समावेशी विकास या “गरीबोन्मुखी” विकास भारत के विकास संबंधी विमर्श का एक महत्वपूर्ण विचारबिंदु बन गया है. इसे व्यापक समर्थन मिला है, क्योंकि इस विकास में दो सबसे महत्वपूर्ण बातें शामिल हैं: प्रगतिवादी (या अधिक समतावादी) वितरण सहित आमदनी में वृद्धि. इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले बीसवीं सदी के आरंभ में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यूपीए-1 सरकार के कार्यकाल में किया गया था. उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में एनडीए सरकार ने इसे आगे बढ़ाया, लेकिन क्या ‘समावेशी विकास’ ‘सबका साथ, सबका विकास’ के नारे से कहीं आगे की बात है?
सन् 2022 तक किसानों की आमदनी दुगुनी करने के भारत सरकार के लक्ष्य के आलोक में हमने सन् 2003 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा किये गये किसानों के स्थिति मूल्यांकन सर्वेक्षण के साथ-साथ सन् 2013 में किये गये खेतिहर परिवारों के स्थिति मूल्यांकन सर्वेक्षण का विश्लेषण करते हुए “सबका विकास” के मुद्दे की छानबीन की. हालाँकि देश के संपूर्ण मज़दूर वर्ग की आधी आबादी खेतीबाड़ी के काम में ही जुटी रहती है, लेकिन प्रति व्यक्ति उत्पाद का स्तर सबसे कम रहता है (और यही कारण है कि इनका गरीबी का स्तर भी सबसे अधिक रहता है). इसलिए ज़ाहिर है कि अगर भारत में समावेशी विकास होगा तो इसकी शुरुआत कृषि क्षेत्र से ही करनी होगी. जब सर्वेक्षणों के बीच की समग्र आमदनी और ऊँचे छोर (बड़े भूमिधारियों) की तुलना में अंतिम छोर (छोटे और सीमांत भूमिधारियों) की आमदनी के वितरण में अधिक तेज़ी से वृद्धि होगी, तभी यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सचमुच समावेशी विकास हुआ है. हमने कृषि क्षेत्र में समावेशन के सबूत को खोजने की कोशिश की है.
2003-13 के बीच हमें वास्तविक अर्थ में 1.34 के कारक की समग्र आय वृद्धि का सबूत मिला है, लेकिन हमने यह भी पाया है कि अधिक भूमिसंपन्न लोगों की आमदनी में तेज़ी से वृद्धि होती है और कम ज़मीन वालों की आमदनी की वृद्धि सबसे कम रफ़्तार से होती है.10 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन वाले परिवारों (भारत में सबसे बड़े भूमिधारी वर्ग) की आमदनी दुगुनी दिखाई देती है. वस्तुतः कम से कम 1 हेक्टेयर ज़मीन वाले सभी परिवारों की आमदनी में कम से कम 1.5 गुना वृद्धि दिखाई देती है. छोटे भूमिधारियों की आमदनी सबसे कम हुई; सीमांत भूमिधारियों (0.4 हेक्टेयर से कम ज़मीन वालों) की आमदनी में केवल 1.1 गुना वृद्धि दिखाई दी. सामान्य तौर पर जितना छोटा भूमिधारी वर्ग था, उसकी आमदनी की रफ़्तार भी उतनी ही कम थी. जहाँ तक ज़मीन के स्वामित्व का प्रश्न है, इनकी स्थिति समावेशी विकास के ठीक विपरीत रही अर्थात् प्रतिगामी विकास हुआ.
औसत में ये अंतर अधिक आमदनी की असमानता को प्रदर्शित करते हैं. हमने गिनी गुणांक का इस्तेमाल किया है, जो असमानता को मापने का एक लोकप्रिय पैमाना है. इस पैमाने में 0 और 1 के मूल्य को लिया जाता है, 0 पूर्ण समानता और ऊँची कीमत का मूल्य है, जो आमदनी की असमानता को मापने के लिए असमानता के उच्चतर स्तर को दर्शाता है. हमने पाया कि 2003-13 के बीच की आमदनी के लिए गिनी गुणांक लगभग 0.6 है. यह आकलन कम भी हो सकता है, क्योंकि यह मान्यता है कि ऐसे सर्वेक्षण आमदनी के वितरण के ऊँचे छोर के परिवारों तक नहीं पहुँच पाते.
