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मेरी मैट्रो कितनी साफ़-सुथरी है?

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23/05/2022
उषा राव
IiT English Page: 

सन् 2008 में मैट्रो की पहली लाइन बैंगलोर में अनिश्चय के वातावरण में एक अंतहीन प्रक्रिया के साथ शुरू हुई थी. जब भी कोई लाइन जोड़ी जाती है तो वहाँ कई स्थान और लैंडमार्क गायब हो जाते हैं और मलबे, उखड़े हुए पेड़ों के ठूँठ और रास्ते में टूटी-फूटी जगहें दिखाई देती हैं. न तो विरोध प्रदर्शन बंद होते हैं और न ही मैट्रो का काम बंद होता है. मैट्रो शहर-भर से गुज़रती है, लेकिन इसमें बैठे हुए यात्रियों का ध्यान इस जीवंत शहर की बनावट और रंगों पर नहीं जाता. इसकी काँच की ट्यूब के अंदर से आप बाहर दूर-दूर तक देख सकते हैं.

एक छोटे-से कस्बे से आया अशोक पर्पल लाइन में ट्रेन ऑपरेटर है. बैंगलोर हाई स्ट्रीट: एमजी रोड की अपनी पहली यात्रा का वर्णन करते हुए वह बताता है, “मुझे लगा जैसे मैं एक पक्षी की तरह शहर के ऊपर से उड़ते हुए ऊँची और बड़ी इमारतों को देख रहा हूँ. मेरे लिए यह अनुभव बहुत रोमांचकारी था. ” ट्रेन से देखने पर दूर-दूर तक फैला हुआ यह शहर बहुत शांत नज़र आता है. ऐसा लगता है कि आप यातायात के शोर, धूल और गंदगी के गुबार से ऊपर तैरते चले जाते हैं. यात्रियों का दृश्य पटल धुएँ के कारण धुँधला दिखाई देने वाले क्षितिज तक फैला रहता है, जो ऊँचे उठते चक्राकार हलकों से घिरा होता है और हर दिन इसका विस्तार होता जाता है. महिलाओं का कहना है कि अंतिम मील की कनैक्टिविटी की खराबी के बावजूद वे मैट्रो को पसंद करती हैं, क्योंकि उनका मानना है कि यह "साफ़-सुथरी" और  "सुरक्षित" है और इसका उपयोग "सभ्य लोगों" द्वारा किया जाता है. इस शब्द का प्रयोग साफ़-सुथरे और मध्यम वर्ग के भले लोगों के लिए किया जाता है.

कनकपुर रोड, बैंगलोर

मैट्रो द्वारा साफ़ किया गया कनकपुर रोड, बैंगलोर

इसके बावजूद कि उच्च तकनीक वाले सपनीले तंत्र से विकसित इसकी पूर्ण दक्षता और आभा-मंडल ने हजारों लोगों को शहर के आवागमन की जद्दोजहद से मुक्त कर दिया है, फिर भी मैट्रो में अनेक अंतर्विरोध हैं. सतह पर उठते बुलबुलों की तरह कभी-कभी कर्मचारियों द्वारा अचानक हड़ताल करने या तकनीकी गड़बड़ी के कारण समस्या पैदा हो जाती है. इसे हम मधुमक्खी के बदनाम छत्ते की तरह समझ सकते हैं. अगर लाइन के निर्माण के समय सिस्टम के अंदर कोई भी दोष रह जाता है तो उक्त हालात पैदा होने पर व्यस्त रहने वाली पर्पल लाइन का एक सैक्शन पूरी तरह ठप्प हो जाता है. जब तक पर्यावरणविदों, अपनी ज़मीन गँवाने वाले लोगों और 2007 से सड़कों पर और अदालतों में लड़ने वाले शहर के अन्य निवासियों के विवाद सुलझ नहीं जाते, तब तक इसका निर्बाध आवागमन संभव नहीं होगा. हालाँकि, इस संघर्ष ने मोटे तौर पर ट्रेन को प्रभावित नहीं किया है, क्योंकि यह शहर भर में नये-नये मार्ग बनाते हुए निर्बाध रूप में चलती है. इसके कारण तो हर बढ़ते हुए शहर में भीतरी इलाकों से चरागाह बनते जाते हैं.

