दिसंबर, 2015 में भारत सरकार ने अपने नये मॉडल द्विपक्षीय निवेश संधि (BIT) को सार्वजनिक कर दिया. यह व्यक्तिगत स्तर पर किये गये समझौते के करार का एक टैम्पलेट है, जिसके माध्यम से किसी एक देश की किसी फ़र्म द्वारा दूसरे देश की फ़र्म में किये गये निजी निवेश को शासित किया जाता है. विभिन्न देश बिट का उपयोग स्थिर और पारदर्शी गंतव्य के रूप में अपने विपणन (मार्केटिंग) के लिए करते हैं, जिससे उन्हें विदेशी निवेश के लिए उचित और समान व्यवहार पर आधारित और भेदभाव रहित संरक्षण मिलता रहे और संपत्ति के हरण से भी संरक्षण मिलता रहे. हालाँकि खास तौर पर भारतीय संदर्भ में विदेशी निवेश के प्रवाह पर बिट का प्रभाव अभी अंतिम रूप में प्रमाणित नहीं हुआ है, लेकिन विकसित और विकासशील – दोनों ही अर्थव्यवस्थाओं (2000 से अधिक बिट अभी विश्व भर में प्रभावी हैं) में यह अभी भी लोकप्रिय बना हुआ है.
सन् 1994 में यू.के. के साथ भारत ने पहली बिट संधि की थी. तब से लेकर आज तक भारत ने सत्तर से अधिक अन्य संधियाँ की हैं. ये संधियाँ आज भी प्रभावी हैं. लगभग एक दर्जन और संधियों पर भी हस्ताक्षर हुए हैं, लेकिन वे अभी लागू नहीं हुई हैं और कम से कम चार संधियाँ और भी हैं जिन पर काम चल रहा है. सन् 1993 में जब भारत ने बिट का अपना पहला मॉडल तैयार किया था, तब से अब तक भारत की आर्थिक आवश्यकताओं और समझौता करने की शक्तियों में नाटकीय बदलाव आया है. इसका पूर्ववर्ती मॉडल सन् 2003 में डिज़ाइन किया गया था, लेकिन बदलती हुई आर्थिक स्थितियों के कारण उसमें संशोधन की आवश्यकता थी. इसी कारण 2015 का मॉडल अपनाया गया.
बिट की अधिकांश संधियों का मुख्य केंद्रीय बिंदु विवाद के प्रस्ताव का वह खंड है जिसमें निजी विदेशी निवेशकों को यह अनुमति दी गई है कि वे मेज़बान देशों पर बिट के दायित्वों का उल्लंघन करने को चुनौती दे सकते हैं. विवादों का निपटारा संधि की शर्तों के अनुसार गठित न्यायाधिकरण के पंचफ़ैसले के माध्यम से किया जाता है, जिसके कारण निवेशक के पक्ष में बहुत बड़ा अधिनिर्णय दे दिया जाता है. भारत का ऐसा पहला अधिनिर्णय सन् 2011 में भारत-ऑस्ट्रेलिया बिट के अंतर्गत व्हाइट इंडस्ट्रीज़ के मामले में आया था. इस मामले में अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायाधिकरण ने पाया था कि भारतीय अदालतों ने अधिनिर्णय को लागू करने में अनावश्यक देरी करके उस दायित्व का उल्लंघन किया है जिसके अंतर्गत निवेशकों को “दावों का अधिकार जताने और अधिकारों को लागू करने के प्रभावी माध्यम प्रदान किये जाने थे.” दिलचस्प बात तो यह है कि दायित्व का यह खंड सीधे भारत-ऑस्ट्रेलिया बिट के अंतर्गत नहीं आया था, बल्कि भारत-कुवैत बिट के अंतर्गत किये गये प्रावधान से सर्वाधिक पसंदीदा देश के खंड से आयात किया गया था. बताया जाता है कि इस समय भारत के संबंध में एक दर्जन से अधिक अधिनिर्णय विचाराधीन हैं.
