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संघनीतिः भारतीय विशेषताओं वाली लोक-लुभावन योजनाएँ

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13/08/2018
गौतम मेहता

सन् 2018 में डेवोस में विश्व आर्थिक मंच पर एकत्रित विश्व भर के विशिष्ट कारोबारियों को संबोधित करते हुए भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने वैश्वीकरण की तो खुलकर प्रशंसा की, लेकिन व्यापारिक संरक्षणवाद की आलोचना की थी. प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के “कट्टरवादी उदारीकरण” की चर्चा करते हुए सन् 2006 में श्री मोदी ने गर्व के साथ घोषणा की थी कि आज विश्व में “भारत की अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के लिए सबसे अधिक उदार अर्थव्यवस्था है”. न तो संघ परिवार, न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और न ही उसके संबद्ध संगठन आर्थिक उदारता के इन उत्साहपूर्ण विचारों से सहमत थे और न ही प्रधानमंत्री की इस धारणा से सहमत थे कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) से भारी मात्रा में रोज़गार के नये अवसरों का सृजन किया जा सकता है. स्वदेशी जागरण मंच (SJM) ने तो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की उदार नीतियों की यह कहते हुए भारी आलोचना की थी कि “प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) ने अर्थव्यवस्था का कुछ भला करने के बजाय नुक्सान ही किया है”. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की मज़दूर यूनियन शाखा, भारतीय मज़दूर संघ (BMS) ने तो मोदी सरकार की प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) से संबंधित नीतियों का विरोध करने के लिए सड़क पर उतरकर संघर्ष करने की चेतावनी भी दे दी थी. आर्थिक गतिविधियों में, खास तौर पर विदेशी निवेश के मामले में सरकार का हस्तक्षेप किस हद तक हो, इसे लेकर भी संघ परिवार में काफ़ी मतभेद हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के नेतृत्व ने फ़िलहाल तो दृष्टिकोण से संबंधित इन तमाम मतभेदों को स्वीकार करते हुए किसी तरह का विरोध प्रकट नहीं किया है, लेकिन भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की आर्थिक शाखा के बीच यदि नीति संबंधी मतभेद बढ़ते हैं तो वे मध्यस्थता कर सकते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की आर्थिक विचारधारा बहुत हद तक “साम्यवाद और गाय” के बीच सिमटकर विकसित हुई है. हालाँकि पहले तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण का कट्टर विरोधी था, लेकिन अब उसके दृष्टिकोण में उदारता आ गई है और अगर उनकी आज की विचारधारा को कुछ शब्दों में समेटना हो तो हम इसे लोक-लुभावनी योजनाओं की भारतीय विशेषताओं के नाम से परिभाषित कर सकते हैं.

उदारीकरण के उत्तरवर्ती दौर में तो भाजपा के भीतर भी स्वदेशी (आर्थिक आत्मनिर्भरता) पक्ष ही प्रमुख रहा था. 1996 के भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में स्पष्ट रूप में कहा गया था कि विदेशी निवेश का स्वागत केवल उच्च-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ही होगा. “राष्ट्र के दूरगामी हितों के साथ समझौता न हो, इसलिए जब घरेलू बचत पर्याप्त नहीं होगी, तभी अर्थव्यवस्था की मदद के लिए विदेशी बचत का उपयोग किया जाएगा”. अब भाजपा स्वदेशी पक्ष की धीरे-धीरे उपेक्षा करने लगी है और कारोबारी दृष्टि रखने वाले नरेंद्र मोदी को पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार चुनने के बाद तो स्वदेशी पक्ष की उपेक्षा का क्रम भी पूरा हो गया है. भाजपा की प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) संबंधी नीति को प्रधान मंत्री ने बहुत ही सुंदर रूप में कुछ शब्दों में प्रकट किया है, विदेशी निवेशकों के लिए “रैड टेप नहीं, रैड कार्पेट”. संघ परिवार के आर्थिक राष्ट्रवादियों के आतंक के बावजूद मोदी सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की सीमाओं का विस्तार सभी क्षेत्रों में कर दिया है और विदेशी निवेशकों के लिए विनियामक बोझ भी कम कर दिया है. मूलतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की पृष्ठभूमि वाले हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर जैसे लोगों ने भी विदेशी निवेश को आकर्षित करने की नीति को अपने एजेंडा में प्रमुखता प्रदान की है. भाजपा सरकार ने श्रम कानून में सुधार लाने जैसे कारोबार के लिए अनुकूल विनियामक परिवर्तनों को कार्यान्वित कर दिया है.

