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भारत की अफ़गानिस्तान नीति के पुनर्निर्धारण का समय

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19/11/2018
अविनाश पालीवाल

मार्च 2018 में आयोजित सुरक्षा परिषद की बैठक में संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने कहा था कि "इस तथ्य के बावजूद कि सशस्त्र समूहों ने खुद की अपनी पहचान बना ली है और हम सभी के सामने यह सिद्ध भी कर दिया है कि वे समझौते के कट्टर विरोधी हैं, फिर भी अफ़गान सरकार की शांति स्थापित करने की इच्छा अभी भी बनी हुई है." सन् 2015 में इसी तरह से आगे बढ़कर घानी ने जो पहल की थी, उसे न केवल नापसंद किया गया था, बल्कि इसे घानी का पाकिस्तान के प्रति झुकाव भी माना गया था, फिर भी भारत ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से 2018 की इस पहल का समर्थन करने का आग्रह किया है.

क्या कारण है कि नई दिल्ली की प्रतिक्रिया हर बार भिन्न होती है? “क्या कारण है कि अफ़गानों द्वारा अपने बल पर और उनके अपने ही नेतृत्व में” शुरू की गई समझौता प्रक्रिया का भारत ने समर्थन किया है. यह प्रक्रिया एक ऐसा तथ्य है जिसकी पहल काबुल ने ही पहले 2015 में और अब 2018 में की है और मास्को द्वारा हाल ही में आयोजित बहुपक्षीय वार्ता में भारत ने “गैर-आधिकारिक” तौर पर भाग लेने का निर्णय किया. इस वार्ता में अफ़गान तालिबानों ने तो भाग लिया, लेकिन घानी के किसी भी विश्वस्त साथी ने भाग नहीं लिया.

अफ़गानिस्तान में अलग-थलग पड़ते जा रहे भारत के लिए इस सवाल का जवाब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. खास तौर पर नब्बे के पिछले दशक में इस प्रकार के अलगाव और पाकिस्तान के बढ़ते गैर-दोस्ताना प्रभाव के कारण भारत अफ़गानिस्तान में पाकिस्तान-विरोधी सैन्य संगठनों की मदद करने के लिए विवश हो गया था. भविष्य में इस प्रकार नीति की पुनरावृत्ति से अफ़गान संघर्ष हल होने के बजाय बढ़ सकता है.

अफ़गानिस्तान के प्रति अमरीकी दृष्टिकोण में काबुल की शांति-प्रक्रिया की पहल के प्रति भारत की परस्पर विरोधी प्रतिक्रिया का स्रोत, उसकी धारणा और आत्मविश्वास निहित है. सन् 2015 में, भारत इस बात को लेकर चौकस था कि घानी ने आगे बढ़कर पाकिस्तान को एक ऐसे समय में सुलह की शर्तों को तय करने में जोखिम उठाते हुए सहयोग करने की पेशकश की थी, जब अमरीका अपने लड़ाकू दस्तों को वापस बुलाने की कोशिश में जुटा था. इसके विपरीत राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने यह आश्वासन भी दे दिया कि अमरीकी सेना के दस्ते अफ़गानिस्तान में अनिश्चित काल तक रहेंगे. इस आश्वासन के कारण घानी की 2018 की पहल का जोखिम कुछ कम हो गया.

अमरीका पर इसी निर्भरता के कारण भारत की अफ़गानिस्तान-नीति गहरे संकट में फँस गई है. पहला संकट तो यह है कि अगर अमरीका ने पाकिस्तान को वार्ताओं में अधिक राजनैतिक छूट दे दी या कम नोटिस पर अपने सैनिकों की उपस्थिति कम करनी चाही तो भारत के लिए विकल्प सीमित रह जाएँगे. दूसरे, इससे यह पता चलता है कि नई दिल्ली का या तो असर खत्म हो गया है या फिर अफ़गान संकट को सचमुच खत्म करने के लिए उसके पास कोई स्पष्ट नीति नहीं है.