इसे सही संदर्भ में रखकर देखें तो पाएँगे कि यदि आमदनी की असमानता के इस स्तर को समग्र रूप में पूरे देश (और यह सोचने के सही कारण भी हैं और इसकी पूरी संभावना भी है) के लिए मान लिया जाए तो यह विश्व के उच्चतम स्तरों में से एक होगा. यहाँ एक गंभीर चेतावनी भी है जो कृषि क्षेत्र से कहीं आगे बढ़कर है- भारत में आमदनी की असमानता बहुत ज़्यादा है. यह असमानता भ्रामक असमानता के उस अनुमान से कहीं अधिक है जो 0.29 से लेकर 0.38 तक के (क्रमशः ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में) गिनी गुणांकों के बीच की रेंज वाले व्यय सर्वेक्षणों से प्राप्त हुआ है. हमारे नतीजे उस उभरती हुई आम सहमति के लिए सीमित, लेकिन भारी समर्थन प्रदान करते हैं, जिसके अनुसार भारत में आमदनी की असमानता बहुत ज़्यादा है.
कुछ राज्यों (बिहार और पश्चिम बिहार) में आमदनी के गतिरोध के कारण और अनेक बड़े राज्यों में आय के स्रोतों की विविधता की कमी के कारण सीधे ही समावेशी विकास और उप-राष्ट्रीय स्तर पर आमदनी की असमानता का सवाल उठता है. सन् 2013 में, कुल आमदनी की लगभग आधी (49 प्रतिशत) आमदनी कृषि के कारण हुई और अनेक महत्वपूर्ण राज्यों (पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र, असम, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और बिहार) में आधी से अधिक आमदनी कृषि के कारण हुई. हालाँकि मज़दूरी अधिक ज़रूरी थी (2013 में लगभग 31 प्रतिशत आमदनी इससे हुई), फिर भी खेती की तुलना में इससे आमदनी की रफ़्तार बहुत कम रही. सबसे कम आमदनी के स्रोत वाले लोग वही थे, जो कृषि से इतर कारोबार (8 प्रतिशत) करते थे. यह उल्लेखनीय है कि कृषि से इतर कारोबारों से जो आमदनी हुई, वह कुल आय की 10 प्रतिशत से अधिक नहीं थी, लेकिन इनमें भी तीन राज्य (केरल, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु) शामिल नहीं थे. हमने हाल ही में जो पैटर्न देखा है, वह नीति आयोग में हुई चर्चा के इस निष्कर्ष से मेल नहीं खाता कि “ग्रामीण आमदनी का लगभग दो तिहाई भाग इस समय कृषि से इतर कार्यकलापों से आता है.”
हम जुताई (और सामान्यतः कृषि) से होने वाली दो स्तरीय आमदनी वाले समावेशी विकास की संभावना और खेतीयोग्य ज़मीन के लगातार होते विखंडन को लेकर कैसे आशान्वित हो सकते हैं? 2010-11 से जोत का औसत आकार 1.15 हेक्टेयर था. 40 साल के आधार पर की गई कृषि-गणना से पता चलता है कि औसत जोत का आकार घटकर आधा रह गया है और सीमांत भूमिधारियों की संख्या बढ़कर तीन गुना हो गई है. ज़मीन के लगातार होते विखंडन के गंभीर परिणाम सामने आ रहे हैं. इसका असर कृषि क्षेत्र में आमदनी के अर्जन और आमदनी की असमानता-दोनों पर ही पड़ा है. हमने पाया है कि जुताई से होने वाली आमदनी के निर्धारण का मुख्य परिवर्ती कारक है, भूमि का स्वामित्व. हमारी गणनाओं में आमदनी की असमानता का आधा कारण तो यही है और इसी से मुख्य परिवर्ती कारक के रूप में आमदनी की असमानता को समझाया जाता है.