इस संदर्भ में 2015 के नये मॉडल को लेकर अनेक सवाल उठने लगे हैं. उदाहरण के लिए, द्विपक्षीय वार्ताओं में भारत का लक्ष्य क्या होना चाहिए? तर्कसंगत बात तो यह है कि पहला लक्ष्य तो मुख्यतः यही होना चाहिए कि विदेशी निवेश पर निर्भर अर्थव्यवस्था और ऐसी अर्थव्यवस्था, जिसके निवेशक विदेशों में अधिकाधिक निवेश करते हैं, के बीच संतुलन बनाये रखा जाए. इसकी दृष्टि भविष्योन्मुखी होनी चाहिए क्योंकि विदेशी निवेश तो कालांतर में बढ़ते ही रहेंगे. निवेशकों के अधिकारों को बेहद क्षीण करने वाली असंतुलित दृष्टि ठीक नहीं होगी.
दूसरी बात यह है कि व्हाइट इंडस्ट्रीज़ वाले मामले से यही बात सामने आई कि बिट की व्यापक और अस्पष्ट प्रतिबद्धताओं के संदर्भ में अनुवर्ती कार्रवाई बहुत महँगी और / या अव्यावहारिक हो सकती है. तीसरी बात यह है कि न्याय क्षेत्र के रूप में देश की छवि के प्रदर्शन के लिए बिट एक ऐसा महत्वपूर्ण अवसर है, जिसमें स्थिरता और निश्चितता के अलावा विधि शासन के प्रति सम्मान का भाव भी प्रकट होता है. अगर इसे अधिक से अधिक अनुकूल बना लिया जाए तो इसके सकारात्मक प्रभाव से भारत के प्रति विश्व की सामान्य धारणा को भी बदला जा सकता है. साथ ही इससे अलग-अलग पीढ़ियों के बीच की इक्विटी और सतत विकास की चिंताओं का निराकरण करते हुए निवेश के हितों को संतुलित करते हुए निष्पक्ष छवि रखी जा सकती है.
2015 के बिट का मॉडल इन उद्देश्यों पर कहाँ तक खरा उतरता है ? कुछ मामलों में तो यह प्रभावी है; जैसे जब यह“उचित और समान व्यवहार” की तरह स्पष्ट और बिना शर्त का मानक बन जाता है, क्योंकि राज्य को चाहिए कि वह विदेशी निवेशकों का ख्याल रखे. बेहतर तो यही है कि व्यवहार के स्पष्ट मानदंड तय किये जाएँ ताकि मध्यस्थता के लिए न्यायाधिकरण के विवेकाधिकार की ज़रूरत ही न रहे. इसमें नई परिकल्पनाओं को भी जोड़ दिया जाए; जैसे, निष्पक्ष, स्वतंत्र, हितधारियों के विवादों से मुक्त; मध्यस्थता की पारदर्शी कार्यवाही; और न्यायाधिकरण के अधिनिर्णयों की पुनरीक्षा के लिए अपील तंत्र स्थापित करने की संभावना को भी स्वीकार किया जाए.
