सन् 1992 में प्रायः उद्धृत किये जाने वाले एक निबंध में जॉर्ज टनहम ने निरंतर प्रचारित किंतु सत्य से परे एक भूराजनीतिक विचार को सामने रखा था कि भारतीयों में रणनीतिक संस्कृति का अभाव है. टनहम द्वारा आधुनिक भारत के सभी कूटनीतिज्ञों को एक साथ नकार देने से कुछ भारतीय विचारक बेहद नाराज़ हो गए थे जबकि कुछ लोगों ने उनके इस विचार को अविलंब स्वीकार कर लिया था. हाल ही की एक कवर स्टोरी में ‘द इकॉनॉमिस्ट’ ने महाशक्ति बनने की भारत की इच्छा के मार्ग में आने वाली अनेक चुनौतियों का विश्लेषण तो अच्छा किया है, लेकिन रणनीतिक संस्कृति की उसकी परिभाषा बौद्धिक रूप से लचर है. लेकिन अब समाधान दिखायी देने लगा है- कुछ रिपोर्टों के अनुसार भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (आईएनडीयू) “शासन में रणनीतिक संस्कृति को लाने प्रयास करेगा”.
पहले-पहल सन् 1967 में रक्षा विश्वविद्यालय की स्थापना का विचार सामने आया था, लेकिन सन् 1999 के कारगिल युद्ध के बाद, परंतु बाद में मंत्रि-समूह की रिपोर्ट आने के बाद सरकार ने इसे स्वीकार कर लिया. मंत्रि-समूह की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (आईएनडीयू) का मूलभूत औचित्य शैक्षिक वर्ग और सरकारी कर्मचारियों के बीच के अंतराल को दूर करना था. पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री द्वारा इस विश्वविद्यालय का शिलान्यास किये जाने के बाद अंततः अब इसे कारगिल समिति की रिपोर्ट आने के “ठीक” उन्नीस साल के बाद सन् 2020 तक शुरू करने का निर्णय किया गया है. परंतु जिस तरह से भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (आईएनडीयू) की संकल्पना की गयी है और तदनुसार इस परियोजना को कर्यान्वित किया जा रहा है उससे यो यही लगता है कि टनहम के क्रूर विचार की परछाई आगे आने वाले काफ़ी समय तक इसका पीछा करती रहेगी, क्योंकि नौकरशाही के स्तर पर तो भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (आईएनडीयू) का प्रस्तावित रूप काफ़ी मज़बूत है, लेकिन बौद्धिक दृष्टि से यह अभी-भी कमज़ोर है.
सन् 2001 में मंत्रिसमूह द्वारा भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (आईएनडीयू) की स्थापना की सिफ़ारिश किये जाने के बाद के. सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (आईएनडीयू) की चौदह सदस्यीय विशेषज्ञ समिति (सीओएनडीयू) गठित की गयी थी. समिति के सदस्यों द्वारा अमरीका और चीन का दौरा किये जाने के बाद रक्षा विश्वविद्यालय की स्थापना का पहला और काफ़ी अच्छा मसौदा प्रस्तुत किया गया था. इस मसौदे में रक्षा सचिव के समग्र मार्गदर्शन में एक परियोजना कार्यान्वयन दल गठित करने का सुझाव दिया गया था और इस परियोजना के मार्गदर्शन के लिए समिति ने अपने सदस्यों की सेवाएँ देने की भी पेशकश की थी. लेकिन सन् 2004 में कांग्रेस के नेतृत्व में गठित मिली-जुली सरकार के सत्ता में आने के बाद पिछली सरकार की विरासत होने के कारण इस विचार (रक्षा सुधार प्रक्रिया से जु़ड़े अन्य अनेक सुझावों की तरह) को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय की समिति (सीओएनडीयू) की न तो कोई बैठक बुलायी गयी और न ही इसके बाद उनसे परामर्श ही किया गया.
