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किसान के नाम पर

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03/01/2012
मेखला कृष्णमूर्ति
IiT English Page: 

भारत के कृषि विपणन और वितरण प्रणाली में थोक बाज़ारों या मंडियों की विशेष भूमिका है.इस प्रकार भारतीय कृषि के भविष्य के बारे में होने वाले महत्वपूर्ण वाद-विवाद में महत्वपूर्ण तत्व हैं, खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने की और खाद्य संबंधी मुद्रास्फीति के प्रबंधन की चुनौतियाँ और राष्ट्र के खाद्यमार्गों के विशाखन के चरित्र और नियंत्रण पर उठते प्रश्न. राज्य के विपणन संबंधी विभिन्न अधिनियमों के अंतर्गत स्थापित और स्थानीय रूप में गठित कृषि उपज विपणन समितियों (APMCs) के प्रबंधन के अंतर्गत मंडी ही किसानों और उनकी उपज के पहले खरीदारों के बीच “पहला महत्वपूर्ण लेन-देन” होता है.

इसके अनेक आलोचकों के अनुसार समस्या यह है कि मंडियों ने प्राथमिक उत्पादकों के हितों के संरक्षण के बजाय राजनीतिकरण और प्रतिबंधात्मक विनियामक ढाँचे को बढ़ावा दिया और इसके कारण व्यापारिक नियंत्रण और साँठगाँठ को बल मिला और इसका फल यह हुआ कि बिखरी हुई और अकुशल सप्लाई श्रृंखला के दोनों ही सिरों, किसान और उपभोक्ता की स्थिति बदतर हो गई. .    उच्चतम स्तर पर नीतिनिर्माताओं के समर्थन से समधान यही हो सकता है कि राज्य सरकारें इस क्षेत्र में कायाकल्प करने के लिए भारतीय और वैश्विक निगमों से सीधे निवेश कराने के लिए अपने APMC अधिनियमों में संशोधन करें. इसके विरोध में भी उतने ही तीव्र स्वर उठने लगे. उऩका तर्क यह था कि भारत के किसानों की दुर्दशा को सुधारने के नाम पर इन मंडियों के दरवाज़े खोलने का अर्थ यही होगा कि कृषि के थोक व्यापार को वैश्विक कृषि व्यापारियों के हवाले कर देना,जिसका परिणाम होगा, लाखों छोटे किसानों, व्यापारियों और खुदरा व्यापारियों के स्थानीय नियंत्रण और आर्थिक अवसरों को रौंद कर खत्म कर देना. दुर्भाग्यवश किसान नीति संबंधी बड़ी-बड़ी बहसों में तो अक्सर उलझे रहते हैं, लेकिन वे इस बात को नहीं समझ पाते कि उनके कृषि संबंधी परिवेश में, पण्य प्रणाली में और विपणन संबंधी गतिशीलता में बहुत विविधता और भिन्नता है, जिससे वे लगातार जूझते रहे हैं. इस धुवीकृत बहसों में विविधता और जटिलता को बहुत महत्व नहीं मिला, लेकिन उसकी महत्ता को पूरी तरह से स्वीकार न कर पाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्थव्यवस्था के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में जो प्रायोगिक अनुसंधान कार्य हो रहे हैं उनका आधार बहुत सीमित है. इसका कारण यह भी है कि कृषि की मंडियों का विश्लेषण इतना आसान नहीं है या फिर वे उपलब्ध सांख्यिकीय आँकड़ों की चमक-धमक से बहुत दूर हैं. इन असंबद्ध और गतिशील मंडियों की कार्यपद्धति को समझने के लिए खास क्षेत्रों, विनियामक व्यवस्थाओं और मंडियों के स्थानों का गहन अध्ययन करना होगा.

मेरे अनुसंधान कार्य में मध्य प्रदेश के तीन दशकों (1980-2010)  के कृषि विपणन संबंधी सुधारों और ज़मीनी स्तर पर उनके कार्यान्वयन के साथ-साथ उनके विविध अनुभवों और प्रभावों को भी समेटा गया है. व्यापक और जटिल परिवर्तनों का विस्तार से अध्ययन करने के लिए मैंने हरदा कस्बे में स्थित मुख्य रूप से सोयाबीन और गेहूँ उगाने वाले ज़िले की एक मंडी में अठारह महीने तक मानव जाति संबंधी फ़ील्डवर्क किया. फ़ील्ड से प्राप्त तीन महत्वपूर्ण निष्कर्षों से APMC सुधारों पर चलने वाली बहस को उत्पादक परिप्रेक्ष्य से जोड़ा जा सकता है.

