हाल ही के दशकों में भारत धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय सोपान पर ऊपर चढ़ता जा रहा है और इसके कारण विश्व की एक प्रमुख महाशक्ति के रूप में इसका वैश्विक प्रभाव भी नज़र आने लगा है. पिछले चार दशकों में चीन एक जबर्दस्त ताकत के रूप में उभरकर सामने आया है और इसके साथ-साथ भारत ने भी काफ़ी ऊँचाइयाँ हासिल कर ली हैं. इसके कारण विश्व की आर्थिक शक्ति का केंद्र यूरोप और उत्तर अमरीका से हटकर एशिया की ओर स्थानांतरित होने लगा है. साथ ही साथ एशिया की इन दोनों महाशक्तियों के उभरने के कारण सच्चे अर्थों में एशिया-शताब्दी की शुरुआत होने लगी है. इस शताब्दी में एशिया की ये महाशक्तियाँ न केवल अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों की रूपरेखा का निर्धारण और निर्देशन करेंगी, बल्कि अंततः उसे परिभाषित भी करेंगी.
परंतु उदीयमान प्रबल शक्ति के बावजूद भारत अक्सर वैचारिक ऊहापोह में घिरा रहता है. यही कारण है कि देश के उज्ज्वल भविष्य और वास्तविकता में अंतर दिखाई देता है. हालाँकि भारत महाशक्ति बनने की प्रक्रिया में प्रमुख बिंदुओं पर खरा उतरता है, लेकिन व्यापक अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में घरेलू मुद्दों के कारण वह कमज़ोर पड़ जाता है.
समसामयिक वैश्विक राजनीति में भारत की बढ़ती भूमिका का एक कारण आर्थिक क्षेत्र में उसकी सफलता है.1990 से लेकर अब तक 6.5 प्रतिशत की उल्लेखनीय औसत वृद्धि दर बनाये रखने के कारण भारत के सतत विकास की गति जापान, जर्मनी और रूस जैसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों से भी आगे बढ़ रही है. 2018 में $10.5 बिलियन डॉलर की GDP (PPP) के साथ भारत की अर्थव्यवस्था अब चीन और अमरीका के बाद विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है. अनेक दीर्घकालीन परियोजनाओं को लागू करने के बाद अगले बीस वर्षों में भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी.
भारत की मौजूदा क्षमता और योग्यता के प्रमुख सरोकारों को इस धूमकेतु के चक्र से बाहर निकालने के लिए इस देश को अपनी पूरी आर्थिक क्षमता का दोहन करना होगा. इस समय भारत का बुनियादी ढाँचा इतना सक्षम नहीं है कि वह देश की ऊर्जा, व्यापार और कारोबार की आवश्यकताओं के बोझ के साथ-साथ विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के प्रभाव को भी बर्दाश्त कर सके. कर-संग्रह की मात्रा बहुत कम है. पूरी आबादी का 3 प्रतिशत ही करों की अदायगी करता है जबकि रोज़गार के अवसरों का सृजन हर महीने श्रमिक-वर्ग में शामिल होने वाले एक मिलियन नये लोगों की तादाद के अनुरूप नहीं हो पा रहा है.
महाशक्ति की अन्य साधन-सामग्री के अनुरूप भारत के पास विशाल और निरंतर बढ़ती सैन्य-शक्ति है, जिस पर 2018 में $66.5 बिलियन डॉलर का खर्च हुआ. इस प्रकार अमरीका, चीन, सउदी अरब और रूस के बाद अब भारत वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक खर्च करने वाली पाँचवीं सैन्यशक्ति बन गया है. पिछले तीन दशकों में भारत शस्त्र खरीदने वाला सबसे बड़ा आयातक देश बन गया है और अगले दस वर्षों में उसने बहुत बड़ी मात्रा में शस्त्र खरीदने के समझौतों पर हस्ताक्षर कर दिये हैं. विश्लेषक मानते हैं कि भारत 2030 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी सैन्यशक्ति बन जाएगा. भारत की ऊर्जा सुरक्षा और व्यापार संबंधी सुरक्षा की आवश्यकताओं की दृष्टि से इस प्रकार की क्षमताओं के विकास से भारत की रणनीतिक पहुँच उत्तरोत्तर बढ़ती जाएगी.
