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राष्ट्र की विविधता के साथ संघर्ष में जूझती भारतीय पुलिस

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09/09/2019
शकेब अयाज़

सन् 1843 में भारत में जिस पुलिस-व्यवस्था का आरंभ हुआ था, वह अब भी काफ़ी हद तक ब्रिटिश काल के भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861 पर ही चलती है और भारत के वर्ग, जाति, लिंग और धार्मिक विविधताओं के साथ संघर्ष में जूझ रही है. भारत में पुलिस व्यवस्था से संबंधित 2018 की रिपोर्ट के अनुसार इसके संभावित कारण प्रशिक्षण, संवेदीकरण की कमी और / या  पुलिसकर्मियों में निहित पक्षपात हो सकते हैं.

क्या नागरिक स्टॉकहोम सिंड्रोम से ग्रस्त हैं ?
दिल्ली-स्थित ‘कॉमन कॉज़’ (Common Cause), जो कि कई ऐतिहासिक पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (PIL) के लिए प्रचलित है, और विकासशील समाज अध्ययन केंद्र (CSDS), के अपने सर्वेक्षण (जिसमें भारत के 22 राज्यों के लोगों ने भाग लिया था) में हमने उत्तरदाताओं के बीच भारी अंतर्विरोध के दावे पाए, जहाँ लोगों ने बेवजह उत्पीड़न और फँसने के डर के बावजूद पुलिस पर उच्च स्तर का भरोसा जताया.

इस सर्वेक्षण में भाग लेने वाले लोगों ने पुलिस के अत्याचार या फँसने के डर के बावजूद पुलिस में भरपूर विश्वास व्यक्त किया है. कम से कम 44 प्रतिशत लोगों ने पिटने का डर बताया है, 38 प्रतिशत लोग गलत आरोपों में गिरफ़्तार होने से डरते हैं, 29 प्रतिशत लोग गलत मामलों में फँसाये जाने से डरते हैं, 29 प्रतिशत महिलाएँ यौन शोषण से डरती हैं और 54 प्रतिशत लोग पुलिस की बर्बरता के व्यक्तिगत तौर पर शिकार हो चुके हैं और 51 प्रतिशत लोग यह मानते हैं कि पुलिस जातिगत आधार पर भेदभाव करती है ( इनमें उ.प्र. और बिहार का 73 प्रतिशत है, जो सर्वाधिक है). इतनी नकारात्मक राय के बावजूद 69 प्रतिशत लोग पुलिस पर उच्च स्तर तक भरोसा रखते हैं और 65 प्रतिशत लोग पुलिस से संतुष्ट होने का दावा करते हैं.

पुलिस की बर्बरता की जानकारी होने के बावजूद भी पुलिस के प्रति नागरिकों के भरोसे और संतोष को भारत में व्याप्त “राष्ट्रीयता” के माहौल से जोड़कर देखा जा सकता है. इस माहौल में शासन और कानून-व्यवस्था की कथित लचर स्थिति को तो सब मानते हैं, लेकिन सरकार के नियंत्रण में रहने वाली संस्थाओं के प्रति विश्वास और पूर्ण निष्ठा रखते हैं. अधिकांश लोग पुलिस के शोषण और निठल्लेपन को पूरी तरह से स्वीकारने के बावजूद यह समझते हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का ढाँचा इन संस्थाओं पर ही टिका हुआ है, इसीलिए पुलिस का समर्थन करते हैं.

पुलिस-हिंसा का समर्थन
इस रिपोर्ट से यह भी पता चला है कि कम से कम 50 प्रतिशत नागरिक पुलिस की हिरासत में अपराधियों के खिलाफ़ होने वाली हिंसा को ग़लत नहीं मानते. हिंदू और मुसलमान (शिक्षित होने पर भी) इसी तरह से पुलिस की हिंसा का समर्थन करते हैं, लेकिन अनुसूचित जाति के लोग और ईसाई इसका कम ही समर्थन करते हैं. भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले कम से कम 48 प्रतिशत लोग पुलिस हिंसा का समर्थन करते हैं. यह प्रतिशत शहरी जनता के प्रतिशत से सात प्रतिशत कम है. अनुसूचित जाति के लोग और ईसाई अपनी समस्याओं पर कम ही आवाज़ उठाते हैं और इसलिए यह मान लिया जाता है कि राजनैतिक तौर पर वे हाशिये पर रहते हैं. इसके विपरीत दलित और मुसलमान संस्थागत भेदभाव से गुज़रने के बावजूद नफ़रत फैलाने वालों के खिलाफ़ अपना गुस्सा विरोध-प्रदर्शन के रूप में प्रकट करते हैं. इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया के कारण उनका पुलिस में विश्वास बना रहता है.

