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नीतियों में अंतर और सार्वभौमिक नेत्र-स्वास्थ्य का पवित्र संकल्प

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17/06/2019
तुलसीराज रवीला

सन् 2015 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य राष्ट्रों ने स्थायी विकास के लक्ष्य (SDG) निर्धारित करते समय सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (UHC) का संकल्प भी किया था. सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (UHC) की प्रक्रिया को तीन तत्वों से परिभाषित किया जाता है: सभी व्यक्तियों और समुदायों को स्वास्थ्य सेवा सुलभ कराना, व्यापक देखभाल और वित्तीय सुरक्षा. 

चूँकि पहुँच ही स्वास्थ्य सेवा का मूल आधार है लोगों को स्वास्थ्य सेवा सुलभ कराना, इसलिए प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल (PHC) को मुख्य रणनीति के तौर पर मान्यता प्रदान की गई है, ताकि हर ज़रूरतमंद व्यक्ति को सिस्टम के अंदर लाया जा सके. हाल ही में कुछ समय तक प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल (PHC) प्रसूति, बच्चों की देखभाल और सामान्य बीमारियों तक ही सीमित थी. परंतु गैर-संचारी रोगों के उपचार के लिए की गई वैश्विक पहल की प्रक्रिया में एक हस्ताक्षरकर्ता बनने के बाद से, भारत ने उच्च रक्तचाप, हृदय रोगों, कैंसर, साँस की पुरानी बीमारियों और मधुमेह को शामिल करने के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल (PHC) के दायरे का विस्तार कर दिया है. जहाँ एक ओर सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (UHC) की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए नई रणनीतियों और टैक्नोलॉजी का प्रयोग किया जा रहा है, वहीं इस प्रकार की पहल को प्रभावी बनाने के लिए नीतियों और नियमों में नये बदलाव लाने की भी आवश्यकता है. निश्चय ही दशकों पुराने मौजूदा नियम अपने समय में प्रासंगिक रहे होंगे, लेकिन उन्नत टैक्नोलॉजी और इस दिशा में की गई नई पहल - दोनों को अपनाने के लिए नियमों में आमूलचूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है.

जहाँ तक नेत्र-रक्षा का सवाल है, भारत (और अन्य विकासशील देशों) के किसी भी समुदाय की स्क्रीनिंग और प्राथमिक स्तर की देखभाल के लिए अपनाई गई रणनीति अनिवार्यतः किसी समुदाय विशेष के लिए साल में एक बार नेत्र शिविर लगाने जैसी गतिविधियों तक ही सीमित रहती है. नब्बे के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत में किये गए अध्ययन से पता चलता है कि 7 प्रतिशत से भी कम लोगों ने, जो पहले से ही आँखों की देखभाल की ज़रूरत महसूस कर रहे थे, नेत्र शिविर में भाग लिया, जबकि ये शिविर उनके अपने ही गाँव में या किसी नज़दीकी गाँव में लगाये गये थे, आबादी के कवरेज के हिसाब से नेत्र-शिविर में आने वाले व्यक्तियों का प्रतिशत 0.25 से भी कम था, जबकि अनुमानतः सामान्य आबादी के 20-25 प्रतिशत लोगों को किसी न किसी रूप में नेत्र संबंधी देखभाल की आवश्यकता है. यदि वस्तुस्थिति को देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि साल में एक बार 5-6 घंटे तक लगने वाले नेत्र-शिविर से पूरी आबादी की ज़रूरतों को पूरा नहीं किया जा सकता. इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि पूरे साल भर तक नेत्र-रक्षा की सेवाएँ स्थायी तौर पर प्रदान की जाएँ.

मैंने अपने सहयोगी के साथ मिलकर सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (UHC) के लक्ष्य को वास्तविक बनाने के लिए नीतियों में बदलाव लाने की आवश्यकता और संभावनाओं का पता लगाने के लिए केस स्टडी की थी. पहले चरण में हमने प्राथमिक नेत्र रक्षा संबंधी स्थितियों को निम्नलिखित रूप में विभाजित किया हैः केस परिणाम, उपचार और अनुवर्ती कार्रवाई.

