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पाइप की राजनीतिः विश्व स्तर की ढाँचागत सुविधाएँ और शहरी विकास

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21/04/2014
लीज़ा ब्यॉर्कमैन

सन् 1991 में जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने बंबई को सिंगापुर की तरह “विश्व स्तर का शहर” बनाने की योजना का श्रीगणेश किया था, तब से बंबई (अब मुंबई) शहर की सूरत में नाटकीय परिवर्तन होता रहा है. अंतर्राष्ट्रीय नीति संबंधी वार्ताओं से उत्साहित होकर सभी प्रकार के राजनैतिक, सामाजिक और वास्तविक संघर्षों के बाज़ार आधारित समाधानों की सिफ़ारिश करते हुए बंबई के योजनाकारों, राजनीतिज्ञों, भूस्वामियों और संभ्रांत व्यापारियों ने मिलकर शहरी ज़मीन और संसाधनों को सुलभ कराने के लिए लंबे समय से चले आ रहे सभी राजनैतिक संघर्षों और उन तमाम संघर्षों को भी जिन पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी शहरी विकास की योजनाओं को लागू करने के लिए संकोच किया जाता रहा है, सुलझाने का काम बाज़ार को सौंपने का निर्णय कर लिया.

विनियामक लिखतों और बाज़ार तंत्र की नयी प्रणाली को संस्थागत स्वरूप देकर उदारीकरण युग के नीति-निर्माताओं ने शहर का कायाकल्प करने के लिए निजी क्षेत्र को शामिल करने का संकल्प किया. तब से लेकर अब तक मुंबई में निर्माण, तोड़फोड़ और विकास का एक ऐसा दौर चल रहा है जिसमें कामगारों के मुहल्लों और पुराने ढाँचों को लगातार बुलडोज़ करते हुए नये-चमचमाते मॉल, टॉवर, विशालकाय ढाँचागत परियोजनाओं और विलासपूर्ण आवासीय कम्पाउंड के लिए मार्ग प्रशस्त किया जाता रहा है और उसके साथ-साथ शहर की परिधि के इर्द-गिर्द पुनर्वास हाउसिंग के क्लस्टर खड़े होते जा रहे हैं.

फिर भी शहरी विकास और तेज़ी से बढ़ते आर्थिक विकास की भारी कीमत भी हमें इस अद्भुत दशक में चुकानी पड़ी है. मुंबई में आये इस बदलाव के कारण शहर की जल-व्यवस्था का मूलभूत ढाँचा पूरी तरह से चरमराने लगा है. न केवल मुंबई के 60 प्रतिशत बाशिंदे जो “झुग्गी-झोंपड़ियों” ( जहाँ नगर निगम के पानी की सप्लाई न तो उन्हें कानूनी तौर पर ही मिल पाती है और न ही असल में मिलती है) में रहते हैं, बल्कि संभ्रांत लोगों के घरों के नल भी कभी-कभी बिना पानी के सूखे पड़े रहते हैं. मुंबई के अमीर लोग भी पानी की खरीद और सप्लाई से अपना गुज़ारा करने को विवश होते हैं और निजी क्षेत्र के लोग स्वयं अपनी व्यवस्था करके, भाड़े पर परिवहन कंपनियों से मिलकर, कुएँ खोदकर और विशालकाय ऑन-साइट रीसाइक्लिंग प्लांट और फ़िल्टर प्रणाली के द्वारा पानी की व्यवस्था करते हैं. हर रोज़ पानी के हज़ारों टैंकर ट्रक पानी की टपकती बूँदों के साथ ट्रैफ़िक-जाम से अटी पड़ी सड़कों से गुज़रते हुए झुग्गी-झोंपड़ियों और महँगे होटलों में समान रूप से पानी की सप्लाई करते हैं.  

शहर के बड़े राजनैतिक दल हाई प्रोफ़ाइल ढंग से एक-दूसरे से आगे बढ़कर प्रवासी-विरोधी आंदोलन चलाकर शहर के सबसे गरीब लोगों पर दोषारोपण करते रहे हैं और उन्हें यह कहकर धमकाते रहे हैं कि मुंबई में उनकी उपस्थिति के कारण ही यहाँ के बुनियादी ढाँचे पर भारी बोझ पड़ा है और एक दूसरे पर यह दोष भी मढ़ते रहे हैं कि ग्राहकीय विनिमय के तौर पर गरीबों का वोट पाने के लिए कई दल उन्हें पाइपों के साथ छेड़-छाड़ करने की इजाज़त भी देते रहे हैं. टैंकर के ट्रकों, पानी के बिना गले-सड़े पाइपों और राजनैतिक नौटंकियों के कारण मुंबई के समाचार रिपोर्टरों की फ़ौज को अपनी कल्पना के घोड़े दौड़ाने के लिए अच्छा-खासा मसाला मिल जाता है और वे “वाटर माफ़ियाओं,” “चोर प्लंबरों,” “संरक्षण देने वाले राजनीतिज्ञों,” और “भ्रष्ट इंजीनियरों”  पर नियमित रूप में कुछ न कुछ लिखते रहते हैं.