तीसरे, भारत के नीति-निर्माताओं ने सोवियत-अफ़गान युद्ध से कोई सीख नहीं ली है. अमरीका पर भारत की अफ़गानिस्तान नीति की निर्भरता अस्सी के दशक में मास्को पर उसकी निर्भरता से अलग नहीं है. उस समय भारत युद्ध को खत्म करने की सोवियत प्रतिबद्धता की गंभीरता को या फिर सोवियत संघ की संरचना से जुड़ी समस्याओं को (भले ही इसके लिए पाकिस्तान की माँगें ही क्यों न माननी पड़तीं) समझ नहीं पाया था. आज, भले ही भारत ट्रंप के राष्ट्रपति-काल की अनिश्चितताओं को समझता हो, फिर भी उसे अपने लिए भी कुछ गुंजाइश बचाकर रखनी होगी और अफ़गानिस्तान के बारे में उसे अपने दृष्टिकोण की वकालत खुद करनी होगी.

भारत की अफ़गानिस्तान नीति का तर्क

अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के बीच रणनीतिक संतुलन बनाने की ख्वाहिश ही वह नियामक तत्व है, जो भारत की अफ़गानिस्तान-नीति का मुख्य आधार बन सकता है. पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के बीच शक्ति की यह असमानता लगातार रहने वाली है और अपरिवर्तनीय-भी लगती है, इसलिए यह एक महत्वाकांक्षा ही लगती है. व्यावहारिक अर्थ में इसका अर्थ यह है कि भारत यह सुनिश्चित करना चाहता है कि पाकिस्तान अफ़गान तालिबान और काबुल के बीच की शर्तों में कुछ गड़बड़ न कर पाए.

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारत इस बात के विरुद्ध नहीं है कि काबुल के साथ अफ़गान तालिबानों का समझौता हो या अफ़गान तालिबानों का काबुल से समझौता हो. अफ़गान तालिबान पर पाकिस्तान का प्रभाव और अफ़गान तालिबान के लिए इस प्रकार के प्रभाव से अपने-आपको मुक्त रखना ही समस्या है. अफ़गानिस्तान में भारतीय अधिकारियों के लिए नियामक सिद्धांत यही है कि पाकिस्तानी दबाव का मुकाबला करने और उसे सँभालने के लिए उपाय खोजने में काबुल की मदद की जाए. अगर भारत की यह धारणा है कि इस्लामाबाद समझौते के लिए काबुल पर दबाव डालने में सफल होता जा रहा है तो पक्षपातपूर्ण पाकिस्तान विरोधी रुख की संभावना बढ़ जाती है. लेकिन अगर भारत इस बात को लेकर आश्वस्त है कि अफ़गानिस्तान सन् 2001 से अब तक की उपलब्धियों को खोये बिना समझौता करने का इरादा और क्षमता रखता है या पाकिस्तान की इच्छा के अनुसार अफ़गानिस्तान में भारत की उपस्थिति को कम किया जा सकता है तो समझौते का रास्ता खुला रहने की संभावना हो सकती है.

पहुँच बनाने के लिए आगे बढ़ना (आउटरीच) 2015

सितंबर, 2014 में पदभार ग्रहण करने के तुरंत बाद घानी ने पाकिस्तान तक अपनी पहुँच बढ़ाने के लिए राजनैतिक पूँजी दाँव पर लगा दी. अमरीकी सैन्य दस्तों की भावी वापसी और अफ़गान तालिबान के बढ़ते हमलों के मद्देनज़र उन्होंने यह कार्रवाई अफ़गानिस्तान की सुरक्षा की समस्याओं से निबटने के लिए की थी. सरकार के अंदर और बाहर से विरोध के बावजूद, उन्होंने आगे बढ़कर पहुँच बनाने के प्रयास जारी रखे.

उसके बाद उन्होंने “पंच-चक्रीय विदेश नीति” तैयार की और भारत को “चौथे” चक्र में स्थान दिया. उन्होंने सबसे पहले पाकिस्तान, चीन और सउदी अरब की विदेश यात्राएँ कीं और कार्यभार ग्रहण करने के एक महीने के अंदर ही अक्तूबर,2014 में उन्होंने भारत से हथियार की मदद के लंबे समय से लंबित प्रस्ताव को रद्द कर दिया. इस अवधि के दौरान अफ़गान तालिबान के हमलों के कारण अफ़गान राष्ट्रीय सुरक्षा बलों (ANSF) के हताहतों के आँकड़ों में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई. 

