सारे विश्व में और निश्चित रूप से भारत में भी इंटरनैट से संबद्ध मीडिया के कारण राजनीतिक भागीदारी के क्षेत्र में नई आशा का संचार हुआ है और सार्वजनिक बहस और राजनीतिक सक्रियता के नये अखाड़े खुल गए हैं. हाल ही के अनुमान दर्शाते हैं कि भारत में लगभग 350 मिलियन इंटरनैट के उपयोक्ता हैं और पहुँच और संख्याबल की दृष्टि से देखें तो हम केवल चीन और अमरीका के ही आसपास हैं.
राजनीति के क्षेत्र में नये मीडिया की क्षमता ने “डिजिटल ज्ञानोदय” और सामाजिक भेदभाव से ऊपर उठने के लिए समान पद वाले सहकर्मियों के नैटवर्क आर्किटैक्चर के संबंध में आशावादी स्वर की प्रेरणा दी है. आलोचकों ने भी झट से इस यूटोपिया पर वाद-विवाद शुरू कर दिया है और डिजिटल माध्यम की पहुँच और क्षमता को सीमित करने वाले तत्वों, जैसे, बाज़ार व सरकारी निगरानी और लिंग, वर्ग, वंश, जाति और धर्म की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है.
बढ़ते आशावाद और तीखी आलोचना के वातावरण में हम आखिर कैसे समझें कि भारत में डिजिटल राजनीति क्या है ? राजनीतिक भागीदारी के लिए नये मीडिया ने क्या किया है ? इस व्यापक प्रश्न का उत्तर यही है कि बहुत-सी राजनीतिक विचारधाराएँ सामने आ गई हैं. इनमें सामाजिक दृष्टि से हाशिये पर आए दलित समुदायों के लिए उभरता वैकल्पिक मीडिया भी है. दिल्ली में बलात्कार की वारदातों को लेकर होने वाले विरोध प्रदर्शनों, पिंक चड्ढी के अभियान और गुजरात के पाटीदार आंदोलन से लेकर जेएनयू के छात्र-असंतोष तक की हाल की घटनाओं से संबंधित संदेशों के आदान-प्रदान के लिए, समर्थन जुटाने के लिए और प्रचलित धारणाओं के प्रतिवाद के लिए लोग अधिकाधिक सामाजिक मीडिया पर निर्भर होने लगे हैं. सामाजिक मीडिया के अपने चैनल डर और आतंक भी फैलाते हैं और उनके कारण अफ़वाहों का बाज़ार भी गर्म होता है. ऐसी ही एक अफ़वाह के कारण उत्तर-पूर्व के भारतीय प्रवासी सामाजिक मीडिया पर यह संदेश पढ़कर और आपस में साझा करके बड़े-बड़े शहरों से भाग खड़े हुए कि वे बदले की कार्रवाई के शिकार होने वाले हैं.
आज नये मीडिया में इतनी विविधता आ गई है कि इसके एजेंडे में विकास, शासन और अवकाश जैसे विषय भी समाहित हो गए हैं. साथ ही अलग-अलग वर्गों के लोगों की ऑन-लाइन मीडिया तक पहुँच होने के कारण यह तस्वीर और भी जटिल हो गई है. इस जटिलता के बावजूद सामाजिक मीडिया के मंच पर मध्यम वर्ग का स्पष्ट रूप से अवतरण हुआ है और सार्वजनिक संवादों पर उसका प्रभाव भी दिखाई पड़ने लगा है. यह आवाज़ अब अधिकाधिक सुनी जाने लगी है, क्योंकि भारत में इंटरनैट के उपयोक्ताओं में इनकी संख्या सबसे अधिक है. इंटरनैट व मोबाइल ऐसोसिएशन ऑफ़ इंडिया (IAMAI) नामक एक व्यापारिक संस्था के अनुसार अक्तूबर, 2015 में इंटरनैट के 246 मिलियन उपयोक्ता शहरी भारत से थे, जबकि ग्रामीण भारत के उपयोक्ताओं की संख्या 129 मिलियन थी. सन् 2011 की रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में आधे से अधिक इंटरनैट कनैक्शन आठ बड़े शहरों में ही केंद्रित हैं. बड़े भारतीय शहरों के प्रतिनिधि के रूप में मुंबई स्थित भारतीय बाज़ार अनुसंधान ब्यूरो के अनुसार सन् 2013 में सामाजिक मीडिया के 6 मिलियन सक्रिय मीडिया उपयोक्ताओं में से लगभग 60 प्रतिशत उपयोक्ता उच्च आय वर्ग (मीडिया बाज़ार सर्वेक्षणों में सैक्शन ए और सैक्शन बी वर्ग) के थे. अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय भाषाओं की व्यावसायिक मीडिया संस्थाओं में साझा समाचार की प्रथाओं के कारण इन विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों में सामाजिक मीडिया पर होने वाले राजनीतिक संवाद को और भी प्रमुखता मिलने लगी है. टी.वी. चैनलों और समाचार पत्रों में दैनिक समाचार फ़ीड के रूप में ऑन लाइन बहस और हैशटैग प्रवृत्तियों के कारण नये मीडिया पर होने वाली बहस व्यापक सार्वजनिक क्षेत्र में पहुँच जाती है.