हाल ही में मिंट के एक स्तंभ में निरंजन राजाध्यक्ष ने स्पष्ट किया था कि सन् 1936 में बी.आर. अम्बेडकर के नेतृत्व में गठित स्वतंत्र लेबर पार्टी के घोषणा पत्र में “खेतीयोग्य ज़मीन के विखंडन और उसके कारण खेतिहर किसानों की होने वाली आर्थिक दुर्दशा की समस्या” को उजागर किया गया था. सुखमय चक्रवर्ती द्वारा तीन दशक पहले दिये गये एक निर्णय की ओर भी हमारा ध्यान जाता है. श्री चक्रवर्ती भारत की योजनाओं से निकटता से जुड़े थे. इस निर्णय के अनुसार, “ज़मीन की ‘प्रभावी’ कमी को घटाये बिना आय के वितरण में स्थायी सुधार नहीं लाया जा सकता.” स्पष्टतः ऐसा नहीं हुआ और न ही कोई ऐसा बड़ा परिवर्तन ही हुआ है जिससे खेतिहर मज़दूरी को छोड़कर लोग ग्रामीण कृषि से इतर या शहरी काम की ओर मुड़ गए हों. कृषि के क्षेत्र में आए इस गतिरोध का स्पष्ट कारण यही तथ्य है कि 2003-13 के बीच जुताई से होने वाली आमदनी मज़दूरी से होने वाली आमदनी और कृषि से इतर कामों से होने वाली आमदनी दोनों से ही अधिक हो गई.
उत्पादन में वृद्धि होने से लागत में कमी लाने वाली स्केल अर्थव्यवस्थाओं, ऋण प्राप्त करने या केवल निर्वाह-भर तक सीमित रहने वाली खेती के विपरीत बाज़ारोन्मुख खेती करने में छोटे खेत वाले भूमिधारियों के सामने आने वाली कठिनाइयों को देखते हुए इस बात की भारी आशंका है कि उत्पादकता बढ़ाने के उद्देश्य से शुरू की गई अधिकांश योजनाओं का लाभ केवल उन भूमिधारियों को ही मिलेगा, जिनके पास बड़े खेत हैं. यह तर्क केवल उत्पादकता बढ़ाने के विरोध में नहीं है, बल्कि सिर्फ़ एक चेतावनी है कि जब तक भूमि विखंडन की समस्या हल नहीं हो जाती और कारोबार की परिस्थितियाँ सामान्य नहीं हो जातीं, तब तक “2022 तक किसानों की आमदनी दुगुनी करने” की बड़ी-बड़ी नीतियों से सीमांत और छोटे भूमिधारियों को कोई लाभ नहीं मिलेगा. भले ही किसानों की आमदनी दुगुनी होने की संभावना हो, फिर भी यह बिल्कुल निश्चित है कि यह योजना बड़े भूमिधारियों की आय वृद्धि पर ही आधारित रहेगी. खेती की ज़मीन के विखंडन का क्रम जारी रहने से यह तो निश्चित है कि 2022 तक (या निकट भविष्य में भी) कृषि के क्षेत्र में (और इसके परिणामस्वरूप संभवतः पूरे भारत में) समावेशी विकास संभव नहीं हो पाएगा. अगर बी.आर. अम्बेडकर या सुखमय चक्रवर्ती हमारे आसपास होते और इन परिस्थितियों में उन्हें कोई टिप्पणी करनी होती तो वे इस पर कतई हैरान न होते.
संजय चक्रवर्ती टैम्पल विवि के भूगोल व शहरी अध्ययन विभाग में प्रोफ़ेसर हैं; एस.चंद्रशेखर इंदिरा गाँधी विकास अनुसंधान संस्थान, मुंबई में प्रोफ़ेसर हैं; और कार्तिकेय नारपराजु भारतीय प्रबंध संस्थान, इंदौर में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919