अगर इतिहास पर नज़र दौड़ाएँ तो देखेंगे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने हमेशा ही वैश्वीकरण का खुलकर विरोध किया है. अखिल भारतीय कार्यकारिणी मंडल ने सन् 1998 में घोषणा की थी कि यह बात सर्वविदित ही है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) हमेशा ही स्वदेशी के पक्ष में रहा है, क्योंकि स्वदेशी में आत्मनिर्भरता और आर्थिक स्वतंत्रता का भाव निहित है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को हमेशा ही इस बात का भय सताता रहा है कि विदेशी निवेश से राष्ट्र की रक्तधारा में उपभोक्तावाद और सुखवाद जैसे विदेशी तत्वों का सम्मिश्रण हो जाएगा. सन् 1991 में स्वदेशी जागरण मंच (SJM) की स्थापना हमेशा आर्थिक आत्म-निर्भरता की वकालत के लिए ही की गई थी. स्वदेशी जागरण मंच (SJM) के अश्वनी महाजन ने एक साक्षात्कार में इस बात पर बल देते हुए कहा था कि विदेशी निवेश के कारण आर्थिक प्रभुसत्ता बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में चली जाएगी और गरीबों के हालात बद से बदतर हो जाएँगे. स्वदेशी जागरण मंच (SJM) ने सन् 2010 में पारित अपने एक प्रस्ताव में यह स्पष्ट कर दिया था कि उनका मंच छोटे कारोबारों में उदारीकृत व्यापार नीति और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) शासन पद्धति अपनाने से संभावित प्रभाव को लेकर बहुत चिंतित है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) हमेशा ही छोटे-छोटे परिवारों द्वारा चलाये जाने वाले कारोबारों का पक्षधर रहा है क्योंकि उसकी यह धारणा रही है कि ये कारोबारी अपने कर्मचारियों को अपने परिवार का ही एक अंग मानते हैं और कर्मचारियों के कल्याण को वे आर्थिक विचार के समकक्ष ही मानते हैं. भारतीय मज़दूर संघ (BMS) का उदय ही कामगार-समर्थक श्रम नीतियों की वकालत करने वाले वैश्वीकरण के प्रबल विरोधी के रूप में हुआ था. भारतीय मज़दूर संघ (BMS) ने सन् 2001 में यह अनुशंसा की थी कि भारत सरकार “आर्थिक स्वतंत्रता” की नीति अपनाकर अन्य विकासशील देशों के साथ मिलकर विश्व व्यापार संगठन (WTO) का विकल्प तैयार करे. भारतीय मज़दूर संघ (BMS) ने हमेशा ही भाजपा सरकारों के उन तमाम प्रस्तावों का निरंतर विरोध किया है जिनके कारण मज़दूरों की छँटनी का आशंका बढ़ सकती थी. वस्तुतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का मूल आधार उत्तर भारतीय व्यापारिक समुदाय ही रहा है,इसलिए फुटकर वस्तुओं के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) का विरोध संघ की विचारधारा का मूलमंत्र रहा है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के हाल ही के विस्तार का कारण यह है कि उच्चवर्गीय मोबाइल सामाजिक दलों से बहुत बड़ी संख्या में सदस्य इसके खेमे में आ गए हैं. संघ में हाल ही में प्रवेश करने वाले ये सदस्य स्वदेशी जागरण मंच (SJM) और भारतीय मज़दूर संघ (BMS) की आत्मनिर्भरता की जड़ विचारधारा को नहीं मानते. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की सामाजिक संरचना में आए परिवर्तनों और भाजपा की चुनावी आवश्यकताओं के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के आर्थिक दर्शन का उदय हुआ है. एक ज़माने में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) का कट्टर विरोध करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के प्रति नरम रुख अपनाने का संकेत उस समय दिया था, जब मोहन भागवत ने सन् 2013 में यह घोषणा की थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) किसी प्रकार की “हठधर्मिता से बँधा हुआ नहीं है”. संघ को पुरानी धारणाओं से अलग करते हुए भागवत ने कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) इस बात को समझता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में आए परिवर्तनों के अनुरूप संघ के दृष्टिकोण में भी “समय के साथ-साथ परिवर्तन” करने होंगे. अतीत से ठीक विपरीत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) अब न तो वैश्वीकरण का विरोध करता है और न ही उससे पड़ने वाले सांस्कृतिक दुष्प्रभाव की चर्चा करता है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों को ही सांस्कृतिक दृष्टि से विदेशी मानकर नकार दिया है. जहाँ एक ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भारतीय वामपंथियों की कुछ मान्यताओं से सहमत है, वहीं समाज को आकार देने में राज्य की महती भूमिका को वह हमेशा से ही अस्वीकार करता रहा है. संघ की 2015 की वार्षिक रिपोर्ट में भारतीय मूल्यों के आलोक में नव-निर्वाचित भाजपा सरकार की विकास की अवधारणा की प्रशंसा की गई है. संघ के मौजूदा आर्थिक दर्शन को बहुत सुंदर रूप में इन शब्दों में पिरोया जा सकता है, “लोक-लुभावन योजनाओं की भारतीय विशेषताएँ”. मोहन भागवत के 2017 में विजयादशमी के अवसर पर दिये गए भाषण से इसे और भी अधिक स्पष्ट रूप में समझा जा सकता है. यह संघ परिवार के केंद्रीय संबोधन की तरह ही है. संघ की आर्थिक लोक-लुभावनी नीति के अंतर्गत आर्थिक गतिविधियाँ छोटे उद्यमों के पक्ष में हैं. अपने भाषण में भागवत ने “विकेंद्रित आर्थिक उत्पादन” का आह्वान किया है. संघ ने हमेशा ही परिवारों द्वारा संचालित छोटे कारोबारों का समर्थन किया है. वे मानते हैं कि यही लोग नैतिकता की परंपरागत मान्यताओं के पोषक हैं.