जहाँ एक ओर इस प्रकार के संसाधनों की वृद्धि हो रही है, वहीं भारत के पास विश्व की सबसे बड़ी स्थायी सेना है, जिसका उपयोग अधिकांशतः जम्मू-कश्मीर, असम, मेघालय और मणिपुर में अलगाववादी आंदोलनों से मुकाबला करने के लिए आंतरिक सुरक्षा के लिए किया जाता है. इनकी तैनाती से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भारत के सामने कितनी बड़ी चुनौतियाँ हैं और इनका फैलाव कितने बड़े क्षेत्र में है. अरुणाचल में 84,000 वर्ग किलोमीटर और अक्साई चीन में 38,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में चीन के साथ विवाद से निबटने के लिए इनकी तैनाती की गई है. दूसरी ओर पाकिस्तान और चीन ने जम्मू-कश्मीर में 222,000 वर्ग किलोमीटर की भूमि पर अपना दावा ठोका हुआ है. कुल मिलाकर भारत की कुल 11 प्रतिशत भूमि पर इन सबने दावा किया हुआ है. इसके अलावा अलगाववाद, उग्रवाद और सांप्रदायिक हिंसा के कारण 1994 से लेकर 2015 के बीच अब तक 65,500 नागरिकों, सुरक्षाकर्मियों और आतंकवादियों / अलगाववादियों की मौत हो चुकी है.
भारत की आर्थिक और सैन्य शक्ति को बढ़ाने में देश की विशाल आबादी (भारत पूरी दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला दूसरा देश है और 2030 तक सबसे अधिक आबादी वाला पहला देश हो जाएगा) और (दुनिया में सातवें सबसे बड़े) विशाल आकार वाला देश बन जाएगा. इसके कारण मौजूदा वैश्विक रैंकिंग को बनाये रखने और उसमें सुधार लाना संभव हो जाएगा. खास तौर पर जहाँ तक जनसांख्यिकी का संबंध है, भारत अमरीका और चीन (और निश्चय ही यूरोपीय संघ) की तुलना में कहीं अधिक युवा देश है. इससे यह स्पष्ट होता है कि इसके पास श्रमिकों की इतनी बड़ी तादाद है कि यह कई दशकों तक अपने आर्थिक और सैन्य कौशल को बरकरार रख सकता है.
लेकिन ऐसी जनसांख्यिकीय ताकत से संभावित लाभ इसके अविकसित संसाधनों की वजह से कम हो जाता है. ऐसी विशाल और युवा आबादी का भविष्य में पूरा लाभ तभी मिल सकता है जब उन्हें शिक्षित किया जाए और उनके स्वास्थ्य का पूरा ख्याल रखा जाए. व्यापक अर्थों में भारत को अपनी वयोवृद्ध आबादी का ख्याल रखने के लिए उनके लिए आवास की सुविधाएँ बढ़ानी होंगी और पेंशन प्रणाली को मज़बूत करना होगा. भले ही भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है (2019 में इसके मतदाताओं का संख्या 900 मिलियन थी), लेकिन यह अपने अल्पसंख्यकों, निचली जातियों और महिलाओं के अधिकारों को पूरी तरह से संरक्षण नहीं दे पा रहा है. साथ ही मानवाधिकारों के उल्लंघन और भ्रष्टाचार रोकने वाली संस्थाओं को और साथ ही धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मज़बूती प्रदान करने में भी विफल रहा है.
भौतिक संसाधनों के अलावा भारत के पास सॉफ्ट पावर का भी विशाल खजाना है. इनमें से कुछ हैं... बॉलीवुड, भारतीय भोजन, क्रिकेट और योग की जन्मस्थली होने जैसी वैश्विक ब्रांड. इनके कारण विश्व भर में भारत की पहचान निरंतर बढ़ती जा रही है और सुदूर भविष्य में वह अमरीका और चीन के समकक्ष आने में भी सक्षम है. और अगर हम इनके नकारात्मक पहलुओं को देखें तो पाएँगे कि देश की अर्थव्यवस्था, क्षेत्रीय आकार और आबादी को प्रभावित करने वाले सभी कारकों का दुष्प्रभाव नियमित तौर पर भारत के वैश्विक रोल मॉडल की आकांक्षा पर भी पड़ता है.
हालाँकि भारत महाशक्ति बनने की प्रक्रिया में है, लेकिन यह अपने ही बोझ के तले पिसता जा रहा है. आभास तो होता है कि भारत महाशक्ति है, लेकिन उसका व्यवहार महाशक्ति की तरह नहीं लगता. आर्थिक तौर पर इसकी बुनियाद इतनी मज़बूत नहीं है कि दुनिया उस पर भरोसा कर सके. इस समय विश्व का यह उन्नीसवाँ सबसे बड़ा निर्यातक देश है और ग्यारहवाँ सबसे बड़ा आयातक देश है. सैन्य बल की दृष्टि से भले ही संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियान (सामान्यतः इस अभियान में इसका स्थान दुनिया-भर में तीसरा या चौथा है) में इसका बहुत बड़ा योगदान है, लेकिन इसमें अंतर्राष्ट्रीय हितों के संरक्षण की क्षमता या उत्साह बहुत कम है, क्योंकि यह घरेलू सुरक्षा की समस्याओं से घिरा रहता है. दोनों ही मामलों में भारत अपनी शक्तियों को महत्वपूर्ण राजनयिक उपकरणों के रूप में परिणत करने में अभी तक सक्षम नहीं हुआ है.
