यदि चीनी-भारतीय संबंधों का यही ऐतिहासिक क्रम बना रहता है तो जम्मू-कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में हाल ही में भारत-चीन के सैन्य संबंधों में आये गतिरोध के बाद भी द्विपक्षीय संबंधों में आसन्न कायाकल्प को लेकर जल्द ही भारी प्रचार होगा और यह भी चर्चा होगी कि इससे विश्व में कैसे बदलाव आएगा. भारत ने जब चीन को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि यथास्थिति बनाये रखने में असफल होने के परिणामस्वरूप द्विपक्षीय संबंधों पर भारी असर पड़ सकता है तो भारत के दावित क्षेत्र में चीनी सुरक्षा बलों द्वारा तीन सप्ताह तक जारी घुसपैठ मई के आरंभ में समाप्त हो गयी. दिल्ली की ओर से यह संकेत भी दिया गया कि इसी सप्ताह विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद की विदेश यात्रा भी रद्द कर दी जाएगी और इसके कारण उसके बाद मई में होने वाली चीनी प्रधान मंत्री ली क्विंग की भारत यात्रा भी खटाई में पड़ सकती है.
लद्दाख संकट की समाप्ति के बाद खुर्शीद ने बीजिंग की यात्रा की और ली की भारत यात्रा की ज़मीन तैयार की. सीमा पर आये संकट से पहले भारत ली की भारत यात्रा को द्विपक्षीय संबंधों के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए चीन की प्रतिबद्धता के रूप में पेश कर रहा था. यह कहा जा रहा था कि अपनी पहली विदेश यात्रा के रूप में दिल्ली का चुनाव करके ली बीजिंग की परंपरा को तोड़ रहे हैं. ली मई के तीसरे सप्ताह में भारत की यात्रा कर रहे हैं.
चीनी-भारतीय संबधों में रोलर-कोस्टर स्वरूप की पुरानी परंपरा है. बीस के दशक के उत्तरार्ध में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रतिनिधि मंडल ने साम्राज्यवाद विरोधी सम्मेलन में चीनी प्रतिनिधि मंडल से सबसे पहले संपर्क किया था और साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध एकजुटता के लिए ज़बर्दस्त बयान जारी किया था, लेकिन जब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया तो चीन जापान के विरुद्ध युद्ध में कूद गया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भी जर्मनी और जापान के विरुद्ध होने वाले युद्ध में ब्रिटिश शासकों का साथ देने में कठिनाई होने लगी.
चालीस के दशक के अंत में युद्ध की समाप्ति और नये गणराज्यों के गठन के बाद दिल्ली ने एक नया नारा गढ़ा, “हिंदी-चीनी भाई-भाई” और साम्यवादी चीन को अलग-थलग करने के पश्चिमी प्रयास को विफल करने में जुट गया. एक दशक से भी कम समय बीता था कि दिल्ली और बीजिंग युद्ध में उलझ गये और दोनों के बीच एक लंबी सीमा तक फैला विवाद शुरू हो गया और तिब्बत का भविष्य साम्यवादी शासन के अंतर्गत आ गया. दिल्ली और बीजिंग के बीच द्विपक्षीय संबंधों को सामान्य बनाने के लिए लगभग एक चौथाई सदी पहले शुरू किये गये प्रयास कहीं अधिक सकारात्मक दिशा में बढ़ने लगे. लेकिन इससे इस्लामाबाद का विवाद खत्म नहीं हुआ, क्योंकि चीन ने पाकिस्तानी सेना के परमाणु हथियारों और मिसाइल कार्यक्रमों को समर्थन देना जारी रखा. 2000 के पहले दशक में द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग व्यापार में तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ और यह आँकड़ा मात्र $2 बिलियन डॉलर से बढ़कर $70 बिलियन डॉलर हो गया. इस दशक में दोनों पक्षों ने रणनीतिक भागीदारी करार की घोषणा कर दी और सीमा विवाद सुलझाने के लिए कुछ सिद्धांत तय कर लिये. जहाँ एक ओर आर्थिक सहयोग से द्विपक्षीय संबंधों में एक नया आयाम जुड़ गया, वहीं इस दशक के अंत तक कुछ नये मतभेद भी सामने आने लगेः बढ़ता व्यापार चीन के पक्ष में असंतुलित होने लगा.
इस बीच सीमा विवाद सुलझाने के लिए की जा रही वार्ताएँ स्थगित कर दी गयीं और तिब्बत और कश्मीर को लेकर आपसी अविश्वास बढ़ने लगा और इसकी पृष्ठभूमि में क्षेत्रीय विवाद बढ़ता रहा और सीमा-विवाद कायम रहा. अंतिम दशक में यह साफ़ हो गया कि चीन ने भारत को परमाणु वैश्विक व्यवस्था में शामिल करने की अमरीकी पहल का समर्थन करने से इंकार कर दिया है और परमाणु हथियारों की बराबरी में भारत को पाकिस्तान के समकक्ष खड़ा करने के लिए उसका समर्थन करते हुए उसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताने लगा है.