मैट्रो स्टेशन, कब्बन पार्क

बैंगलोर मैट्रो कॉर्पोरेशन (BMRCL) के प्रबंध निदेशक ने एकमात्र मेरे इंटरव्यू में मुझे यह स्पष्ट रूप में बता दिया था कि अधिकारियों, कर्मचारियों और दैनिक यात्रियों को सफ़ाई देने की कोई गुंजाइश मैं नहीं छोड़ूँगा. इसलिए, मुझे गुरिल्ला ऐथनोग्राफ़र की तरह मैट्रो की दुनिया में प्रवेश करने के लिए मजबूर होना पड़ा. पिछले पाँच वर्षों में, मैंने गुपचुप बातचीत और गुप्त बैठकों के माध्यम से मैट्रो कर्मचारियों के जीवन में अंतर्दृष्टि प्राप्त कर ली है और किनारे से देखा है कि मैट्रो के नीचे मिट्टी की खुदाई करते समय रिहाइशी और आसपास के स्थान नष्ट हो गए थे.

अबू का रसोई घर
अबू अपने-आपको एक तरह से फ़कीर ही मानता है. उसका घर बांदा मैदान के अंदर सिटी कॉर्पोरेशन ऑफ़िस के छज्जे के नीचे है. बाँस बाज़ार के घने और भरे-पूरे पड़ोस में यही एकमात्र खुली हुई जगह है. वह तारों की छाँह में सोता था और जन्नत पाने की चाह में अल्लाह का नाम जपता रहता था. पानी में बहकर आई लकड़ियों और गत्ते के कूड़े-कचरे की मदद से नीम के पेड़ के नीचे दिन में एक बार रसोई की आग जलती थी. कभी-कभार सड़क के पार बने खोखे से कोई न कोई उसे चाय लाकर दे जाता था. अबू के सबसे कीमती खजाने में थे,कुछ बर्तन और मक्का का चित्र. ये चीज़ें ही कबाड़ में मिली टूटी-फूटी कार में पड़ी हुई थीं.

तीन साल पहले ही निर्माणाधीन पिंक लाइन के एलाइनमैंट में बदलाव आ गया और इसने ही 2.5 कि.मी. के घेरे में आए अबू के घर और अन्य तीन खेल के मैदानों को निगल लिया. कम आय वाली घनी आबादी वाले पड़ोस में यही एकमात्र खुला सामाजिक स्थान था,जिसे स्टेशनों के निर्माण के  लिए ले लिया गया था, जिसके कारण बच्चे और बड़े सभी लोग वहाँ इकट्ठा होने, खेलने, प्रार्थना करने और जश्न मनाने से वंचित रह गये थे.

आज बाँदा मैदान की जगह एक बड़ा गड्ढा हो गया है. वहाँ के निवासी रात के अँधेरे में अपनी दीवारों पर भूमिगत गुफ़ाओं के निर्माण के झटके महसूस करते हैं. अबू अब बेघर है और उसका कोई अता-पता नहीं है. जिन घरों को मैट्रो के निर्माण के लिए गिराया जाना है, उन्हें चिह्नित करने वाले लोग इधर-उधर भागते दिखाई देते हैं. किसी भी निवासी को नहीं मालूम है कि अब वे कहाँ जाकर बसेंगे. जब स्टेशनों की इमारतें बन जाती हैं तो वहाँ किसी को पता नहीं चलता कि पहले वहाँ क्या था और उन्होंने क्या खोया है.

बाँदा मैदान पर रहने वाले बच्चे

बाँदा मैदान का एक दृश्य

अबू की रसोई

मैट्रो कॉर्पोरेशन पर लगातार पारदर्शी न होने और सहभागी प्रक्रियाओं को दरकिनार करने का आरोप लगाया जाता रहा है. निर्माण स्थल पर लगे हरे रंग के टीन के बैरिकेड्स से तो वैसे भी पता नहीं चलता कि अंदर क्या हो रहा है, लेकिन एलाइनमैंट और शिफ्ट में अचानक किये गये बदलाव से जुड़े निर्णयों पर भी सब लोग चुप्पी साध लेते हैं. यहाँ तक कि उससे सीधे प्रभावित होने वाले लोगों को भी कुछ पता नहीं चलता.

