जैसे-जैसे भारत कोविड-19 के वृत्त को समतल बनाने की कोशिश में आगे बढ़ रहा है, मुस्लिम-विरोधी उन्माद बढ़ता जा रहा है. हालाँकि यह उन्माद कोई नई बात नहीं है, लेकिन महामारी के दौरान इस उन्माद में भारी वृद्धि हुई है. मुसलमानों पर शारीरिक हमले, कॉलोनियों और गाँवों में उनके प्रवेश पर रोक लगाने के साथ देश-भर में यह अपील जारी की जा रही है कि कोई भी उनके साथ किसी तरह का कारोबार न करे.
ऐसे मुसलमानों पर भी हमले हुए हैं जो लॉकडाउन के कारण बेरोज़गारी और भुखमरी से जूझ रहे लोगों की मदद करने के लिए आगे आए थे. उनके साथ भेदभाव के मामले भी सामने आए हैं. कुछ भूखे लोगों ने वह खाना भी लेने से खुद ही इंकार कर दिया जिसे पकाने और वितरण में मुसलमानों का हाथ था. एक पत्रकार नताशा बधवार ने अपना अनुभव बताते हुए कहा, “ वह ग्रेटर नोएडा के एक बाहरी इलाके में निर्माण स्थल पर फँसे हुए कुछ बिहारी मज़दूरों को ड्राई राशन के किट बाँटने की तैयारी कर रही थी. चलने से पहले हमारे पास एक फ़ोन आया और उन्होंने जानना चाहा कि जो व्यक्ति आ रहा है, वह मुसलमान है या हिंदू. हमने उन्हें बताया कि वह भोजन बाँटने वाला व्यक्ति मुसलमान है. हमें लगा कि संकट के इस दौर में इससे बहस का नया मुद्दा शुरू हो जाएगा. उन्होंने राशन लेने से इंकार कर दिया. ”
पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टी की महासचिव कविता श्रीवास्तव (अपनी टीम के साथ) जयपुर और आसपास के इलाकों में भोजन बाँटने के एक बड़े अभियान में भी शामिल रही हैं. जब उनके कुछ स्वयंसेवक फ़ुटपाथ पर चाय लेने गए तो एक बुजुर्ग महिला ने उनसे पूछा कि क्या वे मुसलमान हैं और कहा कि अगर वे मुसलमान हैं तो उन्हें चाय नहीं मिलेगी. सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी के कुछ सभासदों ने मुसलमान फेरीवालों को खुलकर धमकी दी और इसका रिकॉर्ड भी मौजूद है.
हिंदुओं से भी कहा जा कहा है कि वे केवल हिंदुओं के साथ ही कारोबार करें. अचानक ही दुकानों और ठेलों पर हिंदू धर्म के प्रतीक चिह्न प्रदर्शित किये जाने लगे हैं. खतरा इस बात का है कि इसके कारण मुसलमान अनौपचारिक आर्थिक गतिविधियों से बाहर कर दिए जाएँगे। भारत में उनकी आमदनी का मुख्य स्रोत यही है. औपचारिक क्षेत्र में और सेवा क्षेत्र में तो पहले से ही उनकी उपस्थिति नहीं के बराबर है.
भारत के मुसलमानों को वायरस फैलाने वाले लोगों में अग्रणी ठहराया जा रहा है. मीडिया और सरकार दोनों ने ही मार्च में दिल्ली में आयोजित तब्लीगी जमात के जलसे को कोरोना वायरस फैलाने वाले मुख्य स्रोत के रूप में दर्शाया है, क्योंकि उसमें भाग लेने कई लोग विदेशों से आए थे. तब्लीगी जमात एक ऐसा संगठन है जो मुसलमानों को कुरान और नमाज़ पढ़ने और अन्य विशुद्ध धार्मिक कर्मकांड करने के लिए प्रोत्साहित करता है. दुनियादारी और यहाँ तक कि राजनीति से भी वे दूर रहते हैं. यह जमात सरकार से सहयोग करने के लिए भी जानी जाती है. सरकार ने उन पर आरोप लगाया है कि जब लोगों को वायरस फैलने की चेतावनी देने के लिए अलार्म की घंटी बजनी शुरू हुई तो ये लोग इकट्ठा होकर आपराधिक वारदात को अंजाम दे रहे थे. यह सच है कि जमात के कुछ सदस्यों के साथ भारत के अलग-अलग हिस्सों में वायरस पहुँचा, लेकिन उन्होंने यह हरकत जान-बूझकर की, यह बेबुनियाद बात है.
मार्च से मुसलमानों के बारे में इस प्रकार की रिपोर्टें आती रही हैं कि मुसलमानों को अस्पतालों में भर्ती नहीं किया जा रहा है और इसी कारण कई मुसलमानों की मौत हो गई और तब्लीगी जमात से संबद्ध होने के कारण कुछ मुसलमानों को गिरफ़्तार कर लिया गया. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफ़ेसर मोहम्मद शाहिद की गिरफ़्तारी का कारण भी यही बताया गया कि वह भी तब्लीगी वारदात से संबद्ध थे. वह अभी तक जेल में हैं और उन्हें नौकरी से भी निलंबित कर दिया गया है.