सबसे पहले तो 2014 के उत्तरार्ध में और 2015 के पूर्वार्ध में इसे बाधक न मानते हुए भारत ने आगे बढ़कर पहुँच बनाने (आउटरीच) की नीति का समर्थन किया. भारत के नीति-निर्माताओं ने वार्ता में सफलता हासिल करने के लिए काबुल के इस साहसिक कदम को एक सामरिक चाल के रूप में तर्कसंगत माना. परंतु मई, 2015 तक भारत ने हालात का अध्ययन करते हुए अपनी रणनीति को काफ़ी हद तक सँवार लिया. अफ़गान तालिबान के निरंतर हमलों का विरोध करने के बजाय घानी ने अफ़गान खुफ़िया एजेंसी को आईएसई के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर कर दिया.

इन गतिविधियों के कारण इस्लामाबाद और काबुल के बीच का संतुलन डगमगाने लगा, जबकि यही भारत की अफ़गानिस्तान-नीति का केंद्रबिंदु था. अफ़गानिस्तान को लेकर अमरीका की भावी रणनीति की अनिश्चितता के कारण और शांति-वार्ताओं में चीन की भागीदारी के कारण भारत की आशंकाएँ बढ़ने लगीं.

पहुँच बनाने के लिए आगे बढ़ना (आउटरीच) 2018

इस संदर्भ में घानी की 2018 की आगे बढ़कर पहुँच बनाने की नीति का समर्थन करने का भारत का कदम आश्चर्यजनक है.इसके पीछे का तर्क यही लगता है कि ट्रंप की चुनावी जीत के बाद भी (बावजूद भी) अमरीकी नीति में कोई बदलाव नहीं आया. अफ़गान युद्ध का विरोध करते हुए ट्रंप ने यह आश्वासन दिया था कि सत्ता में आने के बाद यह युद्ध समाप्त हो जाएगा. फिर भी फ़रवरी और अगस्त,2017 के बीच उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जनरल एच.आर. मैकमास्टर ने बिल्कुल अलग ढंग की मौलिक नीति को सफलता-पूर्वक लागू कर दिया.

समय से पूर्व अफ़गानिस्तान से सेना को न हटाने के पक्के इरादे के साथ मैकमास्टर ने “नीति की समीक्षा” शुरू कर दी. उनका उद्देश्य यही था कि वह इस क्षेत्र में लंबे समय तक अमरीकी उपस्थिति को लेकर क्षेत्रीय शक्तियों की प्रतिक्रिया का जायज़ा लेना चाहते थे और प्रशासन के भीतर इसके लिए पर्याप्त समर्थन जुटाना चाहते थे. दोनों ही उद्देश्यों में वह सफल रहे.  

चीन के साथ अमरीका के बिगड़ते संबंधों के चलते, रूस द्वारा कुछ अफ़गान तालिबानी गुटों को शस्त्रों से सुसज्जित करने के कारण और पश्चिमी व अफ़गान सेनाओं के प्रति पाकिस्तान की नफ़रत के कारण मैकमास्टर ने अफ़गान नीति की एक पहल के माध्यम से भारत को एक विश्वसनीय भागीदार के तौर पर स्वीकार कर लिया. अफ़गानिस्तान में अमरीकी रणनीति में भारत की (अस्थायी तौर पर) उन्नत भूमिका का उल्लेख ट्रंप के अगस्त,2017 के भाषण में स्पष्ट रूप में किया गया था. अमरीका की अफ़गानिस्तान की नीति में इस प्रकार के परिवर्तन से यह स्पष्ट हो गया है कि भारत ने घानी की 2018 की आगे बढ़कर पहुँच बनाने (आउटरीच) की नीति के प्रति सचेत आशावाद के साथ अपनी प्रतिक्रिया क्यों प्रकट की है. भारत के सत्ता के गलियारों में इस कदम का स्वागत हुआ है और ट्रंप ने अपने भाषण में अपनी भावी रणनीति को स्पष्ट कर दिया है. अमरीकी सैन्य सहायता में वृद्धि के आश्वासन से भारत भी इस बात को लेकर आश्वस्त हो गया है कि घानी के शांति प्रस्ताव से 2001 से हुई उपलब्धियों पर पानी नहीं फिरेगा और अफ़गानिस्तान में उसकी उपस्थिति पर भी कोई असर नहीं पड़ेगा. इससे काबुल और इस्लामाबाद के बीच का संतुलन बना रहेगा. यही भारत की ख्वाहिश भी थी.