ब्रॉडबैंड, टेली मेडिसिन और कम लागत की इमेजिंग जैसी टैक्नोलॉजी के आ जाने से हमने टेली मेडिसिन व सूचना टैक्नोलॉजी द्वारा संचालित सरल प्रयोक्ता इंटरफ़ेस सहित प्राथमिक नेत्र रक्षा केंद्र (दृष्टिकेंद्र) स्थापित करने का निर्णय लिया. पहले दृष्टिकेंद्र का उद्घाटन सन् 2003 में किया गया था. तब से लेकर आज तक ग्रामीण तमिलनाडु में 75 केंद्रों की स्थापना की जा चुकी है, जिनसे 6 मिलियन आबादी का कवरेज हो जाता है. औसत आबादी का कवरेज लगभग 25 प्रतिशत है. पुराने केंद्रों में यह प्रतिशत 50 तक पहुँच जाता है. आधी आबादी एक या उससे अधिक बार किसी न किसी नेत्र संबंधी बीमारी के लिए इन केंद्रों में आ चुकी है. लगभग 90 प्रतिशत रोगी दृष्टिकेंद्र  में आकर अपनी आँखों से संबंधित रोगों का पूरा निदान, उपचार संबंधी सलाह, दवाएँ और डॉक्टरी सलाह से चश्मे की सुविधा भी तत्काल प्राप्त कर लेते हैं. वैसे तो रोगी इसका भुगतान खुद कर देते हैं. इसकी दरें किफ़ायती रहती हैं और हर एक को यह तत्काल मिल भी जाती है. आवश्यक होने पर कुछ रोगियों को सर्जरी या उच्च स्तरीय देखभाल के लिए बेस अस्पताल भी भेज दिया जाता है. ऐसे भेजे जाने वाले रोगियों में अनुपालन ज़्यादा होता है क्योंकि विशेष जाँच  के लिए अस्पतालों में भेजे जाने वाले रोगियों की संख्या सीमित रहती है. यहाँ उनके सामने यह विकल्प भी रहता है कि वे अस्पताल की सेवाएँ प्राप्त करें या किफ़ायती दर पर  या फिर मुफ्त में इलाज कराएँ. इस प्रकार सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (UHC) के इन तत्वों के मिलन से इसका कवरेज भी बढ़ जाता है, सभी प्रकार के नेत्र रोगों का उपचार होता है और यह इलाज सस्ता भी पड़ता है. इस प्रकार सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (UHC) के तीनों तत्वों का लक्ष्य पूरा हो जाता है.

सार्वभौमिक नेत्र-स्वास्थ्य के इस क्रमिक और कारगर मॉडल की व्यापक संभावनाएँ हैं और इसके अंतर्निहित सिद्धांतों और टैक्नोलॉजी को स्वास्थ्य सेवा की सभी शाखाओं पर लागू किया जा सकता है. नेत्र रक्षा के भीतर क्रमिक विकास की प्रवृत्ति त्रिपुरा, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु के साथ-साथ बंगला देश में बहुत व्यापक स्तर पर दिखाई देती है. लेकिन नीतियों में अनेक प्रकार के अंतर होने के कारण इसका पूरा और क्रमिक उपयोग नहीं हो पा रहा है.  इनमें से बहुत-सी नीतियों का निर्माण तब हुआ था, जब मौजूदा टैक्नोलॉजी का उदय भी नहीं हुआ था और तत्संबंधी सेवाएँ भी शहरी-केंद्रित हैं. खास तौर पर दो प्रमुख नीतियों पर विचार करने की आवश्यकता है.

टैक्नोलॉजी व टेली-स्वास्थ्य
टेली मैडिसिन और सुदूर निदान का प्रयोग लगभग एक दशक से हो रहा है और इसके अनेक अनुप्रयोग भी प्रचलित हैं, जैसे रेडियोलॉजी के निर्वचन से लेकर ईसीजी (ECG) पर आधारित हृदय संबंधी सलाह तक. वास्तव में भारत सरकार सन् 2001 से ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के सहयोग से सन् 2001 से ही सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में कनेक्टिविटी प्रदान करके टेली-मेडिसिन का प्रचार करती रही है. दूसरी ओर, नीति संबंधी निर्देशों के अभाव के कारण कुछ ऐसी स्थितियाँ भी उत्पन्न हो जाती हैं, जैसे एक ऐसी ही स्थिति के बारे में सितंबर 2018 में द न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने एक समाचार प्रकाशित किया था, जिसमें सुदूर सलाह देने वाले एक डॉक्टर दंपति पर मुंबई उच्च न्यायालय ने चिकित्सा में अवहेलना का आरोप लगाया था और यह निर्णय दिया था कि ऐसी सलाह गैर-कानूनी है, जिसके कारण टेली-सलाह उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता हो.    