भागवत ने अप्रैल 2018 को मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में मुंबई के विशिष्ट कारोबारियों को संबोधित करते हुए जो भाषण दिया था, वह कदाचित् संघ के आर्थिक दर्शन को सबसे अच्छी तरह से अभिव्यक्ति प्रदान करता है. इस भाषण में उन्होंने कहा था कि संघ किसी प्रकार के आर्थिक “वाद” से बँधा हुआ नहीं है और किसी भी आर्थिक नीति के मूल्यांकन की कसौटी यही है कि उससे गरीब जनता लाभान्वित होती है या नहीं. संघ हमेशा से ही कल्याणकारी कार्यों के लिए अधिक से अधिक राशि खर्च करने और आर्थिक समतावाद का पक्षधर रहा है. स्वदेशी जागरण मंच (SJM) और भारतीय मज़दूर संघ (BMS) दोनों के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी कदाचित् संघ के सबसे अधिक प्रभावी विचारक रहे हैं. उनकी यह मान्यता थी कि उच्चतम वर्ग के 20 प्रतिशत और निम्नतम वर्ग के 20 प्रतिशत लोगों की आमदनी का अनुपात 10:1 से अधिक नहीं होना चाहिए. संघ की 2015 की वार्षिक रिपोर्ट में भाजपा सरकार की उस नीति की प्रशंसा की गई है जिसके अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों और अनुसूचित जाति और जनजाति की आवश्यकताओं की पूर्ति प्राथमिकता के आधार पर करने का संकल्प किया गया है. भागवत की यह मान्यता है कि हिंदू धर्म कोई संन्यासियों का धर्म नहीं है, जिसमें धन कमाने की प्रक्रिया को हेय दृष्टि से देखा जाता हो. व्यक्ति के आर्थिक आचरण को धर्म से तोलकर देखा जाना चाहिए. व्यक्ति के पूर्व निर्धारित आचरण को संघ की इस धारणा से बल मिलता है कि सामाजिक परिवर्तन की दिशा नीचे से ऊपर की ओर रहती है और इसी आधार पर संघ की आर्थिक लोक-लुभावन नीति विशिष्ट भारतीय चरित्र को अभिव्यक्त करती है. भागवत की मान्यता है कि जीवन में व्यक्ति का बृहत्तर उद्देश्य केवल पैसा जमा करना या पैसा कमाकर भोग-विलास में उड़ाना नहीं होना चाहिए, बल्कि उस पैसे को कम सुविधा-प्राप्त सह-नागरिकों के साथ साझा करना चाहिए. 2011 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में संघ ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि भ्रष्टाचार का मूल कारण उपभोक्तावाद और अपनी उन्नति में ही खोये रहना है.

