शहरों में भूसांख्यिकीय परिवर्तन के साथ-साथ शासन और विकास की भारी चुनौतियाँ भी सामने आती रही हैं. इनमें सबसे गंभीर चुनौती तो यही है कि अंधाधुंध निर्माण-कार्यों, भारी गरीबी, भूमि-अधिकारों की असुरक्षा और बुनियादी सार्वजनिक सुविधाओं की कमी के कारण झुग्गी-झोपड़ी की बस्तियों का तेज़ी से विस्तार होने लगा है. भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 65 मिलियन लोग देश-भर में फैली शहरी झुग्गी-झोपड़ियों में रहते हैं. ये भारी आँकड़े तो अर्जेंटिना, दक्षिण अफ्रीका और स्पेन जैसे देशों की सारी आबादी से भी अधिक हैं.
शहरों के पड़ोस में बसे इन गरीब इलाकों के कुछ निवासी तो स्थानीय प्राधिकरण में ऊँचे ओहदों पर पहुँच गए हैं. झुग्गी-झोपड़ियों के ये नेता इसी कोशिश में रहते हैं कि इन बस्तियों को खाली न कराया जा सके और इनकी बराबर यही माँग रहती है कि इन बस्तियों में सार्वजनिक सुविधाएँ मुहैय्या कराई जाएँ. उनकी हैसियत तो बिना किसी सरकारी मंजूरी के अनौपचारिक ही रहती है. अपनी व्यापक उपस्थिति और विकास व चुनावी राजनीति में स्थानीय पैटर्न को आकार देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद हैरानी तो इसी बात की है कि हम भारत के इन झुग्गी-झोपड़ियों के नेताओं के बारे में कुछ नहीं जानते. ये नेता अपनी बस्तियों में से कैसे उभरकर सामने आते हैं? इनकी क्या गतिविधियाँ होती हैं? और इनके निवासियों की ऐसी कौन-सी माँगें हैं, जिन्हें प्राथमिकता के आधार ये लोग उठाते हैं ?
दो भागों की अपनी इस श्रृंखला में हम कुछ प्रश्नों के प्रारंभिक उत्तर तो दे ही सकते हैं. ये उत्तर भारत के दो महत्वपूर्ण शहरों, जयपुर (राजस्थान) और भोपाल (मध्य प्रदेश) में पिछले कई वर्षों के दौरान किये गये मूलभूत सर्वेक्षण पर आधारित हैं. भाग एक के आँकड़े सन् 2015 के ग्रीष्मकाल के दौरान किये गये 110 झुग्गी-झोपड़ियों के 2,199 निवासियों के सर्वेक्षण पर आधारित हैं. इनसे प्राप्त प्रतिक्रियाओं से हमें पता चला कि झुग्गी-झोपड़ियों के इन नेताओं की किस प्रकार की गतिविधियाँ रहती हैं और इनके समुदायों से ये नेता कैसे उभरकर सामने आते हैं.
भाग दो में 2016 के ग्रीष्मकाल में हमने उन्हीं 110 बस्तियों से उभरकर सामने आये 629 झुग्गी-झोपड़ियों के नेताओं के सैम्पल का दूसरा सर्वेक्षण किया. नेताओं के इस सर्वेक्षण में हमने अनेक बातों पर चर्चा की, जैसे, झुग्गी-झोपड़ियों के ये नेता कौन हैं, इनकी जातीय पहचान या व्यवसाय क्या है, इनकी शिक्षा का स्तर कितना है और राजनीतिक दलों से इनका संबंध क्या है और ये लोग अपने समुदाय के अंदर समर्थन कैसे जुटाते हैं. हमारी जानकारी के अनुसार, अब तक अनौपचारिक रूप में झुग्गी-झोपड़ियों के नेताओं पर किये गये सर्वेक्षणों में यह पहला, सबसे बड़ा और प्रतिनिधि सर्वेक्षण है.
झुग्गी-झोपड़ियों के ये नेता करते क्या हैं?
