हाल ही में, भारत और दक्षिण कोरिया के बीच बढ़ती राजनीतिक सरगर्मियों से दोनों देशों के बीच एशिया में आपसी सुरक्षा-हितों को साझा करने की एक नई शुरुआत हुई है. अभी दो महीने पहले ही, दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे-इन ने अपने प्रशासन के सौवें दिन पूरे होने पर विशेष समारोह का आयोजन किया था, जिसे व्यापक जनसमर्थन मिला. अब द.कोरिया के कूटनीतिक गलियारे में भारत को आमंत्रित करके वह एक साहसिक कदम उठाने जा रहे हैं.
द्विपक्षीय संबंधों को मज़बूत करने के इरादे से राष्ट्रपति श्री मून ने 15 जून को संस्कृति,खेल एवं पर्यटन मंत्री श्री छंग दोंग छै को अपना विशेष दूत बनाकर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के पास भेजा था. अपने विशेष दूत से भेजे गए इस संदेश में राष्ट्रपति मून ने भारत को अमरीका, रूस, चीन और जापान के समकक्ष स्थान देने पर बल दिया था. द.कोरिया और चीन के बीच चल रहे तनाव के माहौल में राष्ट्रपति मून का यह संदेश भारत-द.कोरिया मैत्री की दिशा में पहला कदम है. दरअसल, अमेरिका द्वारा द.कोरिया को मिसाइल और राडार मुहैया कराये जाने को लेकर द.कोरिया और चीन के बीच पिछले दो सालों से तनाव चल रहा था, टर्मिनल हाई-ऐटीट्यूड एरिया डिफ़ेंस (THAAD) की तैनाती से यह तनाव और गहरा हो गया और इसका असर दोनों देशों के राजनयिक संबंधों पर भी पड़ा. इसी अक्टूबर में द.कोरिया और चीन के बीच एक दूसरे के प्रति आरोप-प्रत्यारोप में कमी लाने पर सहमति होने के बावजूद सउल और बीजिंग के बीच भावी सहयोग पर संभावित नकारात्मक प्रभाव को लेकर आम जनता और बुद्धिजीवियों में चर्चा होने लगी है. थोड़ी नरमी आने के बावजूद टर्मिनल हाई-ऐटीट्यूड एरिया डिफ़ेंस (THAAD) प्रणाली के उद्देश्य और इस्तेमाल से संबंधित पक्ष-विपक्ष का प्रभाव अमरीका, दक्षिण कोरिया और चीन के द्विपक्षीय संबंधों पर अभी भी देखा जा सकता है. ऐसे में, भारत के प्रति मून-प्रशासन का यह कदम पूर्वी एशियाई मामलों में संतुलन लाने की दिशा में निश्चय ही पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बड़ा कदम है.
सउल की दृष्टि से, दक्षिण एशिया में, खास तौर पर भारत-चीन संबंधों में बने रहने वाले तनाव ने भारत और द.कोरिया के बीच समान हितों को जन्म दिया है और यही कारण है कि ये दोनों देश क्षेत्रीय स्थिरता कायम करने के लिए सहयोगी रुख अपनाने पर चर्चा करने लगे हैं. इसके अलावा, कोरियाई प्रायद्वीप में परमाणु शक्ति संपन्न अपने पड़ोसी से निपटने में द.कोरिया की खास रुचि ठीक उसी तरह से है, जैसे पाकिस्तान से निपटने में भारत की. उत्तर कोरिया के परमाणु हथियार विकास कार्यक्रम के उकसावे और परमाणु हथियारों से लैस उसके मिसाइलों के पूर्व-नियोजित लॉन्च के कारण द.कोरिया पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है. द.कोरिया और जापान के साथ अमरीकी साझेदारी के कारण उत्तर कोरिया पर अपने परमाणु कार्यक्रम पर लगाम लगाये रखने का दबाव बना तो रहता है, लेकिन लगातार भड़काऊ बयानबाजी और इसमें शामिल सभी पक्षों के बीच परंपरागत हथियारों की होड़ लगे रहने के कारण क्षेत्रीय सुरक्षा पर असमंजस भी स्थायी बना रहता है. इसलिए, ऐसा लगता है कि सउल की रणनीतिक योजना अमरीकी साझेदारी के अलावा आसन्न क्षेत्रीय मुद्दों पर अन्य मज़बूत कूटनीतिक विकल्प की तलाश में है.