यह तो हो सकता है कि भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय की समिति (सीओएनडीयू) की रिपोर्ट में मुख्यतः व्यावसायिक सैन्य शिक्षा की वर्तमान प्रणाली के विश्लेषण में कुछ कमियाँ रह गयी हों (और भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय की समिति (सीओएनडीयू) के अधिदेश में व्यावसायिक सैन्य शिक्षा के मूल्यांकन को शामिल ही न किया गया हो और मात्र उसके ढाँचे का ही उल्लेख किया गया हो). सर्वप्रथम इसमें स्टाफ़ कॉलेज या उच्च कमान कॉलेज जैसे शिक्षण के वर्तमान स्कूलों में सिविल फ़ैकल्टी को शामिल करने की बात नहीं की गयी है. इस मामले में भारत बड़े लोकतांत्रिक देशों में अनूठा है क्योंकि इसकी सभी संस्थाओं में पूर्णकालिक संकाय सदस्य केवल सेना से ही आते हैं. चूँकि उनकी तैनाती अपेक्षाकृत थोड़े समय के लिए ही होती है और उन्हें प्रकाशन के लिए भी कोई विशेष व्यावसायिक प्रोत्साहन नहीं मिलता, इसलिए सेना के अंदर भी बौद्धिक बहस को स्वरूप प्रदान करने की उनमें सीमित क्षमता ही होती है. साथ ही चूँकि ये पद काफ़ी प्रतिष्ठित, उच्च निष्पादन वाले और महत्वाकांक्षी होते हैं, इसलिए कैरियर वाले अधिकारी ईमानदारी से अपना विश्लेषण करने और अपनी आलोचना करने में विशेष रुचि नहीं रखते. दूसरी बात यह है कि इस समिति ने उन कमज़ोरियों को भी चिह्नांकित नहीं किया है जो जीवंत रणनीतिक समुदाय को उभरने से रोकते हों और भारतीय सेना में अवर्गीकरण क्रियाविधियों का भी अभाव है. कैम्पस कितना भी शानदार क्यों न हो इस अनिवार्य सॉफ़्टवेयर के बिना रणनीतिक संवाद लोगों की राय पर ही चलता रहेगा. इसलिए इस बात में कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि सेवा से जुड़े थिंक टैंक जिन्हें कारगिल युद्ध (जैसे क्लॉज़, एनएमएफ़, कैप्स और सैनजोस आदि) के बाद गठित किया गया था, सेना के अंदर आंतरिक प्रक्रियाओं के विश्लेषण के बजाय विदेश नीति पर ही अधिक ध्यान देते हैं. अंततः भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय की समिति (सीओएनडीयू) ने सेना के अंदर ही जनशक्ति की वर्तमान नीतियों की उपेक्षा की, जो उन सैन्य अधिकारियों के उदय के लिए लाभकारी नहीं हैं जो प्रस्तावित रक्षा विश्वविद्यालय में उपयुक्त संकाय सदस्यों के रूप में अर्हता प्राप्त कर सकते हैं. भारतीय सेना और सिविलियन नौकरशाही में एक समानता यह है कि इन दोनों में ही सामान्य जनशक्ति नीति (तकनीकी अंगों को छोड़कर) का अनुसरण किया जाता है. भले ही यह क्षेत्र अध्ययन का विषय हो या सैन्य इतिहास का, आतंकवाद या विद्रोह का मुकाबला करने का मामला हो या फिर अन्य किसी संबद्ध विषय का – इनके संबंध में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार का व्यावसायिक प्रोत्साहन नहीं दिया जाता. अभी तक की स्थिति के अनुसार भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय संबंधी परियोजना के कार्यान्वयन का दायित्व जन संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत भारत सरकार द्वारा स्वाधिकृत ईडीसीआईएल (इंडिया) लिमिटेड को सौंपा गया है, जिनकी उच्च शिक्षा में उनकी अपनी बौद्धिक विशेषज्ञता मंत्रालय से भी कम है. इसलिए शुरुआत ही गलत है. यह एक परियोजना प्रबंधन संस्थान है (जैसा कि दो पृष्ठ के लेखा-विवरण की उनकी वैबसाइट की वार्षिक रिपोर्ट में उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है), जिनकी रक्षा संबंधी मामलों में किसी भी प्रकार की कोई विशेषज्ञता नहीं है. फिर भी उन्हें एक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट, अपेक्षित संसदीय अधिनियम और इस विश्वविद्यालय की नियमावली तैयार करने का दायित्व सौंपा गया है. भारत में कोई काल्पनिक शत्रु नहीं बल्कि बाबूगिरी यह सुनिश्चित करेगी कि सरकारियत ही रणनीतिक संस्कृति के उदय की संभावना को पछाड़ सकती है.
