24 मार्च, 2020 को भारत सरकार ने घोषणा की थी कि 21 दिनों तक सभी लोग अपने घर की चहारदीवारी में ही रहेंगे. ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय कोविड-19 के सरकारी रिस्पॉन्स ट्रैकर ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस संबंध में भारत की प्रतिक्रिया दुनिया में सबसे अधिक सख्त रही है और इसका असर 130 करोड़ लोगों पर पड़ा है. लॉकडाउन, जिसे बाद में बढ़ा भी दिया गया, के दौरान लागू उपाय बेहद प्रतिबंधक हैं और इनमें केवल अनिवार्य वस्तुओं की आवाजाही में लगे लोगों को ही घर से बाहर निकलने की छूट दी गई है. इसका तत्काल प्रभाव यही देखने में आया है कि भारी संख्या में मौसमी प्रवासी मज़दूर उन शहरों से जहाँ वे काम करते थे, अपनी सुरक्षा के लिए गाँवों के अपने घरों की ओर भागने के लिए मजबूर हो गए. इसके अलावा कोविड-19 लॉकडाउन का एक और महत्वपूर्ण पक्ष सामने आया, हालाँकि उस पर कम ही चर्चा हुई और वह था पुलिस का सामाजिक सेवा कार्य.
सारे भारत में स्थानीय पुलिस एजेंसियों को सामाजिक दूरी बनाये रखने के नियम को लागू करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी, लेकिन उनकी गतिविधियाँ उससे कहीं अधिक व्यापक थीं. सरकारी सेवाओं तक अपनी पहुँच बनाने का सबसे पहला स्थल था पुलिस और लॉकडाउन के कारण पुलिस अधिकारी तत्काल मदद की गुहार लगाने वाले नागरिकों के नियमित संपर्क आ गए. पुलिस अधिकारी भारत के जन स्वास्थ्य अभियान में भी अगली पंक्ति में हैं और लोगों को सूचनाएँ देने के साथ-साथ अनिवार्य वस्तुओं की सप्लाई भी कर रहे हैं. इतने महत्वपूर्ण कार्यों को पुलिस कैसे निभाएगी, यह प्रश्न शोधकर्ताओं के सामने आया है और नीति-निर्धारकों को इस प्रकार के कार्य निभाने के लिए पुलिस को आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराते हुए प्रशिक्षणोन्मुख बनाना होगा.
लॉकडाउन लागू करने का संदर्भ
लॉकडाउन लागू करने के लिए पुलिस की सीमित क्षमता और सामाजिक संदर्भ को देखते हुए भारत में अगली पंक्ति के पुलिस अधिकारियों पर काफ़ी बोझ आ गया है. सामाजिक दूरी रखने से सामाजिक मान्यताएँ बुरी तरह प्रभावित होती हैं और गरीब लोगों की ज़रूरतों और आजीविका पर भारी दबाव पड़ता है. भारत की नगरपालिकाएँ सड़क की संस्कृति को बढ़ावा देती हैं और सड़क के किनारे स्टैंड लगाकर खुले में खाने-पीने की चीज़ों और सामान की बिक्री होती है. भारत की विशाल शहरी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था कामगारों की खुली आवाजाही पर ही निर्भर करती है. ग्रामीण भारत में नदी-नालों के किनारे चौपालें लगती हैं और वहाँ के निवासी इन चौपालों में इकट्ठे होते हैं और विचार-विनिमय करते हैं. अब चूँकि लॉकडाउन की अवधि का विस्तार रबी की सालाना फसल कटाई तक हो गया है, इसलिए कृषि अर्थव्यवस्था भारी दबाव में आ गई है.
