता. 

दूसरा आवश्यक और संबंधित मुद्दा है, अंतःस्नातकों की शिक्षा में व्यापकता में कमी. इसे व्यापक बनाने के लिए एक ऐसा व्यापक मूलभूत पाठ्यक्रम बनाना आवश्यक है जिसमें मात्रापरक तर्कप्रणाली,महत्वपूर्ण चिंतन, लेखन कौशल और बुनियादी गणित की क्षमता को विशिष्ट विज्ञान, इंजीनियरी या मैडिकल कॉलेजों के साथ-साथ सभी संस्थाओं के डिग्री कॉलेजों में अंतःस्नातकों की शिक्षा का एक अंग बनाया जाना चाहिए.  

ऑनलाइन शिक्षण और प्रशिक्षण के क्षेत्र में आयी वर्तमान क्रांति की सहायता से शिक्षा संस्कृति में बुनियादी परिवर्तन लाया जा सकता है.कोर्सेरा और ऐडऐक्स जैसी पहलों के माध्यम से व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम ( एमओओसीएस) शुरू किये गये हैं, जिन्हें दुनिया में कहीं भी स्ट्रीमलाइन किया जा सकता है और सामग्री को निःशुल्क या मामूली शुल्क देकर प्राप्त किया जा सकता है. जिस पैमाने पर इन पाठ्यक्रमों को वितरित किया जा सकता है, वह आश्चर्यजनक है. उदाहरण के लिए इसी वसंत (स्प्रिंग) में एमआईटी के प्रोफ़ेसर और ऐडऐक्स इनीशिएटिव के निदेशक श्री अनंत अग्रवाल द्वारा ली गयी सर्किट्स व इलैक्ट्रॉनिक्स की कक्षा में 154,000 नामांकन आये हैं.

व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम ( एमओओसीएस) ने विशेषकर भारत जैसे देश में पाठ्यसामग्री वितरित करने के लिए एक विशेष विकल्प की पेशकश की है, क्योंकि भारत की जनसांख्यिकी और शिक्षित किये जाने वाले युवा छात्रों की मात्र संख्या ही इतनी है कि यह अपने-आपमें एक चुनौती पैदा करती है. पश्च माध्यमिक शिक्षा में व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम ( एमओओसीएस) के उपयोग से लाइव और क्रमिक विषयवस्तुओं के साथ मिश्रित कक्षाओं की सुविधाओं का पूरक पाठ्यक्रम की तरह से उपयोग करते हुए वर्तमान अंतःस्नातकीय पाठ्यक्रमों को अद्यतन किया जा सकता है. चूँकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इससे अपने-आप में अनुसंधान के क्षेत्र में कैरियर में उनकी दिलचस्पी बढ़ेगी, इसलिए इस बात का अनुमान लगाना मुश्किल है कि इस क्रांति का कितना प्रभाव पड़ेगा.  व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम (एमओओसीएस) के माध्यम से पाठ्यक्रमों के वितरण, पाठ्यक्रम और शिक्षण को मानकीकृत किया जा सकता है.

विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की गतिविधियों को बढा़वा देने के लिए एक और सरणी है, विज्ञान के विद्यार्थियों को तथाकथित नागरिक विज्ञान संबंधी परियोजनाओं से जोड़ना.

न्यूयॉर्क सिटी में आयोजित विश्व विज्ञानोत्सव के अनुरूप आवधिक रूप में राष्ट्रीय दूरसंचार प्रतियोगिताएँ और राष्ट्रीय विज्ञानोत्सव आयोजित करने से युवा छात्रों को विज्ञान को कैरियर के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है. अंतर्राष्ट्रीय नैटवर्क के उपयोग से भी इसमें मदद मिलेगी. शैक्षिक उपक्रमों में विदेशी सहयोग भारत के लिए नया नहीं है. उदाहरण के लिए विशिष्ट आईआईटी संस्थाओं की स्थापना अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से ही की गयी है. शायद अनुसंधान विश्वविद्यालयों के साथ संबंधों के नवीयन से वैसी ही मदद मिलती है, लेकिन इससे वर्तमान आईआईटी के संकाय सदस्यों की अनुसंधान परियोजनाओं को बढ़ावा देने में भी मदद मिलेगी.

निर्णायक और साहसिक नीति संबंधी हस्तक्षेपों से भारत अपनी शैक्षणिक संस्कृति को इस पीढ़ी के अंदर भी ला सकेगा और अपनी अनूठी जनसांख्यिकी का लाभ भी उठा सकेगा. जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्याओं और ऊर्जा,पानी और भोजन जैसे दुर्लभ संसाधनों की बढ़ती माँग की चुनौतियों के नये और नवोन्मेषकारी समाधान ढूँढने के लिए भारत सिगनल व दूरसंचार से उम्मीदें बाँधे हुए है. सिगनल व दूरसंचार ने समाधान दिये भी हैं और जब तक हम इन स्थितियों को अनुकूल बना नहीं लेते तब तक हमारे पास आशावादी बने रहने की हर वजह मौजूद है. 

 

प्रियंवदा नटराजन येल विश्वविद्यालय के खगोल शास्त्र और भौतिकी विभाग में प्रोफेसर हैं और महिला संकाय मंच की अध्यक्षा भी हैं.

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>