अपनी इस मुखरता के कारण सामाजिक मीडिया पर अक्सर बहस की यह संस्कृति और अधिक सक्रिय और उग्र हो जाती है और भारत 2.0 की यह पीढ़ी राजनीतिक दृष्टि से सतर्क और समझदार होने लगती है. मुंबई के अपने फ़ील्डवर्क के दौरान मुंबई के एक डिजिटल विज्ञापनदाता और राजनीतिक ट्वीटर ने भारत की इस नैट-पोषित पीढ़ी को चटपटे और मसालेदार ढंग से “स्टेरॉइड्स पर मध्यम वर्ग” का नाम दिया था.
मैंने अपनी पुस्तक Making News in Global India: Media, Publics, Politics में यह दर्शाया है कि बड़े-बड़े व्यावसायिक समाचार मीडिया “परस्पर संवादपरक” होने के दबाव में होने के कारण और “पारदर्शी शासन” के सुधारवादी भाषणों के प्रभाव में आकर राज्य से “सर्विस डिलीवरी” और भ्रष्टाचार-मुक्त शासन की माँग करने के लिए पाठकों और दर्शकों को नागरिक अभियानों से जोड़ने के प्रयास में जुटने लगे हैं. लीगेसी पावर को और आगे बढ़ाने में नये मीडिया की क्षमता के आधार पर ऑन लाइन संपर्क और वैश्विक रूप में बढ़ते साझे विश्वास के साथ यह मध्यस्थ सिविक एजेंसी, वैश्विक शक्ति के रूप में आगे बढ़ने की भारत की आकांक्षा को और बल दे रही है. इसके परिणामस्वरूप प्रौद्योगिकी, बाज़ार और उपयोक्ता प्रथा के एक साथ आने से मध्यम वर्ग के ऑन लाइन उपयोक्ता, महत्वपूर्ण राजनीतिक कार्यकर्ताओं के रूप में उभरने लगे हैं. साथ ही साथ, राज्य का समर्थन पाकर इस एजेंसी के दो चेहरे हो गए हैं: एक चेहरा है उदारवाद के उत्तर-नेहरूवाद के मॉडल का और दूसरा चेहरा हिंदू राष्ट्रवाद से जुड़ा है. हालाँकि वे विभिन्न प्रकार के मुद्दों को लेकर चलते हैं, फिर भी इन मुद्दों के बीच भ्रष्टाचार-मुक्त भारत और प्रौद्योगिकीय आधुनिकता के स्वर उभरते ही रहते हैं. समान सूचनापरक कौशल का उपयोग करके वही ऑन लाइन उपयोक्ता इसे बढ़ावा देने में लगे रहते हैं. यह अस्पष्टता और साझा साइबर का आर्किटैक्चर ऑन लाइन मध्यम वर्ग के राष्ट्रवाद के संदर्भ को उभारने में सहायक होता है.