लॉकडाउन के कारण पुलिस के लिए स्थिति काफ़ी जटिल और चुनौतीपूर्ण होने लगी है. अगली पंक्ति के पुलिस अधिकारी लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन होगा ऐसी आशंका अपने अनुभव के आधार पर रखते हैं. उनका मकसद है भयानक हादसों का रोकना ताकि बड़े पैमाने पर होने वाली हिंसक वारदातों को रोका जा सके और कानून-व्यवस्था को ध्वस्त होने से बचाया जा सके. जहाँ तक भारतीय पुलिस की क्षमता का सवाल है, इसमें पुलिसकर्मियों और संसाधनों की एक लंबे अरसे से भारी कमी रही है. भारत की आबादी पर पुलिस बल का औसत 100,000 लोगों पर 193 पुलिसकर्मी हैं. यह औसत अन्य देशों के मुकाबले बहुत कम है. कुल पुलिस बजट में से 80-90 प्रतिशत राशि पुलिसकर्मियों के वेतन पर ही खर्च होती है. और लगभग 10 प्रतिशत राशि दैनिक रख-रखाव पर खर्च होती है. जन प्रबंधन, प्रतिबंधात्मक पुलिस कार्यों, सामुदायिक पुलिस व्यवस्था और नागरिक सेवा कार्यों हेतु ही उपलब्ध हो पाती है. इन कमियों के बावजूद भारतीय पुलिस एजेंसियाँ लॉकडउन लागू करने और जन स्वास्थ्य को बेहतर बनाने की चुनौतियों का सामना प्रभावी रूप से कर रही है.
जन व्यवस्था और समाज सेवाः पुलिस के दो चेहरे
कोविड-19 से संबंधित भारत की जन स्वास्थ्य-रक्षा के लिए पुलिस के दो स्पष्ट कार्य हैं: सार्वजनिक कानून व्यवस्था का अनुपालन और समाज सेवा का प्रावधान. लॉकडाउन के आदेश के बाद, पुलिस एजेंसियों ने वाहनों में बैठकर या पैदल ही पैट्रोलिंग करते हुए या वाहन जाँच और चौराहों पर सामाजिक दूरी के नियम को कठोरता से लागू किया है. इन तकनीकों में “कानून-व्यवस्था” के उन पुराने तौर-तरीकों को ही अपनाया गया है, जिन्हें पुलिस को प्रशिक्षण के दौरान सिखाया जाता है और जो उनकी संगठनात्मक संस्कृति में निहित है. व्यावहारिक शब्दों में लॉकडाउन लागू करने का मतलब है भीड़ का नियंत्रण और इस प्रक्रिया में सार्वजनिक स्थलों को नियंत्रित करने के लिए त्वरित और कभी-कभी बलपूर्वक कार्रवाई भी की जाती है ताकि व्यवस्था हर हाल में बनी रहे.
भारतीय मीडिया में कानून-व्यवस्था लागू करने की प्रणाली को लॉकडाउन के संदर्भ में पुलिस “कर्फ़्यू” की संज्ञा दी गई है. राजस्थान के भीलवाड़ा ज़िले में पुलिस ने “महा कर्फ़्यू” लगाया था. इस कर्फ़्यू के दौरान दूध और दवाओं की डिलीवरी पर भी रोक लगा दी गई थी. कोविड-19 को फैलने से रोकने में इस कार्रवाई की शुरू में बहुत प्रशंसा हुई. महा कर्फ़्यू के पीछे यही तर्क था कि कोई भी व्यक्ति कानून तोड़ने के लिए अपने विवेक का सीमित उपयोग ही कर सके और इसके कारण लॉकडाउन के नियम तोड़ने के लिए लोगों को बढ़ावा मिल सकता है और इससे लोगों में अव्यवस्था बढ़ने की आशंका हो सकती है और विषाणु को रोकने के प्रयास निष्फल हो सकते हैं, लेकिन भीलवाड़ा की पुलिस ने महा कर्फ़्यू को लागू करने के लिए कानून-व्यवस्था की प्रणाली से एक कदम आगे बढ़कर नागरिकों की मदद के लिए नगर निगम की एजेंसियों के साथ समन्वय करते हुए योजनाबद्ध रूप में सप्लाई को संग्रहीत करके डिलीवरी सिस्टम भी विकसित कर लिया.
भीलवाड़ा के महा कर्फ़्यू ने पुलिस के कार्यों में जनता सेवा का एक नया आयाम जोड़ दिया है. इसके कारण पुलिस अधिकारी संकटग्रस्त नागरिकों की सेवा में जुट गये हैं. हालाँकि अधिकारियों के इस सेवा भाव की चर्चा मीडिया में कम ही होती है, लेकिन हमारे शोधकार्य में इसका बार-बार उल्लेख होता है. बीट कांस्टेबलों ने खाने-पीने की सामग्री और दवाओं के दैनिक वितरण की ज़िम्मेदारी अपने हाथ में ले ली है और पुलिस थाने आवश्यक सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं. कुछ ज़िलों में तो पुलिस थाने भुखमरी से लड़ने के लिए नागरिक निकायों के साथ मिलकर भोजन हब बन गए हैं.