पिछले वर्ष के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और संघ परिवार ने भाजपा सरकार की नीति को आर्थिक दृष्टि से लोक-लुभावन दिशा में और आगे बढ़ाने पर ज़ोर दिया. 2017 में भागवत के विजयादशमी वाले भाषण के एक सप्ताह के अंदर ही केंद्र सरकार ने ईंधन और आम आदमी के लिए उपयोगी वस्तुओं पर टैक्स कम कर दिया था और जीएसटी देने वाले छोटे कारोबारियों पर अनुपालन का बोझ भी कम कर दिया था. वित्तमंत्री अरुण जेटली की इस घोषणा से निश्चय ही स्वदेशी जागरण वाले प्रसन्न हुए होंगे. वित्तमंत्री का बजट भाषण “पिछले दो दशकों से चली आ रही (सीमा शुल्क घटाने की ) घोषित नीति से अलग हटकर था”. संघ परिवार द्वारा बार-बार आग्रह करने के कारण ही सरकार ने प्रधान मंत्री के चुनावी अभियान में इस दावे को दोहराना छोड़ दिया है कि “सरकार का खुद कोई कारोबार करने का कोई मतलब नहीं है”. इसका ताज़ा उदाहरण तो यही है कि सरकार ने हमेशा घाटे में रहने वाले एयर इंडिया के निजीकरण की योजना को छोड़ दिया है. अपने ही दल के उदारवादी समर्थकों के दबाव में भाजपा की राज्य सरकारें सार्वजनिक व्यय वाली अनेक लोक-लुभावनी योजनाओं को कार्यान्वित कर सकती हैं. इनमें से स्टेपल वसूली मूल्य में भारी वृद्धि और राजकोषीय दृष्टि से बोझिल कृषि ऋणों में छूट जैसी योजनाओं को तो भाजपा की अनेक राज्य सरकारों ने लागू कर भी दिया है. भाजपा का 2014 का चुनावी अभियान अच्छे दिन लाने पर केंद्रित था ; और अगला चुनावी अभियान आर्थिक दृष्टि से कल्याणकारी लोक-लुभावनी योजनाओं पर केंद्रित हो सकता है.


गौतममेहताहालहीमेंउन्नत अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन के जॉन्स हॉपकिन्स स्कूल से स्नातक हुए हैं औरसंघपरिवार पर एक पुस्तक लिखवाने में मदद कर रहे हैं.

हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक(राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल: 91+9910029919