हमारे फ़ील्डवर्क और सर्वेक्षण के आँकड़ों से पता चलता है कि झुग्गी-झोपड़ियों के ये नेता अनेक प्रकार की गतिविधियों में संलग्न रहते हैं. झुग्गी-झोपड़ियों के ये नेता यहाँ के निवासियों को अनिवार्य सरकारी वस्तुएँ और सेवाएँ दिलाने में मदद करते हैं. जैसे, राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, बिजली का कनैक्शन, विधवाओं को पेंशन, बैंक खाता खुलवाना और जाति प्रमाणपत्र दिलवाना आदि. वे पड़ोसियों के बीच के झगड़े भी निपटाते हैं. झुग्गी-झोपड़ियों में बसी अपनी बस्तियों के लिए ये नेता इन्हें खाली कराने के विरोध में संघर्ष करते हैं और सामाजिक सेवाओं की माँग करते हैं, जैसे सड़कें पक्की कराने, सड़कों पर बत्ती लगवाने, स्कूल खुलवाने, जल-मल निकास की नालियाँ बनवाने और कचरा इकट्ठा करवाने में मदद करते हैं.
झुग्गी-झोपड़ियों के ये नेता अपनी इन सेवाओं को सामाजिक सेवा का नाम देते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि स्पष्ट रूप में इनकी कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा नहीं होती. वस्तुतः झुग्गी-झोपड़ियों के नेताओं की स्थिति इतनी मज़बूत होती है कि वे स्थानीय मतदान के रुझान को मतदाताओं से रोज़मर्रे की अपनी बातचीत के ज़रिये और छोटी-मोटी नकदी, खानपान की चीज़ें और शराब जैसी लाभ की वस्तुओं को स्थानीय लोगों में वितरित करके प्रभावित कर सकते हैं. वे अपने समर्थकों को चुनावी रैलियों में भी ले जाने के लिए तैयार करके रखते हैं. जिन झुग्गी-झोपड़ियों के नेताओं का हमने सर्वेक्षण किया, वे यह मानते हैं कि राजनैतिक हस्तियों और उनकी पार्टियों के लिए इस तरह के काम तो सामान्य तौर पर वे करते ही हैं.
झुग्गी-झोपड़ियों के इन नेताओं को उनके इन प्रयासों का पुरस्कार भी मिलता है. वे अक्सर झुग्गी-झोपड़ियों के अपने निवासियों से अपनी बिचौलिया सेवाओं के लिए थोड़ा-बहुत शुल्क भी वसूल करते हैं ताकि उन्हें किराये के रूप में नियमित आमदनी भी होती रहे. वे अपनी बस्ती में नामचीन बने रहने के लिए या सामाजिक हैसियत बनाये रखने के लिए प्रयास करते रहते हैं और इसके लिए ज़रूरी शर्त यही है कि पार्टी संगठन में उनका रुतबा बना रहे और नगर निगम का चुनाव लड़ने के लिए उन्हें पार्टी का टिकट मिल सके. झुग्गी-झोपड़ियों के ये नेता चुनाव के दिनों में पार्टियों से पैसे लेकर उनके प्रचार में सहयोग देते हैं और मतदाताओं को मतदान पेटियों तक पहुँचाने जैसी गतिविधियों में संलग्न रहते हैं. यह बात भी उल्लेखनीय है कि ये लोग अपने परिवारों के साथ झुग्गी-झोपड़ियों में ही रहते हैं. उन्हें भी चलने के लिए पक्के रास्ते चाहिए, पीने का साफ़ पानी चाहिए, शौच आदि की उचित व्यवस्था चाहिए और अपने बच्चों के लिए स्कूल चाहिए.
झुग्गी-झोपड़ियों का नेता कौन बनता है और कैसे बनता है ?