आइए मध्य प्रदेश के ज़िलों के कुछ उदाहरणों पर गौर करें:
इंदौर में कोविड-19 के बारे में पुलिस थानों ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए गठित महिलाओं के स्वयंसेवी दल ‘ऊर्जा’ (URJA) नामक कार्यक्रम के माध्यम से जागरूकता फैलाने का कार्य किया है. इसका हमने Gabrielle Kruks-Wisner और वर्जीनिया विश्वविद्यालय के संदीप सुखटणकर के सहयोग से और J-PAL की मदद से अध्ययन किया है. वरिष्ठ अधिकारियों ने स्थानीय स्वयंसेवकों को संगठित करके वयोवृद्ध लोगों के घर जाकर उन्हें खाद्यान्न और दवाएँ वितरित करवाई हैं. लोगों से दान लेकर पुलिस की गाड़ियों से चक्कर लगाते हुए पुलिसकर्मियों ने सड़क पर रहने वाले लोगों में साबुन, पानी और भोजन बाँटा है.
उज्जैन में ज़िला पुलिस ने प्रसिद्ध महाकाल मंदिर के अधिकारियों के साथ मिलकर झुग्गियों में रहने वाले लोगों और नगर से गुज़रने वाले प्रवासी मज़दूरों को भोजन बाँटने का काम किया है. पुलिस, कृषि विभाग और नगर निगम के अधिकारियों ने मिलकर एक अस्थाई रसोईघर बनाया है, जिसमें हर रोज़ 15,000 पैकेट भोजन बनाकर उन्हें ज़रूरतमंदों में बाँटा जाता है.
जबलपुर के एक कांस्टेबल ने बताया कि बच्चों के साथ कुछ महिलाएँ उसके पुलिस थाने में आईँ और अपनी दुर्दशा की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि वे झुग्गी में रहती हैं, लेकिन लॉकडाउन के कारण वहाँ के निवासी कई दिनों से भूखे हैं. कांस्टेबल ने एक स्थानीय एनजीओ से संपर्क करके उनके लिए खाने की व्यवस्था करवाई और उसके बाद उस एनजीओ ने झुग्गी में रहने वाले समुदाय के लोगों के लिए दैनिक भोजन की व्यवस्था कर दी.
खाद्य सुरक्षा से भी आगे बढ़कर पुलिस अधिकारी जन स्वास्थ्य संदेशवाहकों की नई भूमिका निभाने लगे हैं और पुलिस स्टेशन और चैकपॉइंट भारत के जन स्वास्थ्य अभियान के केंद्र बन गए हैं. ज़िला पुलिस के प्रमुख अधिकारियों ने कोविड-19 की आपात् फ़ोन लाइनें शुरू कर दी हैं ताकि नागरिकों की आवश्यकताओं की शीघ्रता से पूर्ति की जा सके. कुछ थानों के बाहर तो सामाजिक दूरी बनाये रखने और हाथ धोने के महत्व को समझाने के लिए बैनर भी लगा दिये गए हैं. कुछ अधिकारी तो यातायात के विराम स्थलों पर हाथ धोने की तकनीक का प्रदर्शन भी करने लगे हैं. इसी प्रकार के प्रयास पुलिस संगठन के अंदर भी चल रहे हैं. उदाहरण के लिए ग्वालियर ज़िले के कांस्टेबलों ने अपने इलाके के साथियों के बचाव के लिए कपड़े से मास्क भी बनाये हैं.