इन तथ्यों को देखते हुए व्यापक तौर पर सभी अग्रणी देश इसे एक उदीयमान महाशक्ति के रूप में स्वीकार तो करते हैं, लेकिन वास्तवित महाशक्ति के रूप में इस पर भरोसा नहीं जताते. निश्चय ही मात्र यह मान्यता भारत के महाशक्ति के रूप में उभरने में महत्वपूर्ण भूमिका तो अदा कर सकती है, लेकिन लगता है कि इस धारणा का आधार स्पष्ट रूप में भारत की भौतिक क्षमता और सक्षमता ही है. अपने ही देश में राष्ट्रवाद की बहती प्रबल धारा के कारण भी यह विश्वास बन गया है कि भारत एक महाशक्ति बनने जा रहा है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण यही है कि भारत को अभी तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की वीटो सीट नहीं मिल पाई है. इससे यह भी स्पष्ट है कि भारत को अभी तक अन्य देशों ने महाशक्ति के तौर पर औपचारिक रूप में स्वीकार नहीं किया है.
भारत में भी व्यावहारिक ढंग से सोचने वाले लोग यह मानते हैं कि वह समय दूर नहीं है जब भारत महाशक्ति बन जाएगा और वैचारिक सोच का यह अंतराल भी खत्म हो जाएगा. ये प्रेक्षक भारत से शायद कुछ ज़्यादा ही उम्मीद लगाये बैठे हैं, जबकि वस्तुस्थिति यही है कि भारत अब भी एक विकासशील देश ही है. अन्य लोग यह भी मानते हैं कि शायद महाशक्ति के आकलन का पैमाना ही अब पुराना पड़ गया है और भारत जैसा विशाल देश अपने-आप से बाहर निकलकर और आगे बढ़कर विश्व के बारे में सोचेगा, जैसा कि अमरीका, रूस या ग्रेट ब्रिटेन जैसे देश ऐतिहासिक रूप में करते रहे हैं.
इस मामले में चीन भारत के लिए एक उदाहरण बन सकता है. भले ही चीन के सामने अतीत में और अब भी अनेक समस्याएँ रही हों ( इसकी अर्थव्यवस्था संक्रमण के दौर से गुज़रती रही है, झिंजियांग और तिब्बत में क्षेत्रीय समस्याएँ हैं और इसके अलावा अनेक बहुत बड़े आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे भी हैं), फिर भी चीन ने इन समस्याओं को हल किया है और रणनीतिक सोच के मामले में अपना एक महत्वपूर्ण मुकाम हासिल कर लिया है. चीन भी एक बहुत बड़ा देश है और इसके अनेक नेता राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक भी रहे हैं. केवल राजनैतिक कारणों से ही परिवर्तन नहीं आता. निश्चय ही चीन में चीनी साम्यवादी पार्टी का एकदलीय तानाशाही शासन है और इससे उन्हें अनेक लाभ भी मिलते हैं. इस व्यवस्था के अंतर्गत भारत के लोकतंत्र की तुलना में बड़े-बड़े नीतिगत परिवर्तनों को अधिक शीघ्रता से लागू किया जा सकता है. फिर भी दोनों की लक्ष्य-संधान की प्रक्रिया में विशेष अंतर नहीं होता. बहरहाल गति का बहुत फ़र्क पड़ता है. लगता है भारत चीन की तुलना में प्रगति की दौड़ में कई दशक पीछे है.
निश्चय ही भारत एक सौम्य देश है, घरेलू समस्याओं को हल करने में धीरज से काम लेता है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सबको साथ लेकर चलने की कोशिश करता है, फिर भी चुनौतियों का सामने करने और गंभीर मुद्दों को हल करने की उसकी समझ महाशक्ति के रूप में बहुत उपयोगी सिद्ध होगी. जिस तरह से भारत चुनौतियों का सामना करता है, उसकी राजनीतिक समझ और सोच भारत के साथ-साथ पूरे विश्व के लिए कारगर हो सकती है.
क्रिस ऑगडेनसैंट ऐन्ड्रूज़ विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल अफ़ेयर्स में वरिष्ठ लैक्चरर / एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919