गाँवों के विपरीत, शहरी झुग्गी-झोपड़ियों में गाँवों से मज़दूरी के लिए आने वाले प्रवासी मज़दूर रहते हैं, जिन्हें स्थानीय प्राधिकरण जैसे प्रतिष्ठान की कोई कल्पना भी नहीं होती. झुग्गी-झोपड़ियों का नेतृत्व तभी उभरता है जब अवैध बस्तियों की धूल बैठने लगती है. इस प्रक्रिया में काफ़ी होड़ रहती है और इसके लिए कई उम्मीदवार लालायित रहते हैं. भारत के अनेक औपचारिक राजनेताओं के विपरीत, झुग्गी-झोपड़ियों के नेताओं के अधिकार परंपरागत अनुक्रम या राजवंशीय संबंधों पर निर्भर नहीं रह सकते. इसके बजाय, ये अधिकार उनकी लोकप्रियता पर निर्भर करते हैं, जिसे उन्होंने अपने उद्यम और अपने पसीने से कमाया होता है. झुग्गी-झोपड़ियों के नेतृत्व के प्रतिस्पर्धी और बहुकेंद्रीय स्वरूप को देखते हुए झुग्गी-झोपड़ियों के निवासी अपने नेता को चुनने में अपने प्रभाव का पूरा इस्तेमाल करते हैं और स्वयं ही यह तय करते हैं कि उन्हें किसका समर्थन करना है और किससे मदद लेनी है. फिर यह देखते हैं कि उन्हें अपने प्रभाव का कैसे इस्तेमाल करना है?
हमारे फ़ील्डवर्क से दो रास्ते सामने आए, जिनके ज़रिए झुग्गी-झोपड़ियों के नेता उभरते हैं. बहुत-से उम्मीदवार तो रोज़मर्रे की उनकी समस्याओं को सुलझाने में निवासियों की मदद करते हुए धीरे-धीरे उनका समर्थन प्राप्त करते हैं. कुछ ऐसे भी नेता होते हैं, जिन्हें झुग्गी-झोपड़ियों के निवासी अनौपचारिक बैठकों या सामुदायिक बैठकों में चुनते हैं. हमने खुद भी ऐसे कुछ चुनाव देखे हैं, जिनमें औपचारिक चुनावों की मात्र रस्म ही निभाई जाती है. कुछ झुग्गी-झोपड़ियों में तो उम्मीदवारों के निर्धारण के नियम बना लिये जाते हैं और कुछ झुग्गी-झोपड़ियों में चुनाव के लिए कच्चे मतदान पत्र भी तैयार किये जाते हैं और पुलिस बंदोबस्त भी रहता है ताकि निष्पक्ष चुनाव कराये जा सकें. हमारे अध्ययन के अंतर्गत आने वाले दो शहरों के सतहत्तर प्रतिशत लोगों ने यह माना है कि उनकी बस्तियों में अनौपचारिक नेतृत्व भी रहता है. लगभग आधे से अधिक लोगों ने बताया कि उनके नेताओं का चुनाव अनौपचारिक चुनावों या सामुदायिक बैठकों में ही होता है.
हमारे अनुसंधान की मुख्य बात यही है कि झुग्गी-झोपड़ियों के अधिकांश नेता किसी प्रकार की हिंसक जोर-ज़बर्दस्ती से नेता नहीं बनते. राजनैतिक पार्टियाँ भी किसी भी झुग्गी-झोपड़ियों के निवासी को स्थानीय वोट बैंक जुटाने के लिए नहीं चुन सकते. स्थानीय वोट बैंक जुटाने में वही नेता कामयाब हो सकता है जिसका बस्तियों में स्थानीय रूप में खासा प्रभाव हो. ऐसे ही लोग झुग्गी-झोपड़ियों के स्थानीय लोगों के बीच लोकप्रिय हो सकते हैं. पार्टियों द्वारा बाहर से लाई हुई भारी-भरकम हस्तियों को भी ये लोग स्वीकार नहीं करते. यही कारण है कि पार्टी के संगठनकर्ता झुग्गी-झोपड़ियों के निवासियों में से केवल उन्हीं स्थानीय प्रतिनिधियों को चुन सकते हैं जो लोकप्रिय प्राधिकरण के स्थानीय नोड के रूप में पहले तप कर निकले हों. इस प्रकार झुग्गी-झोपड़ियों के निवासी बिना सोचे-विचारे ही अपने स्थानीय नेताओं के नाम पर मुहर नहीं लगाते. इसके विपरीत, वे अपने नेताओं को चुनने (और कभी-कभी उनको हटाने में भी) सशक्त खिलाड़ी की भूमिका निभाते हैं. इतनी महत्वपूर्ण एजेंसी होने के कारण यह समझना भी ज़रूरी है कि यहाँ के निवासी अपने नेताओं में किन गुणों की अपेक्षा करते हैं.
