भारत के लोग त्वचा के रंग पर बहुत ज़ोर देते हैं. डॉक्टरों का कहना है कि माँ-बाप का ध्यान अपने नवजात शिशु की दो बातों पर रहता हैः शिशु लड़का है या लड़की और उसका रंग कैसा है, गोरा या काला. सन् 2014 में भारतीयों ने ₹ 3,695 करोड़ ($550 मिलियन) गोरा करने वाले उत्पादों पर खर्च किया. कॉस्मेटिक बेचने वाली कंपनियाँ अपने विज्ञापनों के माध्यम से लगातार उपभोक्ताओं को याद दिलाती रहती हैं कि शादी हो या नौकरी, आपकी कामयाबी का राज़ गोरा करने वाली फ़ेयरनैस क्रीम में छिपा है. लेकिन क्या गोरे रंग के कारण कोई उम्मीदवार चुनाव भी जीत सकता है? उम्मीदवार की त्वचा के रंग के आधार पर चुनावी परिणामों का अध्ययन करने के लिए मैंने सूज़न ऑस्टरमैन, सहायक प्रोफ़ेसर, नोत्रे दाम विवि (पतझड़ (फ़ॉल) 2017 से आरंभ) और आशीष मेहता, यू.सी. सैंटा बारबरा में कार्यरत विकास विषयक अर्थशास्त्री के साथ मिलकर एक टीम के रूप में काम शुरू किया.
चुनाव के दौरान कुछ विशिष्ट मतदाताओं को उम्मीदवारों के बारे में कोई खास जानकारी होती. यही कारण है कि मतदाता उम्मीदवार के बारे में एक मोटी-सी धारणा बना लेते हैं. उन्हें लगता है कि मतदाता उनके हितों का ख्याल रखेगा. वह मोटे तौर पर यह ध्यान रखता है कि उम्मीदवार किस पार्टी का है, किस जाति का है, उसका धर्म क्या है? पुरुष है या महिला. हमारे शोध से पता चला है कि दलित वर्ग (और खास तौर पर गरीब मतदाता) समाज के अन्य वर्गों की तुलना में अक्सर उन उम्मीदवारों को पसंद करता है जिनकी त्वचा का रंग काला होता है. ये शोध परिणाम बाद में सन् 2016 में रेस, ऐथनिसिटी ऐंड पॉलिटिक्स जर्नल में प्रकाशित हुए थे.
गोरा रंग प्यारा होता है
दुनिया-भर में किये गये शोध-कार्यों से यही धारणा सिद्ध हुई है कि मतदाता उम्मीदवारों के शारीरिक रंग-रूप के आधार पर उन्हें वरीयता देते हैं. खास तौर पर त्वचा के रंग को वे बहुत महत्व देते हैं (इसे विद्वानों ने रंगवाद (colorism) कहा है). आम तौर पर काले रंग की तुलना में गोरे रंग को वरीयता दी जाती है. उदाहरण के लिए अमरीका में उजले काले रंग के अफ्रीकी अमेरिकन लोगों को गहरे काले रंग की तुलना में किसी पद के चुनाव के लिए अधिक वरीयता जाती है.