भावी नीति का कार्यक्रम

जुलाई से आरंभ अफ़गान तलिबान के साथ अमरीका की सीधी वार्ता ने भारत को एक बार फिर से मुश्किल में डाल दिया है. अपनी पूर्ववर्ती सरकार के विपरीत, मोदी सरकार ने अफ़गान तालिबान के साथ स्वतंत्र रूप में संबंध बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं ली. पाकिस्तान के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंध भी ऐतिहासिक तौर पर सबसे निम्न स्तर पर आ गए हैं.

यदि अमरीका इस नई पहल के एक भाग के रूप में अफ़गान तालिबान के साथ कोई सौदा कर लेता है तो भारत रणनीतिक तौर पर कमज़ोर और अफ़गानिस्तान में  राजनयिक तौर पर अलग-थलग पड़ सकता है.

सीमित क्षमताओं वाले और स्थायी रणनीतिक हितों वाले एक पड़ोसी के तौर पर भारत को यह चुनने की भी छूट नहीं है कि वह अफ़गानिस्तान में कैसे, क्यों और किसके साथ भागीदारी करे.

सच तो यह है कि भारत दुविधा में फँसा है. हो सकता है कि उसे भावी आवश्यकता को देखते हुए अफ़गान तालिबानों से संबंध बनाने पड़ें और अनिश्चय से भरे संघर्षग्रस्त देश में पक्षपातपूर्ण कूटनीति की सीमाओं को रेखांकित करना पड़े.

अफ़गान संघर्ष में सीधे फँसे होने के कारण पश्चिमी शक्तियों के न केवल संसाधन खर्च होते हैं,बल्कि आस-पास के क्षेत्रों का विकास भी धीमा पड़ने लगता है. पाकिस्तान से संबंधित अल्पकालीन लाभों पर विचार करने के बजाय नई दिल्ली को दीर्घकालीन रणनीति पर विचार करना होगा कि वास्तविक रूप में सामाजिक समरसता की प्रक्रिया को बढ़ावा देते हुए अफ़गान संघर्ष को कैसे समाप्त किया जाए.

इस संदर्भ में अफ़गानिस्तान के हालात पर मास्को में आयोजित बहुपक्षीय बैठक में, जिसमें अफ़गान तालिबान के प्रतिनिधि भी भाग ले रहे थे, “गैर-आधिकारिक” तौर पर मँजे हुए सेवानिवृत्त राजनयज्ञों को भेजने का भारत का निर्णय बहुत सूझबूझ-भरा कदम था.

किसी भी प्रकार के समझौते की प्रक्रिया में सहयोग करने और अफ़गानिस्तान में हिंसक तरीके से संवाद करने की आवश्यकता को कम करने में मदद करने के लिए आवश्यक है कि भारत को अफ़गान तालिबान को पाकिस्तान के समर्थन के साथ या पाकिस्तान के समर्थन के बिना राजनीतिक जीवन की मुख्य धारा में लाने के विचार का समर्थन करना चाहिए ताकि अपने पश्चिमी पड़ोसी के साथ वह अपने सभी द्विपक्षीय मसलों को अंततः सुलझा सके.

अविनाश पालीवाल लंदन विवि के उन्नत अध्ययन स्कूल (SOAS) में कूटनीति और लोकनीति के लैक्चरर हैं.

 

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.