ऑन लाइन राष्ट्रवाद के प्रभाव की अतिशयोक्ति की आवश्यकता नहीं है. राजनीतिक स्तर पर भारत की क्षेत्रीय विविधता और ऑन लाइन मीडिया पर विभिन्न प्रकार की विचारधाराओं की उपस्थिति के कारण यह बात इतनी सरल नहीं रह जाती. फिर भी यही बात महत्वपूर्ण है कि डिजिटल मीडिया के इर्द-गिर्द मध्यम वर्ग की उपस्थिति बनी रहती है और वे यह तय करने का प्रयास करते हैं कि देश कैसा होना चाहिए और कौन लोग देश के सच्चे वारिस हैं. मीडिया विचारक निक कॉल्ड्री ने इस विशेषाधिकार को “प्रोटो-एजेंसी” का नाम दिया है, जो उन डिजिटल अनुबंधों की पूर्व-शर्तों की ओर इंगित करता है, जिनमें शामिल हैं, “एजेंसी के नये-नये रूप, डिजिटल जागरूकता और व्यापक ढाँचागत परिवर्तन”.
मुंबई, बैंगलोर और दिल्ली में, जहाँ मैं फ़ील्डवर्क करती रही हूँ, राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द बढ़ती ऑन लाइन गतिविधियाँ स्पष्ट रूप में दिखाई देने लगी हैं और इनका उपयोग स्थापित शक्तियाँ भी करने लगी हैं. डिजिटल मीडिया संस्कृति के कम से कम तीन ऐसे पहलू हैं, जो मध्यम वर्ग के राष्ट्रवाद की “बौद्धिक उद्यमिता” का समर्थन करते हैं.
पहला पहलू तो यह है कि राजनीतिक बहस में बोलचाल की भाषा को बढ़ावा मिलने लगा है. यही कारण है कि अब यह बहस अनौपचारिक होने लगी है, इसमें नाटकीयता आ गई है और राष्ट्रीय मुख्य धारा में भी आवारगी की प्रवृत्ति दिखाई पड़ने लगी है. हास्य-व्यंग्य और पैरोडी का जमकर उपयोग किया जाता है. यदि राजनीतिक संवाद के विभिन्न रूपों का मुकाबला हो तो इंटरनैट मीम, सैल्फ़ी और फ़ोटो-शॉपिंग की जीवंत दृश्यात्मक संस्कृति अधिक तर्कसंगत लगेगी. डिजिटल क्षेत्र की वृद्धि में छल-कपट के कारण मिथ्याभास होते हुए भी गहन जागरूकता रहती है. डिजिटल प्रवंचना की यही जानकारी ही साइबर की विषय-वस्तु को कई गुना अधिक बढ़ा देती है.
दूसरा पहलू यह है कि मुख्य धारा के मीडिया के कथ्य और लीगेसी आलोचकों की तुलना में नैट-जीवी “गैर-विशेषज्ञों” में तथ्य और आँकड़े जुटाने के लिए बेहद उत्साह रहता है. खास तौर पर हिंदू राष्ट्रवाद के उन तमाम ऑन लाइन समर्थकों में यह उत्साह और भी मुखर रहता है, जो मुख्य धारा के मीडिया के समीक्षकों और उदार आलोचकों को चुनौती देने में जुटे रहते हैं और जिन्हें वे छद्म धर्मनिरपेक्ष मानते हैं. दंगों के आँकड़ों से लेकर धार्मिक ग्रंथों के उद्धरणों तक वे इन “तथ्यों” को ऑन लाइन करके प्रमाण के रूप में पेश करते हैं और सार्वजनिक क्षेत्र में इनके औचित्य को सिद्ध करने के लिए इन्हें जवाबी सबूत बनाने की मशक्कत में लगे रहते हैं. इसे मैं तथ्यात्मकता की संस्कृति का नाम देना चाहूँगी.
तथ्यात्मकता के अन्योन्याश्रित प्रभाव और ऑन लाइन चुहलबाजी बहुत कर्कश और झगड़ालू हो सकती है. ऑन लाइन मीडिया पर अपशब्दों का यह फलता-फूलता साहित्य-अपशब्द, शाप के रूप में प्रयुक्त शब्द, गाली-गलौच और अपमानजनक कथन- के रूप में सहज ही देखा जा सकता है. इन सभी भावों को हिंदी के एक ही शब्द गाली से सही तौर पर व्यक्त किया जा सकता है. हालाँकि ऑन लाइन गाली के कारण राजनीतिक बहस में भाग लेने के नये तरीके भी विकसित होने लगे हैं, जिन्हें संपूर्ण लिखित इतिहास में प्रचलित विनाशक प्रति-संस्कृति के समकक्ष रखा जा सकता है. गहन रूप में उनकी लैंगिकता और अति राष्ट्रवादी निहितार्थ अक्सर विरोधी स्वरों पर निशाना साधते हैं. खास तौर पर वे महिलाओं को प्रलोभन देते हैं, उन्हें अवांछनीय मेल भेजते हैं, उनका कच्चा-चिट्ठा निकालकर सार्वजनिक कर देते हैं और उन्हें शर्मसार करते हैं.