हमने यादृच्छिक आधार पर 599 मतदाताओं को सर्वेक्षण के लिए चुना था ताकि यह पता लगाया जा सके कि उम्मीदवारों के चुनाव में मतदाताओं की धारणा पर त्वचा के रंग का क्या असर पड़ता है और यह प्रभाव किस तरह का होता है. इन मतदाताओं को छह मतदान केंद्रों से चुना गया था: तीन दक्षिणी दिल्ली से (जो अपेक्षाकृत समृद्ध इलाका है) और तीन पूर्वी दिल्ली से (जो अपेक्षाकृत गरीब इलाका है). हमारे आंकड़ों के तदर्थ विश्लेषण से पता चलता है कि नमूने के तौर पर चुने गए हमारे प्रतिनिधियों में जाति, सामाजिक-आर्थिक हैसियत और पुरुष-स्त्री के रूप में उनके लिंग का अच्छी तरह से प्रतिनिधित्व किया गया है. हमने किसी खास पद के लिए खड़े होने वाले काल्पनिक उम्मीदवार के तीन उम्मीदवारों से संबंधित प्रोफ़ाइल बनाये. इनमें एक ही उम्मीदवार का फ़ोटोग्राफ़ था, जिसमें उनकी त्वचा का रंग गोरा, गेहुँआ या काला रखा गया था और उनके चुनावी अभियान के दौरान वायदे भी समान थे और विचारधारा की दृष्टि से उन्हें तटस्थ रखा गया था. हमने हरेक मतदाता को केवल एक ही यादृच्छिक ढंग से चुना हुआ फ़ोटोग्राफ़ दिखाया और पूछा कि क्या वे उस काल्पनिक मतदाता को अपनी विधान सभा के लिए वोट देना पसंद करेंगे. हमारे सर्वेक्षकों ने संभावित उम्मीदवार को समर्थन देने के बारे में हरेक मतदाता की इच्छा के साथ-साथ मतदाता की अपनी त्वचा के रंग को भी रिकॉर्ड किया. हमने अनुक्रिया देने वाले लोगों से उनकी जाति, आमदनी, शिक्षा और अन्य संबंधित विशेषताओं के बारे में भी पूछा. आशा के अनुरूप ही भूसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक विशिष्टताओं के संबंध में मतदाताओं के तीनों उप-समूहों के विचार पूरी तरह से समान नहीं थे (हमने सांख्यिकीय तकनीकों की मदद से इस प्रकार के असंतुलनों का पता लगाया).
हमारे शोध-परिणामों से यह पता चलता है कि दुनिया-भर के लोगों में गोरे रंग को वरीयता देने की जो सामान्य धारणा है, वही धारणा दिल्ली वालों की चुनावी संदर्भ में भी है. लेकिन यह धारणा उतनी मज़बूत नहीं है. इसका कारण यह नहीं है कि चुनावी संदर्भ में लोग त्वचा के रंग के आधार पर अंतर नहीं करते, बल्कि इसका कारण यह है कि त्वचा के रंग के बारे में उम्मीदवारों की वरीयता अलग-अलग है. रंगवाद के प्रति अनुक्रिया देने वाले हमारे सभी लोगों ने गोरे रंग के आधार पर संभावित उम्मीदवार को भारी समर्थन दिया. हमारे सर्वेक्षण में अन्य उम्मीदवारों की तुलना में गोरे रंग के उम्मीदवारों को 8 प्रतिशत अधिक लोगों ने वरीयता प्रदान की. यही कारण है कि भारतीय राजनीतिज्ञों को उनके असली रंग के बजाय पोस्टरों में अपेक्षाकृत उजले रंग से प्रदर्शित किया जाता है. राजनीतिक पोस्टर बनाने वाले लोगों ने इंटरव्यू के दौरान आम तौर पर यह स्वीकार किया कि वे राजनीतिज्ञों का रंग कुछ उजला रखने का प्रयास करते हैं.
काला या श्याम वर्ण भी बहुत प्यारा होता है.
गोरे रंग के प्रति अपेक्षित वरीयता की बात कम से कम कुछ वर्गों पर तो पूरी तरह से खरी उतरती है, फिर भी कुछ वर्ग ऐसे भी हैं जो काले रंग के उम्मीदवारों को अपेक्षाकृत भारी समर्थन देते हैं. काले रंग के उम्मीदवारों का यह अनपेक्षित समर्थन वंचित वर्ग के लोगों, गरीबों और दलितों द्वारा किया जाता है. इन दो वर्गों में अनुक्रिया देने वाले लोगों में गोरे और काले रंग के उम्मीदवारों को समर्थन देने वालों का अंतर बहुत कम था अर्थात् आँकड़ों की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण नहीं था. गरीब और दलित लोग इसी स्पष्ट पहचान के आधार पर संभवतः यह मानकर चलते हैं कि काले रंगे के उम्मीदवार नीची जाति और सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर तबके के होते हैं, भले ही चुनावी अपील में स्पष्ट रूप से गोरे और काले रंग का उल्लेख नहीं किया जाता. उऩके इस बर्ताव के पीछे एक तर्क है. हमारे आँकड़े दर्शाते हैं कि हाशिये पर रहने वाले वंचित वर्ग के इन लोगों का रंग भी ऊँची जाति और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के लोगों की तुलना में औसतन काला ही होता है. जब ये मतदाता अपने हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले किसी उम्मीदवार को चुनने की बात सोचते हैं तो उन्हें काले रंगे के उम्मीदवार कुछ परिचित से लगते हैं.