पुलिस उज्जैन में मास्क बाँटते हुए
फ़ोटो : मध्य प्रदेश के पुलिस विभाग के सौजन्य से
यद्यपि भारत में पुलिस पर राज्य सरकारों का संवैधानिक अधिकार है, फिर भी पुलिस की पहल का स्वरूप हर राज्य में अलग-अलग है. केरल में प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा है और इसे व्यापक रूप में स्वीकार भी किया जाता है, फिर भी 30 जनवरी को कोविड-19 का पहला मामला केरल में ही सामने आया. केरल में इसके संक्रमण की दर दूसरे स्थानों की तुलना में इस समय काफ़ी नीची लगती है और बीमारी से ठीक होने की दर अधिक लगती है (देश भर में परीक्षण की सीमित और असमान स्थिति के बावजूद). जागरूकता फैलाने के लिए केरल की पुलिस ने सामाजिक दूरी बनाये रखने और हाथ धोने से संबंधित रंगीन वीडियो सोशल मीडिया पर प्रसारित किये हैं और इसमें मलयालम की लोकप्रिय फ़िल्म का संगीत भी दिया है. पुलिस आगे बढ़कर जन स्वास्थ्य के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कितनी पहल करती है, इस विषय पर और शोध करने की आवश्यकता है.
पुलिस के व्यवहार और प्रदर्शन को समझना
सामाजिक सेवा के उदाहरण देकर हम पुलिस का यशोगान नहीं करना चाहते बल्कि उनके काम के एक मूलभूत पक्ष को उजागर करना चाहते हैं. कानून व्यवस्था और सामाजिक सेवा को साथ-साथ रखकर, खास तौर पर जटिल समस्याओं के प्रबंधन के संदर्भ में हम पुलिस के व्यवहार और प्रदर्शन को बेहतर समझ सकते हैं परंपरागत कानून व्यवस्था के कार्य के संदर्भ में इस बात के साक्ष्य मिलते हैं कि सार्वजनिक स्थलों को नियंत्रित करने के अभियान में कई अधिकारी निरंकुश रवैया अपनाते हैं. तारिक थाचिल के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में पिछले साल 33 प्रतिशत शहरी प्रवासियों ने बताया है कि पुलिस ने उनके साथ हिंसक बर्ताव किया. सोशल मीडिया पर पुलिसकर्मियों द्वारा खाने के ठेले वालों को धक्का देते हुए और घर लौटते हुए प्रवासी मज़दूरों पर लाठी बरसाते हुए बहुत से वीडियो दिखाये गए हैं. इन तरीकों को अपनाकर पुलिस लोकतांत्रिक मूल्यों और पेशेवर मानकों का उल्लंघन करती है. जब व्यवस्था को बनाये रखने का कोई अन्य उपाय कारगर नहीं होता तभी पुलिस ऐसे तरीकों को अपनाने के लिए विवश होती है.
इसके विपरीत जब पुलिस चुनावों और धार्मिक उत्सवों का प्रबंधन करती है तो हमारे शोध के अनुसार पुलिस एजेंसियाँ नागरिकों को केंद्र में रखकर अपनी रणनीति बनाती हैं. अधिकारी बहुत ही सटीक रूप में योजना बनाते हैं और संवेदनशील मतदान केंद्रों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं और शांति बनाये रखने के लिए धार्मिक नेताओं और समुदाय के नेताओं को साथ लाने का प्रयास करते हैं. यही स्थिति धार्मिक उत्सवों में भी रहती है. ऐसे उत्सव भारत के बहु-धार्मिक समाज में अक्सर मनाये जाते हैं. भीड़, यातायात और जुलूसों के प्रबंधन के लिए अन्य एजेंसियों के साथ समन्वय करना पड़ता है और नागरिकों का समर्थन जुटाना पड़ता है और बहुत से लोग तो आगे बढ़कर पुलिस की मदद करते हैं. जब पुलिस योजनाएँ बनाती है तो समाज से सुझाव लेकर व्यवस्था बनाये रखने के लिए उपलब्ध साधनों का भी प्रयोग करती है.