जुताई, ऋण और पण्य बाज़ार
विनियमित बाज़ार का मुख्य प्रावधान यह है कि इसमें किसानों को आज़ादी होनी चाहिए कि वह प्रतिस्पर्धी बाज़ार में अधिक से अधिक बोली लगाकर अपनी उपज को बेच सके. इस प्रावधान में यह वायदा किया गया था कि पण्य विपणन से कृषि ऋण को अलग रखा जाएगा. वास्तव में अधिकांश किसानों को “अंतर्पाशित लेन-देन” से संतुष्ट होना चाहिए क्योंकि इससे उन्हें अपनी पसंद के अनुसार बेचने का अवसर मिलता है और वह अपनी उपज किसे, कहाँ और कब बेचने के लिए स्वतंत्र होता है. यह बात विभिन्न क्षेत्रों और पण्य बाज़ारों पर भी लागू होती है. इन संपर्कों से ही बाज़ारों का संगठन और खास तौर पर अतंर-मध्यस्थता का स्पष्ट स्वरूप भी उभरता है और इन्हें एक निश्चित हद तक विनियमित या हटाए जा सकने वाले प्रयासों का विरोध किया जा सकता है. मंडी प्रणाली के अंदर कच्चे आढ़तिया ही लंबे समय से ग्रामीणों को कर्ज़ देने, किसानों के साथ टूटे संबंधों को फिर से बनाने और एक निश्चित कमीशन पर उपज को बेचने की व्यवस्था करने का मुख्य काम करते रहे हैं. 

हरदा में अस्सी के दशक के आरंभ में कच्चे आढ़तियों को मंडी से जबरन हटा दिया गया था. राज्य सरकार द्वारा की गई सम्मिलित कार्रवाई के कारण ही उनकी “क्रांतिकारी बेदखली” की गई थी.     परंतु विपणन प्रणाली से उनका निष्कासन कृषि उत्पादन में भारी मात्रा में सार्वजनिक और निजी निवेश के कारण हो पाया था और इस मामले में तो नहरों से की जाने वाली अधिकाधिक सिंचाई और सोयाबीन की नई नकदी फसल इसके मुख्य कारण थे. जैसे-जैसे उत्पादन बढ़ता गया और नई पण्य प्रणाली की पकड़ मज़बूत होती गई, पुराने कच्चे आढ़तियों के निष्कासन के साथ मंडी में व्यापारियों का स्वरूप बदलता गया और अधिकांश किसानों की पहुँच ऋण के औपचारिक और अनौपचारिक स्रोतों से हो गई जिससे वे अपने अनाज से सीधे जुड़ गए. इसके विपरीत,जब मंडी के संचालकों ने ताज़े फलों और सब्ज़ियों के स्थानीय बाज़ार पर भी सफलता का यही फ़ार्मूला आज़माना चाहा तो आढ़तियों को कुछ समय तक ही बेदखल किया जा सका, लेकिन उन्हें पूरी तरह से हटाया नहीं जा सका. संबद्ध और व्यवस्थित प्रणालियों के अभाव में आढ़तिया नीलामी का काम फिर से करने लगे और इसी मंडी में नाशवान् माल के विक्रेताओं और खरीदारों को कर्ज़ देते हुए सब्ज़ी मंडी  पर उनका नियंत्रण बना रहा.  

स्थानीय कार्यकर्ता, अग्रणी नेता और विपणन प्रक्रियाएँ
उत्पादन और खेती की आमदनी से स्वतः ही मंडी के अंदर शक्ति के संबंधों में कायाकल्प नहीं हो जाता. सभी मंडियों में शक्ति की निरंतर अभिव्यक्ति और समझौते ठोस विपणन प्रक्रियाओं के व्यवहार से और विभिन्न सामग्रियों और प्रौद्योगिकियों के माध्यम से ही संपन्न होते हैं.पिछले दस वर्षों में हरडा मंडी में बाज़ार के बुनियादी ढाँचे और प्रणालियों को लेकर अनेक नाटकीय सुधार हुए हैं. इसमें सबसे अधिक उल्लेखनीय है, मध्य प्रदेश में पहले इलैक्ट्रॉनिक काँटे (वेब्रिज) की संस्थापना. इससे नाटकीय रूप में अनाज की चोरी की वारदातों में कमी आ गई. इससे पहले वजन तोलने का काम हाथ से ही किया जाता था और उसमें काफ़ी बेईमानी होती थी और किसानों के प्रतीक्षा के समय में भी कमी आ गई. अभी हाल ही में हरदा में सरकारी गेहूँ की वसूली के मौसम में भारी आवकों और मंडी का प्रबंधन करने के लिए SMS-आधारित प्रणाली शुरू की गई है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यार्ड स्तर के सुधारों की शुरूआत APMC के चुने गए अध्यक्ष और मंडी के अनुभवी सचिवों जैसे गतिशील अग्रणी नेताओं द्वारा की गई. स्थायी स्थानीय कार्यकर्ताओं के रचनात्मक प्रयासों के बिना इन्हें कार्यान्वित नहीं किया जा सकता था, लेकिन दिलचस्प बात तो यह है कि इनकी नियुक्ति तभी हुई थी जब व्यापारी मंडी पर अपनी पकड़ को मज़बूत करने में लगे थे और कुछ समय पहले तक आज का “मॉडल” APMC  दूर की कौड़ी लगती थी.  कर्मचारियों की मंडी की प्रक्रिया के संबंध में गहन व्यावहारिक जानकारी और सामाजिक गतिशीलता के कारण ही व्यावहारिक रूप में जटिल माइक्रो-आविष्कार का कार्यान्वयन संभव हो पाया था.   एक बार कार्यान्वित हो जाने के बाद किसानों की आकांक्षाओं और आंदोलनों के कारण इन परिपाटियों का नियमित रखरखाव और निगरानी भी सुनिश्चित हो गई.