इन प्राथमिकताओं का पता लगाने के लिए हमने सर्वेक्षण में शामिल लोगों का एक परीक्षण किया. हमने इनके सामने झुग्गी-झोपड़ियों के कुछ ऐसे छद्म निवासियों के नाम रखे, जो बस्ती के अंदर ही नेता बनने के लिए लालायित थे. हमने उनके सामने इन महत्वाकांक्षी नेताओं की जाति, धर्म, उनके मूल स्थान, काम-धंधे, शिक्षा के स्तर और उनके पक्षधर ताल्लुकात के बारे में अंधाधुंध क्रम से जानकारी रखी. इन तमाम जानकारियों को रखने के बाद हमने उनसे पूछा कि वे इनमें से किन दो नेताओं को अपना नेता बनाना पसंद करेंगे.
इस परीक्षण के परिणामों से यह स्पष्ट हो गया कि झुग्गी-झोपड़ियों के गरीब प्रवासी निवासी भी उन घिसे -पिटे मतदाताओं की तरह नहीं हैं जो किसी भी जाति या धर्म के नाम पर खड़े लोगों के पीछे बिना सोचे-समझे खड़े हो जाते हैं. इसके विपरीत, हमारे सर्वेक्षण के आँकड़ों से पता चलता है कि झुग्गी-झोपड़ियों के ये निवासी अपने नेता के रूप में केवल उन्हीं उम्मीदवारों को पसंद करते हैं जो सबसे अधिक सुशिक्षित होते हैं. उदाहरण के लिए, अशिक्षित उम्मीदवारों के मुकाबले कॉलेज से शिक्षित उम्मीदवारों के पक्ष में 13 प्रतिशत वोट अधिक पड़े. अपनी ही जाति या धर्म के इच्छुक उम्मीदवारों के मुकाबले शिक्षित उम्मीदवारों के पक्ष में लगभग दुगुने वोट पड़े. शिक्षा का केंद्रबिंदु इसी आधार पर तय होता है कि झुग्गी-झोपड़ियों के निवासियों के नेता वही हो सकते हैं, जो अर्जी लिख सकते हों या आधिकारिक पत्राचार का रिकॉर्ड रख सकते हों. झुग्गी-झोपड़ियों के निवासी ऐसे लोगों को अपने नेता के रूप में पसंद करते हैं जिनके नगर के पदाधिकारियों से करीबी रिश्ते हों और वे उन्हें भी ऐसे पदाधिकारियों से मिलवा सकते हों. इसी कारण ये निवासी ऐसे संबंध न रखने वाले सड़क पर रेड़ी लगाकर माल बेचने वालों या घर को रँगने वाले पेंटरों के बजाय नगर निगम के क्लर्कों या सुरक्षा गार्डों को अपने नेता के रूप में अधिक पसंद करते हैं. इसके अलावा हमने यह भी पाया है कि कोई प्रवासी निवासी जितना अधिक समय शहर में बिताता है, उतना ही अधिक वह अपने नेताओं की शिक्षा और काम-धंधे को मान देता है और अपनी जाति या धर्म से संबंधित पहचान का कम से कम ख्याल करता है.
एक छद्म नेता यह दावा तो कर ही सकता है कि झुग्गी-झोपड़ियों के निवासी उन्हीं नेताओं को पसंद करते हैं जिनमें खास तरह के गुण हों, लेकिन उन्हें जो नेता वास्तव में मिलते हैं, उनमें वे गुण नहीं होते. ठीक इसी सवाल का जवाब खोजने के लिए हमने जिन निवासियों का सर्वेक्षण किया, उनमें से एक ही तरह की 110 झुग्गी-झोपड़ियों के नेताओं का सर्वेक्षण किया. अगले सप्ताह के कॉलम में हम इस सर्वेक्षण पर चर्चा करेंगे. साथ ही उन परिणामों की भी चर्चा करेंगे जिनसे यह पता चलता है कि अधिकांश चुने हुए नेताओं में वही सब गुण होते हैं, जो वस्तुतः झुग्गी-झोपड़ियों के निवासी अपने नेताओं में देखना पसंद करते हैं.
ऐडम ऑएरबैक अमेरिकन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ इंटरनैशनल सर्विस में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
तारिक़ थैचिल वैंडरबिल्ट विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के सह प्रोफ़ेसर हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919