इस दशक में ग्लोबल वार्मिंग जैसे बहुपक्षीय मुद्दों और ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) प्रक्रिया के ज़रिये उदीयमान शक्तियों के एजेंडा को आगे बढ़ाने में भारतीय सहयोग के विस्तार के कई प्रयास हुए. लेकिन विवादग्रस्त सीमा पर लद्दाख विवाद के बढ़ने से यह भी साफ़ हो गया कि द्विपक्षीय संबंधों का आधार अभी-भी मज़बूत नहीं है. इस दशक में भारतीय और प्रशांत महासागरों के समुद्री क्षेत्र को लेकर भी दोनों देशों के बीच विवाद बढ़ गया.
सारांश में चीन के साथ भारत के संबंधों में दिखायी देने वाली जटिल गतिशीलता के कारण ही दोनों देशों के बीच सहयोग के साथ भागीदारी करने के लिए बार-बार प्रयास किये गये, लेकिन दोनों गणराज्यों के बीच सीमा-विवाद को लेकर बार-बार किये जा रहे प्रयासों में अड़चनें आती रहीं. इस जटिलता के साथ-साथ चीन को लेकर भारत की घरेलू नीति संबंधी वक्तव्यों में भी तनाव झलकने लगा है.एक ओर ऐसी रोमानी भावनाएँ हैं जिनके कारण चीन को साम्राज्यवादी-विरोधी सिद्धांतों के नज़रिये से देखा जाता है और दूसरी ओर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो चीन को दानव समझते हैं और उसके लिए राष्ट्रीय मान-सम्मान की भी परवाह नहीं करते. इस तनाव के कारण बीजिंग के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने की आशा और चीन के साथ भारी विवाद के कारण पनपते गहरे आक्रोश के बीच संबंध बढ़ते और घटते रहते हैं.
जैसे-जैसे चीन महाशक्ति बनता जा रहा है, वैसे-वैसे भारत के लिए भी एक ऐसी यथार्थवादी नीति अपनाने की चुनौती बढ़ती जा रही है जिसमें अधिकाधिक सहयोग की संभावनाएँ बढ़ती रहें और संघर्ष की अपार क्षमता हो. भारत और चीन की शक्ति की क्षमताओं का अंतराल जितना बढ़ता जाएगा यह चुनौती उतनी ही बढ़ती जाएगी. एक चौथाई सदी पहले चीन की तुलना भारत से करना अवास्तविक नहीं समझा जाता था.
आज चीन का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) भारत से चार गुना अधिक है और बीजिंग भारत की तुलना में अपने रक्षा बजट पर तीन गुना अधिक खर्च करता है. जहाँ हाल ही में भारत की आर्थिक वृद्धि दर काफ़ी प्रभावशाली रही है, वहीं चीन कुछ अधिक लंबी अवधि में कहीं अधिक तेज़ी से आगे बढ़ा है. निकट भविष्य में इस अंतराल का बढ़ना तो अपरिहार्य था, लेकिन इसके कारण भारत के सामने अनेक अनिवार्यताएँ हैं. इसलिए दिल्ली के लिए ज़रूरी होगा कि वह आर्थिक वृद्धि की गति को और अधिक तेज़ी से आगे बढ़ाए, क्योंकि यह भारत के व्यापक शक्ति-निर्माण के लिए महत्वपूर्ण होगा, लेकिन भारत अपने साधनों के बल पर चीन की उन्नति का मुकाबला नहीं कर सकता. इसके लिए आवश्यक है कि वह क्षेत्रीय सुरक्षा ढाँचे के निर्माण के लिए अमरीका, जापान और एशिया की अन्य मझौली शक्तियों के साथ भागीदारी करे जो अशांत चीन के संभावित झटकों को बर्दाश्त कर सके.
चीन के साथ कोई भी विश्वसनीय नीति तभी कारगर होगी जब वह यथार्थ पर आधारित होगी और उसमें कम से कम पाँच तत्व अवश्य होने चाहिएः व्यापक राष्ट्रीय शक्ति का निर्माण, चीन के साथ यथासंभव सहयोग बढ़ाना, द्विपक्षीय संबंधों को कमज़ोर करने वाले क्षेत्रीय संघर्षों को रोकना, क्षेत्रीय सुरक्षा पर चीन के साथ परामर्श के दायरे को बढ़ाना और अन्य शक्तियों के साथ मज़बूत आर्थिक, राजनैतिक और सुरक्षा संबंधी भागीदारी करते हुए अशांति की घटनाओं को न होने देना.
सी. राजा मोहन रणनीतिक अध्ययन के अध्यक्ष हैं और नयी दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन में विशिष्ट फ़ैलो हैं. वे ‘कैसी’ स्प्रिंग (वसंत) 2013 के विशिष्ट अंतर्राष्ट्रीय विद्वान् हैं. सन् 2012 में हाल ही में उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई है, समुद्र मंथनः भारतीय प्रशांत सागर में चीनी- भारतीय प्रतिद्वंद्विता
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>