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भारत में पर्यावरण संबंधी न्याय के आंदोलन

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04/11/2019
ब्रतोती रॉय

मार्च 2019 में चिपको आंदोलन की 46 वीं सालगिरह मनायी गयी थी. आम तौर पर इसे भारत में पर्यावरण संबंधी न्याय का पहला आंदोलन माना जाता है, लेकिन अगर हम इतिहास पर नज़र दौड़ाएँ तो पाएँगे कि भारत में पर्यावरण संबंधी न्याय के आंदोलनों का इतिहास इससे कहीं अधिक पुराना है. 1859-63 के दौरान नील की खेती की विरुद्ध बंगाल के किसानों द्वारा किये गए ज़मीनी विद्रोह को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आरंभिक विद्रोह माना जा सकता है और इस विद्रोह में पारिस्थितिकी (ecology) के संरक्षण के आंदोलन की सुगबुगाहट देखी जा सकती है. गाँधी जी के स्वतंत्रता आंदोलन में भी ईको सिस्टम और यहाँ के सात लाख गाँवों में उन लोगों के प्रति चिंता के स्वर सुनाये देते हैं, जो आत्मनिर्भरता के म़ॉडल की वकालत करने के साथ-साथ औद्योगीकरण का भी विरोध कर रहे थे. स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र-निर्माण के नाम पर बहु-उद्देशीय बाँधों और इस्पात के संयंत्रों का बड़ी मात्रा में निर्माण किया जाने लगा. औद्योगीकरण की तीव्र गति के कारण पर्यावरण के आंदोलनों की भी बाढ़-सी आ गई और ये लोग जल, जंगल और ज़मीन के संरक्षण के लिए आंदोलन करने लगे. इनमें से कुछ थे, नर्मदा बचाओ आंदोलन, आप्पिको आंदोलन और मौन घाटी आंदोलन आदि. इसके अलावा, हाल ही में नियमगिरि, ओडीसा में वेदांता और तूतूकुड़ी, तमिलनाडु में बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों के खिलाफ़ आंदोलन भी शुरू हो गए हैं. ये आंदोलन धीरे-धीरे धीमे पड़ जाते हैं और उनमें अनिश्चितता आने लगती है और वे कई प्रकार के अन्याय और असमानताओं के दौर से भी गुज़रने लगते हैं. इस तरह के आंदोलनों में आदिवासी आगे बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं.

आखिर भारत में पर्यावरण संबंधी न्याय के आंदोलन हैं क्या ?
पारिस्थितिकीय वितरण के संघर्षों (EDCs) के विरुद्ध चलाये जाने वाले आंदोलन ही पर्यावरण संबंधी न्याय के आंदोलन हैं. सत्ता और आमदनी में होने वाली असमानता के कारण ये विवाद पर्यावरण की लागत और लाभ को लेकर संघर्ष का रूप धारण कर लेते हैं और व्यापक अर्थों में इन संघर्षों में वर्ण, जाति, वर्ग और लैंगिक आधार पर होने वाली अनियमितताएँ निहित होती हैं. इन्हें प्राकृतिक संसाधनों के अनुचित वितरण और प्रदूषण के अन्यायपूर्ण बोझ से उत्पन्न सामाजिक संघर्षों का नाम भी दिया जा सकता है. पिछले पाँच दशकों में ये आंदोलन उठ खड़े हुए हैं और हाल ही के वर्षों में ये आंदोलन नये-नये क्षेत्रों में तेज़ी से फैल गए हैं और इनके प्रतीक भी बदल गए हैं. पारिस्थितिकीय वितरण के संघर्ष (EDCs) अब केवल ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित नहीं रह गए हैं. ये संघर्ष विभिन्न संदर्भों और परिवेशों में भी प्रकट होने लगे हैं. जैसे गोआ में कोयले के आयात के विरोध में मुरगाँव बंदरगाह के विस्तार को रोकने के विरुद्ध और मुंबई में शहर की अंतिम बची हुई हरित पट्टी को हटाकर उसके स्थान पर मैट्रो कार शैड बनाने के प्रयोजन से मुंबई के आरे वन को बचाने के लिए आंदोलन चलाये जा रहे हैं.