मशीन में छिपे भूत
पिछले साल एक महिला गार्ड, जिसकी ड्यूटी यात्रियों को प्लेटफ़ॉर्म के किनारे से दूर रखने के लिए लगाई गई थी, अचानक बेहोश होकर रेल की पटरी पर गिर गई. सौभाग्यवश बिजली की पटरी से करेंट लगने से वह बच गई और उसे घर वापस भेज दिया गया. ज़ाहिर है वह नौकरी पर वापस नहीं आई. मैट्रो कामगार यूनियन के नेता स्वामी ने बताया कि शायद वह थकान के कारण वहाँ गिर पड़ी हो. इस तरह की घटनाओं से पता चलता है कि मैट्रो चलाने वाले कर्मचारियों के साथ उनके सामाजिक संबंध व्यापक स्तर पर कैसे होते होंगे.

मैट्रो अधुनातन डिजिटल प्रौद्योगिकी पर चलती है. मास्टर कंप्यूटर और जटिल ऐल्गोरिदम गाड़ियों के लॉजिस्टिक्स, शेड्यूलिंग और संचालन को नियंत्रित करते हैं. हालाँकि आधिकारिक विमर्शों में इसकी चर्चा कम ही होती है, लेकिन वस्तुस्थिति यही है कि यह पूरा का पूरा उद्यम मानव और गैर-मानव इंटरफ़ेस के बीच के घनिष्ठ संबंधों पर टिका रहता है. भले ही सफ़ाई के लिए झाड़ू लगाने का काम हो या कंप्यूटर पैनल. हालाँकि, काम की व्यवस्थाएँ विभिन्न प्रकार के वेतनमानों और अनुबंधों के साथ जुड़ी हुई हैं. हाउसकीपिंग और सुरक्षाकर्मियों को प्रति माह रु.12,000-15,000 ($150-190 USD) का वेतन और उससे संबंधित लाभ मिलते हैं और ट्रेन ऑपरेटरों को औसतन रु. 30,000 ($385 USD) मिलते हैं और प्रबंधकों और सरकारी सेवाओं से प्रतिनियुक्ति पर आये अनेक प्रबंधकों को अघोषित रकम मिलती है. सलाहकार उनके वेतनों को स्वतंत्र रूप से वार्ता के माध्यम से तय करते हैं. वेतनभोगी कर्मचारियों के वेतनमान के सबसे निचले सिरे पर BMRCL के सिर्फ़ "स्थायी कर्मचारी" ही होते हैं. जैसे अशोक जैसे कर्मचारी जो गाड़ियों का रखरखाव और संचालन करते हैं. सुरक्षा और हाउसकीपिंग कर्मचारी करार वाले कर्मचारियों के पिरामिड के सबसे निचले तल पर रहते हैं. कम वेतन पाने वाले कामगार मज़बूर होकर अपनी आजीविका के लिए कोई और आकर्षक धंधा भी करने लगते हैं. महिला गार्डों का कहना है कि ठेकेदारों के साथ सौदेबाज़ी करना संभव नहीं है, क्योंकि वे तुरंत ही कह देते हैं कि करार के अनुसार काम करो या काम छोड़ दो. नंदिनी गुप्तु  के अनुसार असमान वेतनमान और ठेकेदारी के काम में भारी शोषण अधिकांश संगठनों में आम बात है. BMRCL में यह कोई अनूठी बात नहीं है.