इस संदर्भ में, भारत के प्रति मून-प्रशासन का दृष्टिकोण पिछली सरकारों की तुलना में कहीं अधिक सक्रिय है. यह दृष्टिकोण उस मज़बूत आशा से उपजा है, जिसमें ऐसा लगता है कि समान परिस्थितियों के कारण नई दिल्ली के साथ संबंधों के विस्तार से वैश्विक और क्षेत्रीय रणनीतिक स्थितियों से निपटने में संतोषजनक मदद मिलेगी. जून के मध्य में, भारत के वित्त मंत्री और तत्कालीन रक्षा मंत्री श्री जेटली की सउल-यात्रा के दौरान दक्षिण कोरिया ने भारत के साथ सुरक्षा सहयोग को और मजबूत बनाए जाने पर बल दिया था. साथ ही इस बात पर भी जोर दिया था कि इस द्विपक्षीय सुरक्षा-सहयोग को ठोस स्वरूप देने के लिए विभिन्न स्तर की अधिकारिक वार्ताओं का नियमित आयोजन किया जाना चाहिए. इसी तरह, जुलाई के आरंभ में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन की सउल-यात्रा के दौरान ब्लू हाउस ने भी साउथ ब्ल़ॉक के साथ रणनीतिक और सैन्य-संबंध मज़बूत करने में काफ़ी दिलचस्पी दिखाई थी.
मून-प्रशासन के आत्मविश्वास से भरी इस पहल का मोदी सरकार ने भी गर्मजोशी से स्वागत किया. जबकि, नई दिल्ली ने तो पहले ही सउल-दिल्ली संबंधों के पक्ष में सहमति जता दी थी. सउल के प्रति सकारात्मक संकेत दिखाते हुए नई दिल्ली ने इस साल के आरंभ से ही उत्तर कोरिया के साथ प्रतिकूल रुख अपनाना शुरू कर दिया था. सउल के अनुरोध पर मोदी सरकार ने एशियाई और प्रशांत क्षेत्र में अंतरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी केंद्र में उत्तर कोरिया के छात्रों को प्रशिक्षण देना अब बंद कर दिया है और मध्य प्रदेश स्थित सैनिक स्कूल में उत्तर कोरिया के सैनिकों को भारतीय भाषाएँ सिखाना भी बंद कर दिया है. साउथ ब्लॉक ने संयुक्त राष्ट्र के पक्ष में खड़े होते हुए उत्तर कोरिया के साथ सभी प्रकार के व्यापार (मानवीय मदद को छोड़कर) पर प्रतिबंध भी लगा दिया है. इसके अलावा, द.कोरिया से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को सुगम बनाने तथा ऐक्ट एशिया नीति के तहत व्यापक आर्थिक सहयोग बढ़ाने के लिए भारत ने “कोरिया प्लस” नामक रणनीतिक पहल की योजना को भी लागू कर दिया है. भारत ने व्यापक रणनीति के तहत इस कदम को उठाया है जिसका उद्देश्य सउल और उसके मित्र देशों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत बनाना तो है ही साथ ही उत्तर कोरिया और नई दिल्ली के बीच राजनीतिक एवं आर्थिक संबंधों के महत्व को कम करना भी है. भारत का यह कदम दर्शाता है कि नई दिल्ली में नीति-निर्माता कोरियाई प्रायद्वीप में लम्बे समय से चली आ रही अपनी रणनीति का फिर से आकलन कर रहे हैं जिसके अंतर्गत यह माना जाता रहा है कि उत्तर कोरिया आर्थिक रूप से और पूर्वी एशिया की क्षेत्रीय परिधि में भारत के लिए लाभप्रद है. साथ ही इससे, वैश्विक परमाणु अप्रसार के प्रति एक ज़िम्मेदार परमाणु देश के रूप में भारत की प्रतिबद्धता भी जाहिर होती है.
परस्पर भागीदारी बढ़ने के क्रम में भारत और दक्षिण कोरिया के बीच आपसी रणनीति के फिर से आकलन का यह प्रयास 2010 से जारी है, जब दोनों देश वैश्विक और क्षेत्रीय रणनीति के मामलों में परस्पर सहयोग के लिए सहमत हुए थे. 2011 में असैन्य परमाणु संधि पर हस्ताक्षर करने के साथ-साथ सउल, परमाणु-अप्रसार के प्रति नई दिल्ली के दृष्टिकोण का समर्थन करता आ रहा है. द्विपक्षीय वार्ताओं के दौरान भी सउल यह स्पष्ट करता आया है कि परमाणु-अप्रसार संबंधी भारत के अच्छे रिकॉर्ड को वह परमाणु-अप्रसार संधि के हस्ताक्षरकर्ता के दर्जे से कहीं अधिक महत्व देता है. अपनी इस मज़बूत धारणा के बल पर ही दक्षिण कोरिया ने परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के एक पूर्ण अधिवेशन की मेज़बानी करते हुए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत की सदस्यता का विरोध करने वाले देशों के रुख को नरम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. सउल का यह कदम एशिया में अमरीका के अन्य किसी भी मित्रदेश के मुकाबले कहीं अधिक स्पष्ट और स्वतंत्र कदम था.