मार्च में तब्लीगी जमात की घटना होने तक केंद्र सरकार ने न तो विदेश से भारत में प्रवेश पर कोई रोक लगाई थी और न ही तब तक लोगों के समागम पर रोक लगाई गई थी. मार्च के तीसरे सप्ताह में सरकार ने देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की थी. समागम में भाग लेने वाले बहुत-से तब्लीगी जमात के सदस्य वहीं फँस गए और आवागमन पर पाबंदी होने के कारण बाहर नहीं निकल पाए. मीडिया स्रोतों के अनुसार अधिकांश आरंभिक पॉज़िटिव मामले मार्च के समागम से जुड़े हुए थे. सत्तारूढ़ पार्टी के प्रचार तंत्र में मीडिया भी शामिल हो गया और तब्लीगी जमात को वायरस फैलाकर भारत को बर्बाद करने की साजिश रचने के लिए इस मुस्लिम संस्था को बदनाम किया जाने लगा. तब्लीगी जमात की सांस्कृतिक गतिविधियों से अधिकांश लोगों के अनजान होने के कारण लोगों को बरगलाना बहुत आसान हो गया कि तब्लीगी जमात एक सांप्रदायिक और राष्ट्रविरोधी संस्था है.
स्क्रोल के एक पत्रकार शोएब डेनियल ने कहा है कि पक्षपात पूर्ण नमूनों के कारण ही यह परिणाम निकाला गया कि अधिकांश पॉज़िटिव मामलों का मूल स्रोत तब्लीगी जमात के समागम की घटना ही थी. व्यवहारवादी और विकासवादी अर्थशास्त्री, सौगतो दत्ता ने यह स्पष्ट किया है कि यह तथ्य भ्रामक है कि समग्र रूप में पॉज़िटिव मामलों का एक बड़ा अनुपात दिल्ली के समागम की घटना से संबद्ध था. “चूँकि इस क्लस्टर के लोगों की जाँच बहुत बड़े पैमाने पर हुई और समग्र परीक्षण का अनुपात बहुत कम था, इसलिए इस बात में हैरानी नहीं होनी चाहिए कि समग्र पॉज़िटिव मामलों का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस क्लस्टर से संबद्ध पाया गया.”
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और दिल्ली सरकार की दैनिक प्रैस वार्ता में मार्च में तब्लीगी जमात के समागम से संक्रमित लोगों की अलग-अलग सूची दी गई है और इसके कारण संपूर्ण मुस्लिम समुदाय को कलंकित कर दिया गया है. यह आरोप इतना गंभीर था कि दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष ज़फ़रूल इस्लाम खान ने दिल्ली के स्वास्थ्य विभाग के सचिव को लिखा कि, “ बिना सोच-विचार के किये गए इस प्रकार के वर्गीकरण से मीडिया और हिंदुत्ववादी शक्तियों को मुस्लिम विरोधी घृणा का एक ऐसा एजेंडा मिल गया है जिसके बहाने देश-भर में मुसलमानों पर हमले किये जा सकते हैं.”
इस दुष्प्रचार ने अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान भी आकर्षित किया है. मध्य पूर्व के अग्रणी अखबारों ने मुखर शब्दों में महामारी के लिए बलि का बकरा ढूँढने के नाम पर भारत में मुस्लिम-विरोधी दुष्प्रचार पर नाराज़गी ज़ाहिर की है. विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य एजेंसियों ने बलि का बकरा खोजने और इस प्रकार की विभाजक और नफ़रत फैलाने वाली वारदातों को रोकने की माँग की है, लेकिन उनकी इस माँग के बावजूद “कोरोना जिहाद” नाम से एक नया शब्द गढ़ लिया गया है, जिसका अर्थ है बदनीयती के साथ मुसलमानों द्वारा फैलाया जाने वाला एक वायरस. सोशल मीडिया पर यह बहुत लोकप्रिय हो गया है. 28 मार्च से ट्विटर पर हैशटैग # कोरोना ज़िहाद 300,000 से अधिक बार दिखाई पड़ा है और इसे अब तक 165 मिलियन लोग देख चुके हैं.
सब्ज़ियों और सड़कों पर थूकते हुए और मस्जिदों में भीड़-भाड़ करते मुसलमानों के फ़र्जी चित्र साइबर दुनिया में प्रचारित किये जा रहे हैं और प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया भी इस निंदा अभियान में शामिल हो गया है. अधिकांशतः मुस्लिम देशों में रहने वाले कुछ हिंदू भी इसमें शामिल हैं. “इस साइबर रणनीति के कारण इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) ने विवश होकर भारत सरकार से अनुरोध किया है कि वह भारत में ‘मुस्लिम विरोधी घृणा के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए हस्तक्षेप करे.”