आवश्यकता इस बात की है कि बौद्धिक उद्यमिता के प्रत्येक पहलू के नीतिगत मुद्दे पर और अपशब्दों के ऑन लाइन विनिमय पर तत्काल ध्यान दिया जाए. अंतर्राष्ट्रीय नीति और अनुसंधान से संबंधित समुदायों ने भी इन अपशब्दों का जवाब देने के लिए घृणास्पद और खतरनाक भाषणों पर बहस करना शुरू कर दिया है. लेकिन चुनौती तो यह है कि “साइबर धमकियों” और “घृणास्पद भाषणों” या बेहद संकीर्ण आतंकवादी जुमलों को जल्दबाज़ी में समान साँचों में ढालने के बजाय इन्हें सही संदर्भ के साथ जोड़कर मज़बूत चौखटे में समायोजित किया जाए. इस दिशा में पहला काम तो यही करना होगा कि ऑन लाइन मीडिया को खँगाल कर उसमें से आहत करने वाली कर्कश शब्दावली के विभिन्न प्रकारों को वर्गीकृत किया जाए और विभिन्न संदर्भों में उनके अर्थ को खोजकर उन्हें व्यवस्थित किया जाए और यह पता लगाया जाए कि विभिन्न समूहों में इनका अभिप्रेत अर्थ क्या है, इनके विभिन्न प्रयोग और इनकी मंशा क्या है और राज्य की विनियामक स्थिति क्या है और इनके संदर्भ में इंटरनैट के मध्यस्थों की प्रतिक्रिया क्या है. राजनीतिक दृष्टि से मुखर समूहों के लिए प्रयुक्त भड़काऊ भाषा और अपशब्दों को निष्प्रभावी बनाने के लिए क्षमता विकसित करने के लिए सीधे हस्तक्षेप की आवश्यकता है. इसके लिए एक ऐसा ऑन लाइन उपकरण होना चाहिए जो न केवल इस बारे में जागरूकता पैदा करेगा, बल्कि सेवा प्रदाताओं को ऐसे मामले बढ़ने पर मध्यस्थ की भूमिका भी प्रदान करेगा, कानूनी सहायता प्रदान करेगा और खुले डेटा फ़ॉर्मेट में सभी भड़काऊ मामलों को दस्तावेज़ के रूप में प्रस्तुत करेगा. यदि यह लागू हो गया तो मात्र दस्तावेज़ के रूप में दिखाये जाने पर ही पैसा लेकर भड़काऊ भाषा का प्रयोग करने वाले और चोरी-छिपे ढंग से ऐसा धंधा करने वाले और गुप्त रूप में ऑन लाइन वारदात करने वाले बेचैनी महसूस करने लगेंगे.
इसलिए नये मीडिया के प्रति नीतिगत उपाय करके डिजिटल पहुँच से भी आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए और डिजिटल संज्ञान के ठोस नीतिगत उद्देश्य तय किये जाने चाहिए — एक ऐसा उद्देश्य, जो नित नये रूप में बदलते डिजिटल आर्किटेक्चर से संबंधित गतिशील ज्ञान को बढ़ावा दे सके, जिससे “सिस्टम के जुए” के लिए विकसित उपकरण के बारे में जागरूकता भी उत्पन्न की जा सके.
साहना उडुप जर्मनी स्थित मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ रिलीजियस ऐंड ऐथनिक डाइवर्सिटी में रिसर्च फ़ैलो हैं. उनके शोध-कार्य में पत्रकारिता की संस्कृति, नये मीडिया की राजनीति और वैश्विक शहरीकरण भी शामिल हैं. वह Making News in Global India: Media, Publics, Politics (Cambridge, UK: Cambridge University Press, 2015)की लेखिका भी हैं.
हिंदीअनुवादःविजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919