राज्यों में तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है, जो पुलिस का सबसे अधिक समर्थन करता है (61.5 प्रतिशत), गुजरात (58.1 प्रतिशत), केरल (61.2 प्रतिशत) और दिल्ली (60.1 प्रतिशत). जिन राज्यों में अधिकांश लोग पुलिस हिंसा का विरोध करते हैं, वे हैं, हिमाचल प्रदेश (54.1 प्रतिशत), ओडिसा (42. 2 प्रतिशत) और पश्चिम बंगाल (36 प्रतिशत). ज़ाहिर है कि पूर्वोक्त तीनों राज्य बाद के तीन राज्यों की तुलना में कहीं अधिक औद्योगीकृत, शिक्षित और जीवंत हैं. इससे यह स्पष्ट है कि आधुनिकीकरण, समृद्धि, शहरीकरण और उच्च शिक्षा से मानवाधिकारों के प्रति अधिक सम्मान बढ़ता है, ऐसा साबित बिलकुल भी नहीं होता है. 

पुलिस का डर
यह पाया गया है कि पंजाब में 67 प्रतिशत लोग, कर्नाटक में 78 प्रतिशत लोग, तमिलनाडु में 72.7 प्रतिशत लोग, आंध्र प्रदेश में 68.5 प्रतिशत लोग और तेलंगाना में 63.3 प्रतिशत लोग पुलिस से डरते हैं. यह भी पाया गया है कि दक्षिण भारत में केरल को छोड़कर शेष सभी राज्य पुलिस से अधिक डरते हैं. उत्तर भारत में पंजाब को छोड़कर शेष सभी राज्य पुलिस से डरते हैं, जबकि निम्नलिखित राज्यों के लोग पुलिस से कम डरते हैं: हिमाचल प्रदेश (92.3 प्रतिशत), उत्तराखंड (88.6 प्रतिशत), हरियाणा (93.6 प्रतिशत), (केरल 79 प्रतिशत) और दिल्ली (77.3 प्रतिशत). हमारी रिपोर्ट ने इस मिथक को बेनकाब कर दिया है कि दक्षिण के राज्य शासन, शिक्षा, औद्योगीकरण और सामाजिक व आर्थिक विकास के अन्य कार्यों में आगे हैं और वहाँ लोग मैत्रीपूर्ण माहौल में रहते हैं.

इसके अलावा, भारत के दक्षिणी राज्यों के मुसलमान, देश के अन्य राज्यों की तुलना में पुलिस से अधिक (61 प्रतिशत) डरते हैं. शायद इसका कारण आतंकवाद के मनगढ़ंत आरोपों में अधिक संख्या में उनकी गिरफ़्तारी के कारण ऐसी धारणा बनी हो. सिखों (46 प्रतिशत) ने एक धार्मिक समुदाय के रूप में पुलिस की ज़्यादतियों के डर के कारण अपनी आवाज़ बुलंद की है. इसका कारण अस्सी और नब्बे के दशक में पंजाब में उग्रवाद के कटु अनुभवों के कारण ऐसा हो सकता है. अनुसूचित जाति (SCs) (45 प्रतिशत) और अनुसूचित जनजाति (STs) (45 प्रतिशत) लोगों में पुलिस का अधिक डर पाया गया, लेकिन ऊँची जाति ( 36 प्रतिशत) के लोगों में पुलिस का कम डर पाया गया. इन आँकड़ों को पुलिस बल में कमज़ोर वर्ग के लोगों का कम प्रतिनिधित्व होने के संदर्भ में और आरक्षण व्यवस्था लागू न होने के कारण उन्हें आश्वासन न मिल पाने के संदर्भ में देखा जा सकता है. 

