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अंतरिक्ष युद्ध और प्रदूषण पर मिशन शक्ति का प्रभाव

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16/12/2019
निवेदिता राजू

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 मार्च,2019 का अपना संबोधन इस घोषणा के साथ आरंभ किया था कि “भारत अब वैश्विक महाशक्ति बन गया है.” उनका यह बयान इस धारणा पर आधारित था कि उपग्रह-विरोधी हथियारों का यह परीक्षण (ASAT) अंतरिक्ष किराये पर लेने वाले एक राष्ट्र के रूप में भारत की स्थिति को स्थापित करने के लिए यह “अनिवार्य” था, लेकिन किफ़ायती दरों पर नवोन्मेषकारी टैक्नोलॉजी के निर्माण की अनूठी क्षमता के कारण भारत को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई दशकों से अंतरिक्ष किराये पर लेने वाले एक राष्ट्र के रूप में मान्यता पहले से ही मिलती रही है और यह तथ्य इस बात से प्रमाणित होता है कि कई विदेशी राष्ट्र भारत की प्रक्षेपण क्षमता का निरंतर उपयोग करते रहे हैं. कुछ लोग भारत की सैन्य क्षमता को प्रमाणित करने के लिए यह तर्क आवश्यक मानते हैं. इस तर्क में इसलिए दम नहीं है, क्योंकि सैन्य और नागरिक दोनों ही प्रकार की अंतरिक्ष संबंधी अधिकांश टैक्नोलॉजी का दोहरा उपयोग निगरानी और टोही उद्देश्यों के लिए किया जाता है.

इसके विपरीत, उपग्रह-विरोधी हथियारों के परीक्षण (ASAT) का स्वरूप शुद्ध रूप में आक्रामक था. इसमें "काइनेटिक मारक" टैक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया था, जो उच्च गति से एक लक्ष्य पर प्रहार करने के लिए मिसाइल की काइनेटिक ऊर्जा को नियोजित करती है और इसका उद्देश्य अंतरिक्ष की किसी अन्य वस्तु (जैसे उपग्रह) के कार्यों को पूरी तरह से बाधित करने या बुरी तरह से नष्ट करने के लिए होता है. भारत पर इस समय कोई खतरा नहीं है और न ही सरकार को अपनी आक्रामक क्षमता को तत्काल सिद्ध करने के लिए कोई और वजह है. बहरहाल आगामी चुनावों के लिए इसकी ज़रूरत ज़रूर पड़ सकती है. हाँ, यह सही है कि मोदी ने तत्काल ही इस बात का आश्वासन ज़रूर दिया है कि उपग्रह-विरोधी हथियारों के परीक्षण (ASAT) “किसी के भी खिलाफ़ नहीं हैं” और साथ ही यह भी कहा है कि भारत हमेशा ही अंतरिक्ष के शस्त्रीकरण और बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की दौड़ के विरोध में रहा है और “भारत ने किसी भी ऐसे अंतर्राष्ट्रीय कानून या संधि की शर्तों का उल्लंघन नहीं किया है, जिसका वह सदस्य रहा है”.

चूँकि उपग्रह-विरोधी हथियारों के परीक्षण (ASAT) से संबंधित स्थिति पर वैश्विक स्तर पर कोई आम सहमति नहीं बनी है, इसलिए भारत के उपग्रह-विरोधी हथियारों के परीक्षण (ASAT) की वैधता का कानूनी आधार गलत है. बाहरी अंतरिक्ष के हथियारों को मोटे तौर पर दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है: परमाणु हथियार और गैर परमाणु हथियार. उसके बाद गैर परमाणु हथियारों को भी दो और वर्गों में विभाजित किया जा सकता है: काइनेटिक हथियार (उपग्रह-विरोधी  हथियारों के  परीक्षण (ASAT) और गैर काइनेटिक हथियार (वे तमाम उभरती तकनीकें, जैसे लेज़र डैज़लिंग, जैमिंग या स्पूनिंग तकनीकें, जो अंतरिक्ष में किसी वस्तु के साथ हस्तक्षेप करती हों). उपग्रह-विरोधी  हथियारों के परीक्षण (ASAT) में एक बहुत बड़ा जोखिम तो यही रहता है कि इससे किसी भी तरह के भयानक दुष्परिणाम हो सकते हैं, क्योंकि लक्ष्य को अस्थायी या स्थायी तौर पर निष्क्रिय बनाने से आसपास की अन्य वस्तुओं पर भी प्रभाव पड़ सकता है. इनमें उस देश द्वारा प्रक्षेपित उपग्रह-विरोधी हथियारों के परीक्षण (ASAT) संबंधी मिसाइल भी शामिल हैं. स्वाभाविक तौर पर यह सवाल उठता है कि आखिर विध्वंसक हथियार के उपयोग से संबंधित यह कानून इतना अस्पष्ट क्यों है?