भारत में पिछले पाँच दशकों में पारिस्थितिकीय वितरण के कितने संघर्ष (EDCs) हुए, इसका अनुमान लगाने का हम दावा भी नहीं कर सकते, परंतु पर्यावरण संबंधी न्याय के आंदोलनों की विश्वव्यापी सूची पर्यावरण संबंधी न्याय के ऐटलस (EJAtlas) के अनुसार भारत में सबसे अधिक पर्यावरण संबंधी न्याय के आंदोलन (प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार लगभग 300 के आसपास) चलाये गए हैं. इन संघर्षों में से 57 प्रतिशत आंदोलन आदिवासियों द्वारा चलाए गए भारत के पर्यावरण संबंधी न्याय के आंदोलनों से संबंधित थे. इन आंदोलनों में आदिवासियों की भागीदारी से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐतिहासिक निष्कासन और हाशिये पर रहने के कारण ये समुदाय अनेक प्रकार के अन्याय के शिकार होते रहे हैं. इन्हें “पराया” समझे जाने की प्रक्रिया को ऐतिहासिक प्रक्रिया के गहन विश्लेषण से समझा जा सकता है. न तो इन्हें इंसान समझा जाता था और न ही इन्हें कोई अधिकार प्राप्त थे. उनसे भेदभाव किया जाता था और ये लोग आसानी से अत्याचार के शिकार हो सकते थे.

इसके बावजूद उन्होंने जल, जंगल और ज़मीन के संरक्षण का आंदोलन जारी रखा. ज़मीनी स्तर पर चलने वाले इन आंदोलनों के कारण ही एक महत्वपूर्ण कानून बना, जिसमें जनजातीय लोगों के भूमि-अधिकारों पर ज़ोर दिया गया. वन अधिकार अधिनियम (FRA) या अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 सबसे अधिक महत्वपूर्ण कानून हैं. इस कानून के कारण अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासियों पर होने वाले ऐतिहासिक अन्याय को मान्यता प्रदान की गई. इनके अंतर्गत वनभूमि और सामुदायिक वन संसाधनों पर इनके परंपरागत अधिकारों को संरक्षण प्रदान किया गया और लोकतांत्रिक रूप में समुदाय-आधारित शासन व्यवस्था को स्थापित किया गया.

साम्राज्यवादी दौर में वनवासियों के अधिकारों को अभिलेखित करने की कोई प्रथा नहीं था. इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर ज़मीनी आधार पर चलने वाले आंदोलनों के कारण ही वन अधिकार अधिनियम (FRA) नाम से कानून बना और वनवासियों के अधिकारों को अभिलेखित करने की प्रथा को लागू करने का उन्हें वैधानिक अधिकार मिल गया. आज़ादी के बाद के दौर में भी औद्योगिक और संरक्षण की परियोजनाओं को शुरू करने के लिए उनके पुनर्वास के बिना ही वनवासियों को उनकी ज़मीन से विस्थापित कर दिया गया और उन पर वनभूमि पर अवैध कब्ज़ा करने वाले “घुसपैठियों” का लेबल लगा दिया गया. वन अधिकार अधिनियम (FRA) के आधार पर ही एक कानूनी प्रक्रिया शुरू हुई और वनभूमि के असली मालिकों के अधिकारों का निर्धारण हुआ और तदनुसार वनभूमि पर उनके अधिकारों को मान्यता मिली और उनके सत्यापन की प्रक्रिया आरंभ हुई. इस कानून के माध्यम से उन्हें एक ऐसा ज़बर्दस्त हथियार मिल गया, जिसके कारण न तो कोई कंपनी और न ही कोई राज्य सरकार कानूनी तौर पर मान्यता और सत्यापन की प्रक्रिया पूरी किये बिना कोई परियोजना शुरू कर सकती है. लेकिन पिछले दस वर्षों में कई राज्यों में ऐसे अनेक मामले सामने आए हैं जिनमें इस प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया. ऐसे भी अनेक मामले हैं, जहाँ वन अधिकार अधिनियम (FRA) का स्पष्ट उल्लंघन किया गया.

दस वर्ष के बाद वन अधिकार अधिनियम (FRA) के प्रभाव की जाँच के आधार पर तैयार की गई एक रिपोर्ट के अनुसार यह पाया गया कि सामुदायिक वन संसाधन (CFR) की न्यूनतम क्षमता के केवल 3 प्रतिशत लक्ष्य ही प्राप्त किये जा सके हैं. इसके खराब कार्यान्वयन के अनेक कारणों में से कुछ प्रमुख कारण हैं, राजनीतिक इच्छा-शक्ति (राष्ट्रीय और राज्य दोनों ही स्तरों पर) का अभाव, क्षमता निर्माण में जनजातीय मामला मंत्रालय (जो इसकी केंद्रीय नोडल एजेंसी है) की असमर्थता, वन अधिकारियों द्वारा ज़मीनी स्तर पर इस कानून का विरोध करना, इसके कार्यान्वयन के लिए बहुत कम निवेश और इसकी निगरानी के लिए पर्याप्त अधिकारों का अभाव.