पुलिस बल में आरक्षण के कारण दूसरे पिछड़े वर्गों (OBCs) और दलित वर्ग का प्रभुत्व एक मिथ्या
इस रिपोर्ट ने दूसरे पिछड़े वर्गों (for BCs) के इन राजनैतिक मिथकों को भी बेनकाब कर दिया है कि इन्होंने आरक्षण के कारण उत्तर प्रदेश (उ.प्र.) जैसे हिंदी भाषी राज्य की सरकारी नौकरियों को “डकार लिया है”. इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि आरक्षण किसी भी राज्य में आम तौर पर उसकी आबादी के अनुपात में होता है. उत्तर प्रदेश के अन्य पिछड़े वर्गों (OBCs) के तत्कालीन मुख्यमंत्री (2012-17) ने अन्य पिछड़े वर्गों (OBCs) के आरक्षित कोटे में से 40 प्रतिशत से भी कम पद भरे थे और आरक्षित पदों के प्रतिशत में तेज़ी से गिरावट आ गई और 2013 का प्रतिशत 2016 में 61 से घटकर 39.6 रह गया. तमिलनाडु में रिपोर्ट से पता चलता है कि अनुसूचित जाति के आरक्षित पदों के प्रतिशत में भी तेज़ी से गिरावट आई है और 2012 का प्रतिशत 2016 में 91.1 से घटकर 63 रह गया. इसलिए जब भी कमज़ोर वर्ग के प्रतिनिधित्व का सवाल आता है तो पिछड़ी जातियों की हितैषी मानी जाने वाली सरकारों में भी गिरावट ही दिखाई देती है.

कमज़ोर समुदायों का पुलिस पर फ़र्ज़ी मामलों में फंसाने का आरोप
पुलिस के प्रति कुछ हद तक भरोसा दिखाने और कम डर बताने के बावजूद भी कमज़ोर समुदायों ने पुलिस पर आरोप लगाया कि वे उन्हें झूठे मामलों में फँसा देते हैं. प्रतिक्रिया देने वाले सभी लोगों में से 38 प्रतिशत लोग और 35 प्रतिशत दलित यह मानते हैं कि उन्हें छोटे-मोटे अपराधों में झूठे आरोप लगाकर फँसा गया था. प्रतिक्रिया देने वाले सभी लोगों में से 28 प्रतिशत लोग और 27 प्रतिशत जनजातियों के लोगों पर माओवादी होने का आरोप लगाकर उन्हें फँसाया गया था, जबकि 47 प्रतिशत मुसलमान यह मानते हैं कि उन पर आतंकवादी होने का आरोप लगाकर उन्हें फँसाया जाता है. यही कारण है कि अदालतों ने गिरफ़्तार किये गए अधिकांश आरोपियों को निर्दोष होने के कारण मुक्त कर दिया. 

हाल ही में नासिक (महाराष्ट्र) के टाडा कोर्ट द्वारा निर्दोष पाये जाने पर बड़ी संख्या में छोड़े गए लोगों में से 11 मुसलमान ( जिनमें से एक पीएचडी स्कॉलर, तीन डॉक्टर, एक इंजीनियर और छह पार्षद) थे. इन्होंने 25 साल जेल में बिताये थे. न्यायाधीश एस.सी. खाती ने कहा कि पुलिस ने 1985-95 के बीच लागू आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम जैसे कठोर कानून के दिशानिर्देशों का उल्लंघन किया.

बढ़ते अपराधों में कमी लाने के मकसद से अधिकतर  नागरिक पुलिस पर अपना भरोसा जताते हैं. जहाँ तक अपराध और दंड के मामले में जाँच का सवाल है, आम लोग नियमों से जुड़े कायदे-कानून की परवाह नहीं करते. मनोरंजन उद्योग और भारत के जनसंचार माध्यम इस प्रवृत्ति को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाकर उसे गौरवान्वित कर देते हैं. इस प्रकार के रवैये का प्रकोप मुसलमानों, दलितों और जनजातियों के लोगों को झेलना पड़ता है. अन्य समुदायों की वास्तविक आबादी (39 प्रतिशत) के मुकाबले इन लोगों का प्रतिशत (55 प्रतिशत) जेल में अधिक है. भारत में ऐसे ज़्यादातर कैदी विचाराधीन होते हैं.

शकेब अयाज़, विकासशील समाज अध्ययन केंद्र (CSDS) के लोकनीति विभाग में सह-शोधकर्ता हैं, और ‘कॉमन कॉज़’ (Common Cause) और CSDS के संयुक्त शोध दल के भी सदस्य रहे थे, जिसने भारत में पुलिस व्यवस्था की स्थिति से संबंधित 2018 की रिपोर्ट (SPIR) तैयार की थी.

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919