भारत और अन्य अधिकांश देश जिस बाहरी अंतरिक्ष संधि के सदस्य हैं, उसकी शर्त यही है कि बाहरी और आकाशीय पिंडों से इतर निकायों का उपयोग “केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही” किया जाना चाहिए और यह संधि हथियारों के परीक्षण और सैन्य युद्धाभ्यास पर भी प्रतिबंध लगाती है. दुर्भाग्यवश, “शांतिपूर्ण उद्देश्यों” के अर्थ पर गर्मागर्म बहस होती रही है. कुछ लोग इसका यह अर्थ लगाते हैं कि इस संधि में किसी भी प्रकार की सैन्य गतिविधियों (“शांतिपूर्ण” को “असैन्य” से जोड़ते हुए) पर पूरा प्रतिबंध लगाया गया है, जबकि अन्य लोगों का मानना है कि इस संधि में सैन्य गतिविधियों में केवल उन गतिविधियों को ही शामिल किया गया है जो आक्रामक हों या जिनसे किसी भी अंतर्राष्ट्रीय कानून (“शांतिपूर्ण” को “गैर-आक्रामक” के समकक्ष बताने वाले किसी कानून) का उल्लंघन होता हो. भले ही उपग्रह-विरोधी हथियारों के  परीक्षण (ASAT) को बाहरी अंतरिक्ष संधि के दायरे में स्पष्ट रूप से शामिल नहीं किया गया है, फिर भी इस संधि के अनुच्छेद IV के अंतर्गत सभी देशों पर “किसी भी प्रकार की वस्तु से लेकर बड़े पैमाने पर विनाश करने वाले परमाणु हथियारों तक को पृथ्वी की कक्षा में ले जाने पर प्रतिबंध लगाया गया है, जैसे आकाशीय पिंडों पर ऐसे हथियारों को स्थापित करने या किसी अन्य तरीके से उन्हें बाहरी अंतरिक्ष में तैनात करने पर भी यह प्रतिबंध लागू है.” यह प्रावधान उपग्रह-विरोधी हथियारों के परीक्षण पर लागू नहीं होगा, क्योंकि वे केवल बाहरी अंतरिक्ष से होकर गुज़रते हैं और उन्हें किसी विशेष स्थान पर स्थापित भी नहीं किया जाता. इसके अलावा, ये हथियार परमाणु हथियार या महा-विनाशकारी हथियार नहीं होते.
इस आधार पर यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि उपग्रह-विरोधी हथियारों के परीक्षण (ASAT) को अनुमति प्रदान की गई है, लेकिन बाहरी अंतरिक्ष का अनुच्छेद III एक सामान्य अनुच्छेद है, जिसमें सभी देशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अंतर्राष्ट्रीय कानून, जिसमें संयुक्त राष्ट्र का चार्टर भी शामिल है, के अनुसार ही अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के हित में और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और आपसी समझ को बढ़ाने के लिए बाहरी अंतरिक्ष की खोज के साथ-साथ उसका उपयोग भी करते रहें.” संयुक्त राष्ट्र का यह चार्टर इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके अंतर्गत सभी देशों पर यह प्रतिबंध भी लगाया गया है कि वे न तो किसी प्रकार की धमकी देंगे और न ही बल-प्रयोग करेंगे और केवल आत्मरक्षा के लिए ही बल का प्रयोग कर सकेंगे. यह देखते हुए कि आत्मरक्षा को सही ठहराने के लिए कोई आसन्न खतरा नहीं था, और मिशन शक्ति को भारत की अपनी अंतरिक्ष वस्तु के खिलाफ़ निर्देशित किया गया था, उपग्रह-विरोधी हथियारों के परीक्षण (ASAT) को अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत बल प्रयोग कदाचित् कानूनी तौर पर वैध नहीं ठहराया जा सकेगा. इसके अलावा, अनुच्छेद III के अंतर्गत यह तर्क भी दिया जा सकता है कि भारत का यह प्रक्षेपण अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के माहौल को बिगाड़ रहा है. उपग्रह-विरोधी हथियारों के इस परीक्षण (ASAT) के कारण वैश्विक तनाव के वातावरण और विभिन्न प्रकार के क्षेत्रीय संघर्ष में वृद्धि हुई है. राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा अंतरिक्ष बल बनाने के वायदे और “अमरीकी प्रभुत्व” को देखते हुए इस प्रकार के बल प्रयोग से गलत धारणा बन सकती है कि अंतरिक्ष में संघर्ष को बढ़ने से रोका नहीं जा सकता. इसके अलावा, अंतरिक्ष में संघर्ष की अपरिहार्यता को लेकर लोगों की राय अलग-अलग तो हो सकती है कि लेकिन यह सच है कि अंतरिक्ष युग के साठ वर्षों के दौरान इस प्रकार का कोई संघर्ष अब तक नहीं हुआ और इस बात को लेकर काफ़ी गुंजाइश है कि सभी देश इस प्रकार के संघर्ष को रोकने के लिए हर संभव उपाय करें. इसके विपरीत, यदि भारत अपनी उन्नत अंतरिक्ष क्षमताओं के साथ, उपग्रह-विरोधी (ASAT) हथियारों का क्रूर परीक्षण करना शुरू कर देता है, तो उसकी यह कार्रवाई संघर्ष को हकीकत बनाने में मददगार हो सकती है.

बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ को रोकने (PAROS) के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक प्रयास किये गए हैं. इस प्रकार के प्रयासों की शुरुआत सन् 1981 से हुई जब संयुक्त राष्ट्र महासभा में इस विषय पर प्रस्ताव रखा गया और तब से लेकर आज तक हर साल ऐसा प्रस्ताव महासभा में रखा जाता है. विडंबना तो यही है कि भारत ने भी इस चर्चा में भाग लिया था. आचार संहिता के मसौदे से लेकर बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की स्थापना को रोकने के लिए की गई संधि तक और अंतरिक्ष की वस्तुओं के विरुद्ध बल प्रयोग की धमकी देने या बल प्रयोग करने तक के दस्तावेज़ उस संकल्प को दर्शाते हैं जिस पर अंतरिक्ष किराये पर लेने वाले रूस और चीन आदि समेत अन्य देश भी अमल करते हैं.

उपग्रह-विरोधी हथियारों (ASAT) की वैधता को अपने-आपमें ही भारत की कार्रवाई को गलत सिद्ध करने का पर्याप्त प्रमाण नहीं माना जा सकता. यह तर्क दिया जा सकता है कि उपग्रह-विरोधी हथियारों (ASAT) के परीक्षण उस अनुच्छेद IX का उल्लंघन करते हैं, जिसके अंतर्गत उन तमाम गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाया गया है, “जो अन्य देशों की गतिविधियों में घातक स्तर तक हस्तक्षेप करती हैं”, लेकिन इस प्रकार की गतिविधियों का संचालन करते समय "अन्य सभी देशों के तदनुरूपी हितों का ध्यान रखना" एक सामान्य दायित्व है. इसलिए, एक कानूनी दावे की गुंजाइश तो हो सकती है कि भारत की गतिविधियों के परिणामस्वरूप मलबे का जो निर्माण होता है, उसे बाहरी अंतरिक्ष में किसी अन्य देश की गतिविधियों में हस्तक्षेप माना जा सकता है.