13 फ़रवरी, 2019 को उच्चतम न्यायालय ने अपने एक आदेश के माध्यम से वन अधिकार अधिनियम (FRA) के अंतर्गत लगभग 10 मिलियन से अधिक उन आदिवासियों को विस्थापित कर दिया, जिनके दावे अस्वीकृत हो चुके थे. इस आदेश के कारण पर्यावरण न्याय के अनेक कार्यकर्ताओं और जनजातीय समुदायों में निराशा की लहर फैल गई है. इसके कारण संरक्षण के नाम पर जनजातीय अधिकारों के उल्लंघन के कारण भारी आंदोलन शुरू हो गए. इसके फलस्वरूप 28 फ़रवरी को अगली सुनवाई होने तक स्थगन आदेश जारी कर दिया गया. इस आदेश में राज्यों को निर्देश दिये गए कि वे उन तमाम मामलों में जिनके दावे अस्वीकृत किये गए थे, कानून की उचित प्रक्रिया पालन करने के साक्ष्य दिखाएँ. तब से लेकर आज तक कई बार सुनवाई को टाला गया है, लेकिन केंद्र सरकार वन अधिकार अधिनियम (FRA) के बचाव के समय अनुपस्थित रही. 2 सितंबर, 2019 को हुई अंतिम सुनवाई के दौरान सिक्किम को छोड़कर शेष सभी राज्यों ने अपने साक्ष्य प्रस्तुत कर दिये हैं और फिर यह तय किया गया कि इस संबंध में सभी तर्कों की अंतिम सुनवाई 26 नवंबर, 2019 को की जाएगी.

हाल ही के वैश्विक अध्ययन में प्रत्यक्ष और परोक्ष हिंसा के उन तमाम पहलुओं की जाँच की गई है जिनसे पर्यावरण के संरक्षण में संलग्न लोग जूझते रहते हैं. हमारे देश के वे सभी समुदाय जो इससे संबंधित आंदोलनों से जुड़े रहते हैं ज़मीन और पर्यावरण को बचाने के प्रयासों में अपराधीकरण, हिंसा और प्राणघातक हमलों के बहुत अधिक शिकार होते हैं. इनमें सबसे अधिक मौतें खनन और निष्कर्षण से जुड़े उद्योगों में होती हैं. जुलाई,2019 में जारी की गई वैश्विक साक्ष्य रिपोर्ट “राज्य के शत्रु?”के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार निष्कर्षण से जुड़े उद्योगों से अपने घरों, नदियों और जंगलों के बचाव में लगे लोगों की हत्या के मामले में भारत का स्थान तीसरा है. इस प्रकार की प्रत्यक्ष हिंसा के अलावा वन अधिकार अधिनियम (FRA) के आदेशों के फलस्वरूप होने वाली हिंसा को धीमी और प्रक्रियागत हिंसा के अंतर्गत रखा जा सकता है.

आदिवासियों की भागीदारी से जुड़े आंदोलनों और हिंसक आंदोलनों के संदर्भ में एक सुविचारित महत्वपूर्ण न्याय-प्रक्रिया की आवश्यकता है ताकि उसमें एक ऐसा नज़रिया अपनाया जा सके जिसमें पहले की विशिष्ट दमनकारी वारदातों के साथ-साथ पर्यावरण संबंधी न्याय के उन तमाम मूलभूत कारणों और उपायों की भी संयुक्त रूप में जाँच की जा सके. यह समझने के लिए स्थानीय परिवेश में पर्यावरण न्याय की अवधारणाओं को सही संदर्भ में देखने की आवश्यकता है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि गैर-आनुपातिक रूप में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में भारी हिंसा का शिकार होने के बावजूद ये आदिवासी इतनी बड़ी संख्या में पर्यावरण न्याय के आंदोलनों में भाग क्यों लेते हैं. इस दृष्टि से ही पर्यावरण-न्याय संबंधी साम्राज्यवादी सोच से अलग हटकर आगे बढ़ा जा सकता है. इसमें ज्ञान-मीमांसा (epistemologies) और अनुभवों के विभिन्न प्रकारों की को भी शामिल किया जा सकता है.

ब्रतोती रॉय बार्सोलोना के स्वायत्त विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान के EnvJustice (www.envjustice.org) दल की सदस्या हैं.पीएच.डी के उनके शोधकार्य का केंद्रबिंदु है, पारिस्थितिकीय अर्थशास्त्र और राजनीतिक पारिस्थितिकी के ढाँचों के माध्यम से भारत में पर्यावरण-न्याय से संबंधित आंदोलन. वह पारिस्थितिकीय अर्थशास्त्र की भारतीय सोसायटी की निर्वाचित कार्यकारिणी समिति की सदस्या भी हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919