इसी तरह इस व्यवसाय से जुड़े और भी उदाहरण हैं. मई 2019 में द न्यूज़ मिनट में एक समाचार प्रकाशित हुआ था, जिसमें कर्नाटक चिकित्सा परिषद के उपाध्यक्ष डॉ. कांची प्रह्लाद ने कहा था, “ इस प्रकार के अनुप्रयोगों का उपयोग करते हुए सलाह देना नैतिक चिकित्सकीय पद्धतियों का उल्लंघन है. ऐसी पद्धतियाँ अनैतिक हैं. इसमें किसी तरह का संदेह नहीं होना चाहिए.”

सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (UHC) तभी सचमुच संभव हो पाएगा जब प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल (PHC) की नीति अपनाई जाएगी और प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल (PHC) की व्यापक नीति तभी लागू हो पाएगी जब टेली-स्वास्थ्य और कृत्रिम बुद्धि (AI) जैसी डिजिटल टैक्नोलॉजी का उपयोग किया जाएगा. इसके लिए नीतियों को लागू करना आवश्यक है.

दवाओं की आपूर्ति
रोगी की हालत में तब तक सुधार नहीं होता जब तक रोगी को उसके रोग के अनुकूल दवा न मिले और वह डॉक्टर के निर्देशानुसार दवा न ले. जब नेत्र विज्ञान जैसी विशेष स्थितियों में ग्रामीण स्तर पर कोई दवाई सुझाई जाती है तो स्थानीय दवाओं की दुकान पर ये दवाइयाँ नहीं मिलतीं. भले ही वे (दवा की दुकानें ) मौजूद हों, जो कि अक्सर नहीं होतीं,

कभी मिलती भी हैं तो कोई ऐसा केस सामने नहीं आता. दवा जुटाने के लिए रोगी को काफ़ी खर्चा और मशक्कत करके नज़दीकी कस्बे में जाना पड़ता है. अधिकांश मामलों में रोगी इतनी मशक़्क़्क़त नहीं करते. दवा जुटाने के लिए काफ़ी खर्चा करना पड़ता है और मशक्कत भी करनी पड़ती है. अधिकांश मामलों में तो ऐसी नौबत ही नहीं आती. इसका नतीजा होता है कि रोगी की हालत सुधरने के बजाय बिगड़ने लगती है. फार्मेसी अधिनियम के अनुसार कुछ हद तक न्यूनतम भौतिक बुनियादी ढाँचा रखना आवश्यक है और साथ ही योग्य फार्मासिस्टों द्वारा दवाओं का वितरण भी आवश्यक है. शहरी इलाकों में तो यह व्यवस्था कारगर रहती है. यहाँ जितने बड़े पैमाने पर काम होता है उससे कर्मचारियों और बुनियादी ढाँचे का खर्च भी निकल आता है. ज़मीनी स्तर पर मौजूदा नियम ऐसे हैं जो रोगी को समय पर और किफ़ायती दरों पर दवाएँ मुहैय्या कराने में बाधा उत्पन्न करते हैं. इसलिए आवश्यक है कि नीतियों में उपयुक्त परिवर्तन किये जाएँ.(जैसे अलास्का में Nuka रक्षा प्रणाली सिस्टम जैसी नवोन्मेषकारी योजनाएँ हैं.)

मौजूदा नीति और विनियामक ढाँचा प्राथमिक स्तर पर कारगर नहीं होता, क्योंकि इसका स्तर बहुत ही निचला होता है. इसी तरह नीतियाँ ऐसी होनी चाहिए जो टैक्नोलॉजी की प्रगति और उसकी प्रदर्शित क्षमता के अनुरूप हों. साथ ही फिर से यह परिभाषित करने की भी आवश्यकता है कि प्राथमिक स्तर के कर्मचारियों के लिए टैक्नोलॉजी का उपयोग कैसे किया जाए. इस प्रकार के परिवर्तनों से प्राथमिक देखभाल का नज़रिया बदलेगा और यही सार्वभौमिक स्वास्थ्य की देखभाल का मूल आधार है

तुलसीराज रवीला अरविंद नेत्र देखभाल प्रणाली (तमिलनाडु) के अंतर्गत संस्था LAICO (लायंस अरविन्द इंस्टिट्यूट ऑफ़ कम्युनिटी ऑप्थेल्मोलॉजी) के कार्यपालक निदेशक हैं और CASI Spring 2019 के विज़िटिंग फ़ैलो हैं.

 

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919