प्रतिस्पर्धा और तुलनात्मक लाभ
हरदा में मंडी के बुनियादी ढाँचे और प्रक्रियाओं में जो सुधार हुआ है, वह केवल स्थानीय पहल के कारण ही नहीं, बल्कि सक्रिय प्रतिस्पर्धा के कारण भी हुआ है. एक दशक पहले मध्य प्रदेश उन राज्यों में से एक था, जिसने मंडी के बाहर निजी एकल-खरीदार यार्डों की स्थापना के लिए APMC  अधिनियम में संशोधन किया था ताकि ITC ई-चौपाल नाम की अपनी सुप्रसिद्ध पहल की शुरूआत कर सके और अपने नेटवर्क के अंदर ही किसानों से सीधे पण्यों की वसूली कर सके. इस निर्णय का व्यापारियों ने पुरजोर विरोध किया था,लेकिन जैसे ही हब ने अपना काम शुरू किया तो हरदा के व्यापारियों ने स्वीकार किया कि उन पर उनकी प्रणालियों को बदलने का भी काफ़ी दबाव था. महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके कारण छोटे उत्पादकों सहित सभी किसानों के लिए विपणन की स्थितियों में सुधार हुआ, जिन्हें ITC के लिए अपने नेटवर्क के अंदर लाना आम तौर पर बहुत कठिन होता था, लेकिन अब वे मंडी में अपनी सोयाबीन की उपज और गेहूँ को लाकर बेच सकते हैं. गहन विश्लेषण से मंडियों और निजी वसूली चैनलों के बीच का बुनियादी अंतर भी स्पष्ट हो जाता है. उदाहरण के लिए चूँकि ITC  अनिवार्यतःनिगम की बदलती हुई रणनीति के अनुरूप ही चौपालों का संचालन करता है, इसलिए वसूली की मात्रा हर मौसम में बदलती रहती है और कभी-कभी तो किसी वर्ष में वे किसी खास मंडी से ही नदारद हो जाते हैं. चौपालें अनिवार्यतःफसल कटने के बाद ही खरीद के स्थलों पर कार्य करती हैं और किस्मों और गुणवत्ता की विशिष्टियों के आधार पर एक समय में एक ही पण्य की वसूली करती हैं. जो बात ITC के लिए सही है वह सरकारी गेहूँ की वसूली के काम के लिए भी सही है,क्योंकि वसूली  का यह काम अवधि और स्थानों तक ही सीमित  रहता है और इसकी मात्रा में भी अंतर रहता  है.इसके विपरीत, मंडी एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ सभी किसान साल भर अलग-अलग गुणवत्ता के अनेकानेक पण्यों की बिक्री कर सकते हैं और इसके साथ-साथ खुली नीलामी में अलग-अलग आकार के लाइसेंसशुदा खरीदार भी इकट्ठा होते हैं.इसलिए हमें एकल-खरीदार वाली हबों से विनियमित मार्केट यार्डों को जोड़ने की गल्ती नहीं करनी चाहिए, बल्कि  हमें उनकी अलग-अलग भूमिकाओं और पहुँच को समझना चाहिए. इस प्रकार निश्चय ही हमें नये विकल्प लाकर किसानों को अधिक से अधिक विकल्प देने चाहिए.साथ ही आवश्यकता इस बात की भी है कि हम नई व्यवस्था को मज़बूत करें और पुरानी व्यवस्था को बंद करने के बजाय उसमें सुधार लाकर उसे और अधिक विकसित  करें.

मेखला कृष्णमूर्ति भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (CASI) में डॉक्टरोत्तर अनुसंधान फ़ैलो हैं.


हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@hotmail.com>