सौभाग्यवश सन् 2020 का समय अभी काफ़ी दूर है और अभी भी एक उत्कृष्ट संस्था स्थापित करने के लिए हमारे पास समय है. तीन व्यापक नीतिगत उपाय हैं जिनका पालन करना ज़रूरी है. पहला उपाय है, व्यावसायिक सैन्य शिक्षा की समस्या का समाधान किया जाए. भारतीय रक्षा प्रशिक्षण संस्थानों में सिविलियन संकायों की भर्ती के लिए संगठित प्रयास किये जाएँ जैसा कि अन्य देशों के युद्ध महाविद्यालयों में आम तौर पर किया जाता है. इससे भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (आईएनडीयू) और इसके अंतर्गत आने वाले संस्थानों के बीच संपर्क और निरंतरता बनाये रखने में मदद मिलेगी. साथ ही सशस्त्र सेनाओं और रक्षा मंत्रालय को एक परिपक्व अवर्गीकरण-नीति की घोषणा भी करनी चाहिए.
टूसरा उपाय यह होगा कि सेना को ऐसे उपयुक्त अधिकारियों को भी चिह्नित और प्रशिक्षित करना होगा और तैयार करना होगा जो इस विश्वविद्यालय में संकाय सदस्य के रूप में काम कर सकें. इसके लिए अधिकारियों का एक विशेष दल तैयार करना होगा जिसे देश में और देश के बाहर उच्च शिक्षा के लिए भेजा जा सकेगा. ऐसे विकल्प से बौद्धिक रुचि रखने वाले अधिकारी सामने आ जाएँगे और स्वेच्छा से मुख्य धारा के अपने कैरियर को छोड़कर इस क्षेत्र में आ जाएँगे. शायद सबसे अधिक महत्वपूर्ण उपाय यही होगा कि इस विश्वविद्यालय के लिए उपयुक्त नेतृत्व को चिह्नित किया जाए. इस समय तो योजना यही है कि इस पद का वहन बारी-बारी से तीनों सेनाओं द्वारा किया जाएगा. यह एक महत्वपूर्ण अंतः-सेवा मैत्री तो होगी लेकिन यह व्यवस्था विश्वविद्यालय के लिए घातक भी हो सकती है. प्रैस रिपोर्ट के अनुसार ऐसा लगता है कि इस विश्वविद्यालय की अध्यक्षता के लिए केवल 3 स्टार अधिकारी का रैंक प्राप्त करना ही अपेक्षित होगा. इसके बजाय विश्वविद्यालय का नेतृत्व सर्वाधिक उपयुक्त प्रत्याशियों के हाथ में होना चाहिए जो भारत की सुरक्षा नीतियों को बौद्धिक दृष्टि प्रदान कर सकें और यह कार्य मात्र संयोग से संबंधित सेनाओं की बारी आने पर नहीं होना चाहिए. इसके परिणास्वरूप विश्वविद्यालय के अध्यक्ष के चयन का निर्णय स्टाफ़ समिति के मुखियों पर नहीं छोड़ा जा सकता बल्कि इसके चयन में सुरक्षा संबंधी मंत्रिमंडल समिति के सदस्यों और प्रसिद्ध शिक्षाविदों की भी भूमिका होनी चाहिए.
तीसरे उपाय के रूप में यह महत्वपूर्ण होगा कि विश्वविद्यालय के लिए बौद्धिक आर्किटैक्चर बनाने के काम पर विशेष ज़ोर दिया जाना चाहिए और इसके लिए लंबी बहस और चर्चा के लिए एक छोटा, किंतु सशक्त परियोजना कार्यान्वयन दल गठित किया जाना चाहिए. इस दल में युवा अधिकारियों, विद्वानों और व्यावसायिक सैन्य शिक्षा के विशेषज्ञों को शामिल किया जाना चाहिए, भले ही इसके लिए विदेशों से विशेषज्ञों को बुलाना पड़े, लेकिन इससे पहले भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय की समिति (सीओएनडीयू) की रिपोर्ट तत्काल प्रकाशित की जानी चाहिए.
अंततः सत्ताधारी लोगों के आदेश से या और अधिक लोगों की नियुक्ति से एक वास्तविक रणनीतिक समुदाय उभरकर सामने आएगा, लेकिन उसकी संस्कृति ऐसी होगी कि वे सेना और सरकारी सदस्यों के अंदर और व्यापक शैक्षिक समुदाय के अंदर भी एक प्रकार की निर्भीक किंतु सम्मानजनक आलोचना को प्रोत्साहित करेंगे. और बेसब्री से भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (आईएनडीयू) की स्थापना करने से पहले रणनीतिक संस्कृति के तथाकथित अभाव का डंका पीटने के बजाय बौद्धिक वास्तुविदों को युद्ध के मैदान का पहला सिद्धांत याद रखना होगाः आप तैयारी में जितना अधिक निवेश करते हैं उतने ही अच्छे परिणाम बाद में आपके सामने आएँगे.
अनित मुखर्जी ‘कैसी’ में पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च फ़ैलो हैं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>