संकट से निपटने के लिए अगली पंक्ति की राज्य की क्षमता का निर्माण
पुलिस की संगठनात्मक क्षमता में कुछ ऐसी कमियाँ अभी भी मौजूद हैं जिन पर नीति-निर्माताओं को ध्यान देना होगा. पहली बात यह है कि पुलिस का प्रशिक्षण सही अनुपात में जन-व्यवस्था पर केंद्रित नहीं है. इस प्रशिक्षण का अधिकांश ज़ोर “हार्ड” स्किल के प्रशिक्षण पर केंद्रित है, जैसे हथियारों का प्रयोग, युद्ध कौशल, परेड, भीड़ पर नियंत्रण का अभ्यास और अन्य शारीरिक क्षमता- ये सभी महत्वपूर्ण हैं. इस बीच भीड़ प्रबंधन, संचार और समन्वय, समझौता वार्ताओं और संघर्ष निवारण जैसी सॉफ़्ट स्किल पर कम ध्यान दिया जाता है. पुलिस प्रशिक्षार्थियों पर अपने देशांतरपरक शोध में हमने पाया है कि अधिकांश नये अधिकारियों को प्रशिक्षण के आरंभ से ही उच्चतम प्राथमिकता के तौर पर हार्ड स्किल का प्रशिक्षण दिया जाता है, लेकिन फ़ील्ड का अनुभव प्राप्त करने के बाद उनके विचार बदल जाते हैं और उन्हें व्यवहारपरक क्षमता और सॉफ़्ट स्किल का अधिक महत्व समझ में आने लगता है. हमारे शोध कार्य से पता चलता है कि प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम और सॉफ़्ट स्किल के बीच असंतुलन है, लेकिन अगली पंक्ति के अधिकारी काम पर जाने के बाद इसे उपयोगी पाते हैं.
दूसरी बात यह है कि सामुदायिक पुलिस सेवा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और पुलिस की संगठनात्मक प्रकृति में इसे समन्वित किया जाना चाहिए. प्रशिक्षण अकादमियों में सामुदायिक पुलिस सेवा के लिए बहुत कम समय रखा जाता है, लेकिन दैनंदिन की फ़ील्ड की स्थितियों में इसकी अक्सर ज़रूरत पड़ती है और संकट के समय तो बहुत बार ज़रूरत पड़ती है. सांप्रदायिक तनाव को कम करने के लिए भारत के सभी राज्यों में प्रभावी सामुदायिक पुलिस सेवा के अभ्यास के अनेक मामले सामने आये हैं. लेकिन अक्सर इस तरह के मामले स्थानीय होते हैं और तदर्थ रूप में जनोन्मुखी पुलिस कार्रवाई और पहल करके उन्हें निपटा लिया जाता है, लेकिन पुलिस के इन श्रेष्ठ कार्यों से सीख लेकर उन्हें व्यापक रूप से संगठनात्मक कार्य दिशा में प्राथमिकता देने में कमी रह जाती है. निर्धारित बजट के साथ-साथ सामुदायिक पुलिस सेवा के लिए कहीं अधिक व्यावहारिक फ़ील्ड-आधारित प्रशिक्षण, नियमित निगरानी और सहयोग की आवश्यकता है. नागरिक एजेंसियों के पास इसकी अपनी विशेषज्ञता और नैटवर्क होता है. पुलिस, खास तौर पर दुर्लभ समुदायों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए अपनी इस विशेषज्ञता और सामाजिक सरोकार से जुड़ाव का लाभ उठा सकती है.
अंततः इस बात की बेहद आवश्यकता है कि पुलिस एजेंसियों को राज्य की योजना प्रक्रिया से संबद्ध किया जाए. ऐसा करके पुलिस सेवा और विकास के व्यापक लक्ष्यों के बीच संपर्क सूत्रों को चिह्नित करने में नीति-निर्माताओं को मदद मिल सकती है और अंतःअभिकरणों के समन्वय में सुधार लाया जा सकता है. संभावना तो है कि कोविड-19 से राज्य के विभिन्न प्रभाग सीख ले सकेंगे.
विभिन्न कार्यक्षेत्रों से संबंधित संस्थागत जुड़ाव की श्रृंखला के उपयोग से महामारी के विषाणु के संचार से रोकने, जन स्वास्थ्य के संरक्षण और लोकजीवन को पोषित करने के उपक्रम जितनी प्रभावी क्षमता रखते हैं, उतनी कमज़ोरियों से भी ग्रस्त हैं. संस्थागत क्षमता और लचीलेपन के लिए पुलिस की सामाजिक भूमिका का संज्ञान लेते हुए पुलिस और राज्य के संगठनों को परस्पर मिलकर और गैर सरकारी संगठनों और नागरिकों के साथ सहयोग की भावना से काम करना होगा.
अक्षय मंगला ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय कारोबार के सह प्रोफ़ेसर हैं.
विनीत कपूर भारतीय पुलिस सेवा (मध्य प्रदेश) के सदस्य हैं और मध्य प्रदेश पुलिस अकादमी के उप निदेशक हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919