वैश्विक धरातल पर, भारत-दक्षिण कोरिया के बढ़ते संबंधों से एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका-जापान नीत सैन्य-सुरक्षा ढाँचे को मज़बूती मिली है, जिसका बुनियादी स्वरूप चीन और उत्तर कोरिया के मुकाबले में रहना है. नई दिल्ली और सउल 2010 से ही नियमित रूप से संयुक्त नौसैनिक अभ्यास करते रहे हैं और आतंकवाद का विरोध तथा परमाणु अप्रसार को लेकर दोनों देशों के बीच आधिकारिक बैठकें भी होती रही हैं. पिछले दशक में हुई प्रत्येक शिखर बैठक में दोनों पक्ष मजबूत रणनीतिक और सुरक्षा समझौते के तहत इस बात पर सहमत हुए हैं कि क्षेत्रीय स्थिरता और संतुलन के लिए रक्षा-सौदों के विस्तार के साथ-साथ दूतावासों में रक्षा-विशेषज्ञ का कार्यालय भी स्थापित किया जाना चाहिए. मई 2015 में नई दिल्ली ने द.कोरिया के साथ विशेष रणनीतिक साझेदारी के जवाब में, उसे हथियार-आपूर्तिकर्ताओं में शामिल किए जाने पर गंभीरता से विचार किया है, जिसमें कि प्राय: अमरीका, रूस, इज़रायल, फ्रांस और यू.के. का ही वर्चस्व रहा है. 2017 के आरंभ में ही भारत ने दक्षिण कोरिया के साथ तीन रक्षा समझौते कर डाले हैं. कई भारतीय विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि सउल के साथ नई दिल्ली की इस नई साहसिक पहल का उद्देश्य अपने रणनीतिक उपक्रम का विस्तार करना है. नई दिल्ली ने सउल के साथ एक अरब पाँच सौ करोड़ (1.5 बिलियन) डॉलर मूल्य के पाँच संयुक्त बेड़ों वाले सपोर्ट जहाजों की खरीद के करार पर हस्ताक्षर किया है. भारत ने पाँच अरब पाँच सौ करोड़ (5.5 बिलियन) डॉलर मूल्य के बारह माइन काउंटरमेज़र जहाजों के डिज़ाइन पर परामर्श और तकनीकी सहयोग प्रदान करने के लिए साउथ कोरियन कॉर्पोरेशन, गाङ्नाम को आमंत्रित किया है. अभी हाल ही में उनहत्तर करोड़ पाँच लाख (696 मिलियन) डॉलर मूल्य के एक सौ स्वचालित तोपों की खरीद के सौदे पर भारत के स्थानीय रक्षा आपूर्तिकर्ता लार्सन ऐँड टूब्रो और कोरियाई फ़र्म हान्ह्वा टेकविन के बीच करार हुआ है. इस करार ने द्विपक्षीय संबंधों को और फ़ायदेमंद बना दिया है.
कुल मिलाकर, सउल और नई दिल्ली के रणनीतिक संबंध आपसी हितों के साथ-साथ क्षेत्रीय स्थिरता के लिए भी महत्वपूर्ण संकेत हैं. लेकिन, रिश्तों के बढ़ते दौर में सावधानीपूर्वक सोच-विचार करते रहने की ज़रूरत है ताकि भविष्य की संभावित सीमाओं को दूर किया जा सके. पहली सीमा तो यही है कि सउल और नई दिल्ली के बीच उभरते हुए राजनीतिक हितों की क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर ज़रूरत अभी कम है. अधिकांश आधिकारिक बैठकों में वही मुद्दे बार-बार दोहराये जाते हैं जिनसे रणनीतिक साझेदारी और बहुत कुछ आर्थिक सहयोग के महत्व की ही पुष्टि होती है. दोनों पक्षों को चाहिए कि भिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की वजह से कूटनीतिक संवाद-शैली की असमानता को ठीक किया जाए ताकि रणनीतिक सहयोग लम्बे समय तक बरकरार रह सके. दोनों ही देशों के लिए यह समय महत्वपूर्ण है, ऐसे में, उन्हें चाहिए कि वे अब संबंध को व्यापक बनाने के लिए नये विषयों को तलाशें, संभावनाओं के विस्तार पर ध्यान दें और अलग-अलग दौर में द्विपक्षीय सहयोग की सीमाओं को चिह्नित करें.
जी यन-जूङ् हांगुक यूनिवर्सिटी ऑफ़फोरेन स्टडीज़ के विदेश अध्ययन विभाग में लेक्चरर हैं. इससे पूर्व वह हार्वर्ड कैनेडी स्कूल के बेल्फ़र विज्ञान और अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन केंद्र (2016-17) में स्टैंटन परमाणु सुरक्षा पोस्ट डॉक्टरेट फेलो रही हैं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.