भारत में मुसलमानों के खिलाफ़ इस प्रकार का विषैला दुष्प्रचार कोई नई बात नहीं है. जब महामारी गंभीरता से अपनी जड़ें जमा रही थी, उस समय दिल्ली सबसे भयानक मुस्लिम विरोधी दंगे से उबरने की कोशिश में लगा था. ये हिंसक दंगे भाजपा के वरिष्ठ मंत्रियों और नेताओं के लंबे समय से चले आ रहे नफ़रत-भरे आंदोलन की परिणति थे. उन्होंने नये नागरिकता कानून (CAA) का विरोध करने वाले उन मुसलमानों के खिलाफ़ हिंदुओं को भड़काया, जो यह मानते थे कि यह कानून उनके साथ भेदभाव करने वाला है और साथ ही जो नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर बनाने की सरकारी कार्रवाई और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का विरोध कर रहे थे. इस कार्रवाई को वरिष्ठ न्यायविदों और संविधान विशेषज्ञों ने न केवल मुस्लिम-विरोधी बताया, बल्कि भारतीय संविधान की भावना के विपरीत भी पाया. जब 2019 में मुसलमानों ने इसका विरोध किया तो उन्हें भारत विरोधी और राष्ट्र विरोधी बताकर बदनाम किया गया. इन विरोध प्रदर्शनों को देश और इसके स्वाभाविक निवासी हिंदुओं के अपमान के रूप में देखा गया. और जहाँ ये विरोध प्रदर्शन शांतिपूर्ण थे और संविधान के अंतर्गत मुसलमानों के अधिकारों के सवाल उठाये गये थे, वहाँ मीडिया और भाजपा ने इसे भारत-विरोधी साजिश का हिस्सा बताया. ऐसे समय में भारत में कोविड-19 के हमले ने मुस्लिम-विरोधी उन्माद को और हवा देने के लिए मानो सुविधाजनक हथियार प्रदान कर दिया.
भाजपा के छह साल के शासनकाल में मुस्लिम विरोधी नफ़रत और हिंसा की वारदातों में बढ़ोतरी ही हुई है. इसके कारण अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता संबंधी संयुक्त राज्य आयोग (USCIRF) सहित अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं ने इसकी निंदा करते हुए अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित अपनी वार्षिक रिपोर्ट के 2020 के संस्करण में यह टिप्पणी की थी कि सन् 2019 में भारत में धार्मिक स्वतंत्रता को बहुत गहरी चोट पहुँची थी और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमले भी बढ़ते चले गए. वस्तुतः अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता संबंधी संयुक्त राज्य आयोग (USCIRF) ने तो अपने राज्य विभाग को यहाँ तक कह दिया था कि भारत को तेरह अन्य देशों के साथ विशेष चिंता वाले देशों की श्रेणी में शामिल कर लिया जाए.
पटना (बिहार) में रहने वाले मेरे एक विद्यार्थी ने हाल ही में मुझे बताया कि मुस्लिम-विरोधी भावना समाज में इतनी गहरी समा गई है कि अब उससे उबरना कभी-भी संभव नहीं हो पाएगा. हरियाणा के मेरे एक युवा पत्रकार मित्र ने सोशल मीडिया पर मुसलमानों पर गालियों की बौछार करने वाली पोस्ट और हैशटैग को मुझसे साझा किया और दुःख व्यक्त किया कि दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि इसमें किशोर वय के युवा भी भाग लेने लगे हैं. इन तमाम बातों के कारण युवा मुसलमानों में नया संकल्प जगने लगा है और वे कानूनी और शांतिपूर्ण उपायों से सरकार की ताकत के खिलाफ़ लड़ने के लिए प्रतिबद्ध हैं. लेकिन राज्य की ताक़त उनके ख़िलाफ़ है ।उत्तर प्रदेश सरकार ने घोषणा की है कि वह जान-बूझकर वायरस फैलाने वाले लोगों को दोषी पाये जाने पर आजीवन कारावास का दंड देने के लिए एक कठोर कानून बनाने जा रही है. यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह नया कानून मुसलमानों को ही निशाना बनाएगा .
अगर भारत को एक राष्ट्र के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखना है तो भारत के राजनैतिक दलों को साहस के साथ मुस्लिमविरोधी घृणा और अल्पसंख्यकविरोधी राजनीति के खिलाफ़ खुलकर आवाज़ उठानी होगी. उन्हें अपने हिंदू मतदाताओं को बताना होगा कि आपस में एक-दूसरे से जुड़ी हुई आज की दुनिया में कोई भी व्यावहारिक और दुनियादारी का काम करने के लिए इस प्रकार की नफ़रत बेहद नुक़सानदेह सिद्ध हो सकती है. इन तमाम व्यावहारिक कारणों से भी ज़्यादा ज़रूरी है भारत को गाँधी की तरह हिम्मत जुटाकर अल्पसंख्यकों के साथ मज़बूती से खड़ा होना होगा और बहुसंख्यकवाद के खिलाफ़ कमर कसनी होगी.
अपूर्वानंद दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफ़ेसर हैं. वह CASI 2010 में विज़िटिंग स्कॉलर रहे हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919