सुबह की ड्रिल में महिलाएँ

जो दिखाई नहीं देता
मैट्रो का मामला बहुत विचित्र है. यहाँ एक ओर तो कार्यस्थल हाई-टैक है, वहीं सामाजिक संबंधों की प्रथाएँ बहुत पुरानी हैं. यही कारण है कि “प्रबंधक वर्ग” और “कामगारों” के बीच भारी खाई बन गई है. सात साल पुरानी यूनियन को अभी तक मान्यता नहीं मिल पाई है. “प्रबंधक वर्ग” के अनुसार उनके यहाँ कोई “कामगार” है ही नहीं, क्योंकि यहाँ पर सभी कर्मचारी “’टैक्नोलॉजी” के साथ ही काम करते हैं. इसलिए कर्मचारियों को औद्योगिक विवाद अधिनियम (1947) में सुलभ संरक्षण के लिए दावा करने का भी अधिकार नहीं है, जबकि उचित वेतन और कार्यस्थल संबंधी हालात से जुड़े अनेक अधिकार तो उन्हें सहज रूप में ही मिल जाने चाहिए. इसके अलावा, श्रमिकों को एक "चुप्पी क्लॉज़" (यानी गैर-प्रकटीकरण समझौते) पर भी अनिवार्यतः हस्ताक्षर करने होते हैं. इस क्लॉज़ के कारण वे अपने कार्यस्थल पर आने-जाने, काम की विसंगतियों और शिकायतों के बारे में आम लोगों या प्रैस से भी बात नहीं कर सकते. कामगारों का कहना है कि पूरे परिसर में लगे असंख्य CCTVs के माध्यम से उन पर नज़र रखी जाती है कि वे क्या करते हैं और क्या कहते हैं.

“Twelve Seconds: Industrial Slaughter and the Politics of Sight” नाम से प्रकाशित नृवंश विज्ञान संबंधी अपने आख्यान में टिमोथी पचीरत यह बताते हैं कि निगरानी और चुप कराने के अपने तंत्र के अंतर्गत आम लोगों से मांस उत्पादन के क्रूर हालात को कैसे छिपाया जाता है. औद्योगिक हत्याओं की हैवानियत को जनता की नज़रों से दूर रखकर थाली में रखा मांस कितना "सभ्य" लगता है. बूचड़खाने की उपमा कुछ ज़्यादा ही लग सकती है, लेकिन पचीरत के तर्क का सार प्रासंगिक है: शहर के बीचोंबीच मैट्रो की इमारत को "शानदार" और "स्वच्छ" दिखाने के लिए चुप्पी और गोपनीयता की शर्तें बहुत आवश्यक हैं.

संक्रमण से गुज़रने वाले शहर (और देश) के लिए इसका क्या मतलब है? मैट्रो लाइनें शहर में स्थानों, लोगों और रोज़मर्रा की जिंदगी पर पड़ने वाले उनके प्रभाव के आधार पर "आम जनता" का एक पदानुक्रम (hierarchy) बना देती हैं. मैट्रो की तारीफ़ कुछ हद तक सही भी है, लेकिन इसके भीतर कुछ ऐसी कहानियाँ भी छिपी हुई हैं,जो इसके अंधेरे पक्ष को बयान करती हैं. जैसे-जैसे अधिकाधिक शहरों में मैट्रो का विस्तार होता जा रहा है (निकट भविष्य में लगभग 50 और शहरों में मैट्रो सेवाएँ शुरू हो सकती हैं) उसकी जटिल संगठनात्मक प्रथाएँ और "कामकाज़ के मानदंड" शायद ही पारदर्शी या समावेशी रह पाएँगे. जब कभी अदृश्य भूभाग को मैट्रो की जद में लाने का प्रयास किया जाता है तो शहर के निवासियों की लड़ाई तब और कठिन हो जाती है. इन विवादों की परिणति दो रूपों में हो सकती है, या तो यह एक समावेशी शहरी भविष्य के लिए मैट्रो को अपना भागीदार बना सकती है या फिर एक ऐसे विशालकाय वाहन के लिए मार्ग प्रशस्त कर सकती है, जो स्थानों और लोगों पर एक कल्पित शहर की अपनी दृष्टि की मोहर लगा सकती है.

उषा राव (पीएच.डी नृवंशविज्ञान, UMass Amherst, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT),दिल्ली) एक स्वतंत्र शोधकर्ता,मीडिया मेकर और नृवंशविज्ञानवेत्ता हैं. उनका यह लेख 2015-19 की अवधि में नृवंश विज्ञान संबंधी फ़ील्डवर्क के उनके डॉक्टरेट के कार्य का ही एक अंश है. बांदा मैदान पर उनका शोधकार्य एक मौजूदा परियोजना है.

सभी छायाचित्र लेखक द्वारा ही लिये गए हैं. सभी नाम बदल दिये गए हैं.

 

Hindi translation: Dr. Vijay K Malhotra, Former Director (Hindi), Ministry of Railways, Govt. of India <malhotravk@gmail.com> Mobile : 91+991002991/ WhatsApp:+91 83680 68365