मुंबई के सूखे नलों की दुर्दशा से लोग बौखला जाते हैं, क्योंकि भारत की यह वित्तीय और व्यावसायिक राजधानी भारत का लगभग 75 प्रतिशत जीडीपी कमाती है, भारत की 75 प्रतिशत शेयर बाज़ार की गतिविधियाँ यहीं संपन्न होती हैं और देश का लगभग एक तिहाई कर-राजस्व यहीं से मिलता है. राष्ट्रीय औसत की लगभग तीन गुना प्रति व्यक्ति आय के साथ मुंबई के रियल इस्टेट का मूल्य मैनहाटन से किसी भी रूप में कम नहीं है.  इस शहर में वित्तीय संसाधनों की कोई कमी नहीं है. इन संसाधनों से शहर के मूलभूत ढाँचे से संबंधित कमियों को दूर किया जा सकता है और नगर निगम के खातों से सचमुच यह पता भी चल जाता है कि शहर के लिए अपेक्षित पानी और सीवरेज के बजट की रकम खर्च ही नहीं की जाती. जहाँ तक पानी का संबंध है, इंजीनियरों के अनुसार मुंबई में पानी की कोई किल्लत नहीं है.यहाँ पर पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता (और लीकेज का अनुमानित स्तर) लंदन ( न्यूयॉर्क के बराबर तो न सही) के समकक्ष है. यदि संसाधनों की कमी नहीं है तो मुंबई में पानी की अनियमित सप्लाई का मतलब क्या है?

यद्यपि मुंबई को “विश्व स्तर” का शहर बनाने के प्रयासों के कारण ही ज़मीनी सतह से ऊपर का भूदृश्य तेज़ी से बदल रहा है, फिर भी इस कायाकल्प को सुगम बनाने के लिए बाज़ार की हरकतों के कारण ही शहर के वाटर पाइपों पर कहर बरस रहा है. मौके पर बाज़ार के मोल-भाव की अस्थायी प्रकृति के कारण निर्मित स्थान और आबादी के घनत्व के भूगोल पर और उसके कारण पानी की माँग पर असर पड़ता है, जिसकी वजह से शहर की विकास योजना और नियंत्रण संबंधी नियमों में प्रक्षेपित (और अनुमत) पानी की माँग में बदलाव आता रहता है. इस प्रकार मुंबई शहर में ज़मीनी सतह के ऊपर और नीचे बहने वाले पानी के प्रवाह में अंतर आ गया है. यही कारण है कि यहाँ के वाटर पाइपों की अस्थिरता लगातार बढ़ती जा रही है.

इंजीनियरों के अनुसार मुंबई शहर में समग्र रूप में पानी की कोई कमी नहीं है; चुनौती सिर्फ़ यही है कि अप्रत्याशित माँग (जो निरंतर बदलती रहती है) के अनुरूप पानी के प्रवाह को कैसे बनाया रखा जा सके. इसका परिणाम यह हुआ है कि मुंबई में पानी का प्रवाह अनिश्चित, अस्थिर और अक्सर अविश्वसनीय हो गया है और तुर्रा यह कि इसके विन्यास को समझना भी मुश्किल लगता है.  समकालीन मुंबई में पानी को प्रवाहित करने के लिए गहरे अंतर्ज्ञान और शहर की जटिल और गतिशील,सामाजिक, राजनैतिक और जलीय भूदृश्य में निरंतर हस्तक्षेप की आवश्यकता बनी रहती है. हर रोज़ ही पानी की सप्लाई के कारण व्यापार, दलाली,खुदरा बाज़ार और सामाजिक-राजनैतिक नैटवर्क की ढेर-सी बुनियादी गतिविधियाँ सम्पन्न होती हैं और रुक जाती हैं. इन्हीं गतिविधियों के कारण लोगों के जीवन में भारी बदलाव आता है और शहर की राजनैतिक शक्तियाँ नीचे गिरती हैं / ऊपर उठती हैं.

मुंबई का अस्पष्ट और अस्थिर जलविज्ञान ही आधारभूत सुविधाओं की बुनियाद है और इसी के कारण कुछ लोगों को राजनैतिक वर्चस्व मिलता है और पाइप व जल-प्रवाह का वास्तविक नियंत्रण ज्ञान, शक्ति और वास्तविक हैसियत के फैले हुए और अंदरूनी जमावड़े पर निर्भर करता है. “पाइप राजनीति” का यह शब्द विवाद के नये अखाड़े को इंगित करता है, जो मुंबई के जल संबंधी बुनियादी ढाँचे को सक्रिय बनाता है. यह विवाद मुंबई को “विश्व स्तर” का शहर बनाने की संभ्रांत लोगों की कोरी कल्पना के अस्थिर स्वरूप को दर्शाता है और इसके बजाय मुंबई के वास्तविक तौर पर मौजूद शहर के भारी विवादग्रस्त भविष्य की ओर इंगित करता है.

लीज़ा ब्यॉर्कमैन भारतीय समाजविज्ञान के 2014 के जोज़फ़ डब्ल्यू, ऐल्डर पुरस्कार की विजेता पाइप की राजनीतिः मुंबई का विवादग्रस्त जल (आगामी, ड्यूक विश्वविद्यालय प्रैस) की लेखिका हैं. वे जर्मनी स्थित गॉटनजैन के धार्मिक व जातीय विविधता अध्ययन के मैक्स प्लैंक संस्थान में अनुसंधान सहायक हैं.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>