हमने यह भी देखा कि इस सर्वेक्षण में भी लगता है कि अनुक्रिया देने वाले काले रंग के लोग भी काले रंग के उम्मीदवारों की तुलना में गोरे रंग के उम्मीदवारों को ही वरीयता देते हैं. इससे एक बार फिर से इस धारणा को बल मिलता है कि इस सर्वेक्षण में अनुक्रिया देने वाले लोग गोरे या गेहुँआ रंग के उम्मीदवारों को ही वरीयता देते हैं. अपने-आपमें मतदाता का अपना रंग उम्मीदवारों के चयन को प्रभावित नहीं करता है. इसी प्रकार जब हमने अन्य जनसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक हैसियत के लोगों का सर्वेक्षण किया तो पाया कि अनुक्रिया देने वाले लोगों के लिंग अर्थात् पुरुष या स्त्री होने से भी उम्मीदवार के समर्थन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता.
आखिर यह इतना महत्वपूर्ण क्यों है ?
दिल्ली और पूरे भारत के निर्वाचन-मंडल में गरीबों और दलितों का हिस्सा बहुत बड़ा है. लोकतंत्र में संख्या बल का बहुत महत्व है और जहाँ दलित और गरीब लोग वोट डालने के लिए निकलते हैं तो वे हाशिये पर रहने वाले वंचित वर्ग में से भी उसी उम्मीदवार का समर्थन करते हैं, जिसका रंग काला होता है. इससे यह सिद्ध होता है कि आबादी के कुछ हिस्सों में रंगवाद को वरीयता देने के साक्ष्य मौजूद होने पर भी काले रंग वाले उम्मीदवार भी चुनाव जीत सकते हैं. दिल्ली की राज्य विधानसभा और भारतीय संसद के हमारे विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि भारत में काले रंग के निर्वाचित विधायकों और सांसदों की संख्या अच्छी-खासी है. बड़े पैमाने पर विधायकों के रंग का मूल्यांकन करने के लिए हमने एक डेटासैट तैयार किया है, जिसमें प्रत्येक विधायक (हमने उनके सरकारी चित्र का इस्तेमाल नहीं किया, जो उनके असली चित्र की तुलना में कुछ उजला हो सकता है) के बहुत-से चित्र हैं. हमने पाया कि सन् 2014 में चुने गए सांसदों में 28.5 प्रतिशत और सन् 2013 में चुने गए दिल्ली की राज्य विधानसभा के विधायकों में 25 प्रतिशत विधायकों का रंग काला था. काले रंग के राजनीतिज्ञों के भारी मात्रा में चुने जाने के कारण सार्वजनिक क्षेत्र में उनकी सत्ता और प्रतिष्ठा दोनों में ही इजाफ़ा होता है और इससे भारत में लंबे समय से चले आ रहे काले रंग का कलंक भी धुलने लगा है.
हमारे इस खोजपूर्ण अध्ययन से जितने अधिक सवालों के जवाब मिले हैं, उतने ही सवाल भी उठ खड़े हुए हैं. इसलिए इस बात की भी छान-बीन करनी होगी कि गोरे रंग को वरीयता देने की यह प्रवृत्ति क्या ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में, उत्तर और दक्षिण भारत में और पुरुष और महिला उम्मीदवारों में समान रूप में मिलती है.
अमित आहुजा सैंटा बारबरा में स्थित कैलिफ़ोर्निया विवि में राजनीति विज्ञान के ऐसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं.
हिंदीअनुवादः डॉ. विजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919