मिशन शक्ति ने मलबे के हज़ारों टुकड़े तो निर्मित किये ही होंगे; कई महीनों के बाद उनमें से लगभग पचास टुकड़े अंतरिक्ष की कक्षा में अभी-भी पड़े हुए हैं. ऐसा प्रत्येक टुकड़ा, भले ही वह बड़ा हो छोटा, अंतरिक्ष की एक अलग वस्तु बन जाता है और भारत का उस पर क्षेत्राधिकार और नियंत्रण बना रहता है. इन टुकड़ों का आपस में टकराने और अन्य उपग्रहों से टकराने का भारी जोखिम बना रहता है और इनसे और भी मलबा निर्मित हो सकता है. भारत को यह अच्छी तरह से मालूम था कि इस परीक्षण से मलबे का निर्माण होगा और अनुच्छेद VI और VII के तहत उस पर इन टुकड़ों के संचालन की ज़िम्मेदारी बनती है और अगर इनसे कोई क्षति होती है तो वही उसके लिए उत्तरदायी होगा. देयता सम्मेलन (Liability Convention) नाम से एक अलग संधि की गई है. भारत उसका सदस्य है और यह संधि दो स्थितियों में लागू हो सकती है: या तो मिशन शक्ति से निकले अंतरिक्ष मलबे से हवा में उड़ने वाले किसी विमान को या पृथ्वी की सतह को क्षति पहुँचती हो या मिशन शक्ति से निकले अंतरिक्ष मलबे से किसी अन्य देश के उपग्रह को क्षति पहुँचती हो. देयता का मानक दो स्थितियों में अलग हो सकता है. पहले मानक के अनुसार उस देश पर “पूरी देयता” लागू होती है. इसका अर्थ है कि क्षति से प्रभावित देश को इसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती. दूसरी “चूक-आधारित देयता” होती है, जिसमें क्षति से प्रभावित देश को यह सिद्ध करना पड़ता है कि उसके उपग्रह की क्षति के लिए भारत दोषी है. इन दोनों ही स्थितियों में भारत देयता से दोषमुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि उसने मिशन शक्ति का प्रक्षेपण सोच-समझकर इरादे के साथ किया है. इसलिए यदि मलबे का एक भी टुकड़ा भविष्य में किसी अन्य देश के अंतरिक्ष की किसी वस्तु से टकराता है तो देयता सम्मेलन के अंतर्गत भारत को उस देश के दावे की क्षतिपूर्ति करनी होगी.
जब तक क्षति से प्रभावित देश इस प्रकार का कोई दावा नहीं करता तब तक अंतर्राष्ट्रीय कानून में इसे अन-सुलझा मामला ही माना जाता है. अंतरिक्ष के मलबे को कम करने से संबंधित दिशा-निर्देश और बाहरी अंतरिक्ष की गतिविधियों के दीर्घकालीन संचालन के लिए अनुमोदित दिशा-निर्देशों जैसे गैर-बाध्यकारी दस्तावेज़ यह दर्शाते हैं कि जानबूझकर इरादे के साथ किये जाने वाले मलबे को निर्मित करने की घटनाओं को टालने के लिए सदस्य-देशों में आम सहमति बनने लगी है. भले ही ये दस्तावेज़ गैर-बाध्यकारी हों फिर भी वे प्रथागत अंतर्राष्ट्रीय कानून के स्रोतों में विकसित होने की क्षमता रखते हैं.

यदि हम भारत की कार्रवाई को वास्तविक रूप से उचित मानते हैं तो अंतरिक्ष में संघर्ष से बचने के लिए इसे प्रोत्साहित करने के बजाय अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा को स्थिर बनाये रखने के लिए पारदर्शिता के साथ विश्वास निर्मित करने के उपायों (TCBMs) को अपनाते हुए तत्परता से प्रतिबद्ध रहने की आवश्यकता है. इससे अगला कदम यही हो सकता है कि हम अंतरिक्ष में अन्य देशों के साथ हथियारों की होड़ से बचने के लिए बाध्यकारी उपाय लागू करने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध हो जाएँ.

निवेदिता राजू मैकगिल विश्वविद्यालय की LLM की छात्रा है, जहाँ वह विभिन्न प्रकार की शोध परियोजनाओं पर काम करती हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919