लेकिन इन तमाम रचनात्मक बदलावों के लिए वर्तमान मॉडल को प्रभावी बनाने में एक आधारभूत कमी के कारण बाधा आ रही है: और यह बाधा है भारतीय न्यायप्रणाली का बड़े उत्साह से भारी समर्थन. इस मॉडल में बार-बार , धमकी के स्वरों में “स्थानीय उपचारों की समाप्ति” का ज़िक्र होता है. इसलिए स्थानीय अदालतों से संपर्क करने और घरेलू स्तर पर विवाद को सुलझाने की संभावना को खत्म करने के बाद ही कोई भी विदेशी निवेशक भारत के साथ निवेशक ( इसी तरह भारतीय निवेशक भी विदेशी राज्य के खिलाफ़ दावा कर सकता है) संधि को लेकर विवाद उठा सकता है. यह मॉडल ऐसे विवादों की सीमा की अवधि को पुनर्व्यवस्थित भी कर सकता है, लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि ऐसे मामले विवादित दावे की जानकारी प्राप्त करने की एक साल की अवधि के अंदर ही स्थानीय अदालतों में दायर किये जाएँ. उसके बाद निवेशक को अधिनिर्णय का समाधान पाने से पहले उस प्रक्रिया को खत्म करने के लिए पाँच साल तक इंतज़ार करना होगा. इस मॉडल की अपेक्षा रहती है कि अधिनिर्णय में देरी होने जैसी प्रणालीगत समस्याओं और गुणवत्ता के बावजूद आपको भारतीय न्याय प्रणाली पर पूरा भरोसा होना चाहिए. इसलिए उसके दृष्टिकोण में आशावादी स्वर तो रहता है , लेकिन उसकी प्रस्तुति अव्यावहारिक ही रहती है. हाल ही में भारत में “व्यावसायिक विवादों” के अधिनिर्णयन के लिए व्यावसायिक अदालतों की स्थापना की गई, जिनके माध्यम से बिट से संबंधित अधिकांश मामलों को निपटाये जाने की संभावना है. अगर इस कानून को अच्छी तरह से लागू किया गया तो उम्मीद है कि इससे समाधान में तेज़ी आएगी, लेकिन फिर भी बिट के भावी भागीदार और उनके निवेशक छह साल की प्रतीक्षा करना पसंद नहीं करेंगे.
2015 का बिट मॉडल प्रतिक्रियावादी भी लगता है. व्हाइट इंडस्ट्रीज़ अवार्ड का मुख्य कारण है, “सबसे अधिक पसंदीदा देश” के खंड को हटाना. वास्तव में यही खंड बिट की विशिष्ट बास्केट का मानक तत्व है. इसी प्रकार इस मॉडल में कराधान को इसके क्षेत्राधिकार से निकाल दिया गया है, जो स्पष्टतः वोडाफ़ोन,नोकिया और कैर्न जैसी फ़र्मों के साथ कर संबंधी मामलों में सरकारी विवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप है. सीमित विवाद के प्रस्ताव की प्रक्रिया (स्थानीय उपचार, अपेक्षाकृत कम सीमांकन, प्रतीक्षा का अनिवार्य समय आदि) भी उन तमाम विवादों की प्रतिक्रिया स्वरूप भी है, जिनका सामना भारत वर्तमान बिट्स के अंतर्गत कर रहा है.
बिट के मॉडल का प्रारूप सन् 2015 के आरंभ में प्रकाशित किया गया था और भारतीय विधि आयोग से सार्वजनिक तौर पर टिप्पणी और सुझाव मँगवाने का एक दौर भी चला था और उसके बाद ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अंतिम पाठ का अनुमोदन किया था. इसलिए वर्तमान पाठ तो बना ही रहेगा. लेकिन अब सवाल यह है कि वे कौन-से देश हैं ,जो इस मॉडल पर भारत के साथ वार्ता करने को उत्सुक हैं? हो सकता है कि कनाडा जैसी विकसित अर्थव्यवस्था की भी, जिसने पहले भारत के साथ वार्ता करने का प्रयास किया था, इस पाठ में बहुत दिलचस्पी न रहे. इस मामले में भारत के साथ केवल उन्हीं समकक्ष देशों की सहानुभूति हो सकती है, जिनकी घरेलू दुर्बलताएँ भी हमारे समान हैं ; जैसे, कानून और व्यवस्था के संबंध में मिला-जुला कार्य-निष्पादन, न्यायिक अनिर्णय और विकास के समग्र निम्न स्तर.
इस नये मॉडल का लक्ष्य अर्थव्यवस्था और निवेशक का वह प्रोफ़ाइल होना चाहिए जिसे भारत अगले दशक में हासिल और आकर्षित करना चाहता है. महत्वाकांक्षी “मेक इन इंडिया” के अभियान में सुझाया गया है कि वर्तमान सरकार भारत को “वैश्विक विनिर्माण का हब” बनाने के लिए उत्सुक है. इस अभियान (और अन्य अभियानों) की सफलता भी इसी बात पर निर्भर है कि वे किस हद तक दीर्घकालीन विदेशी निवेश आकर्षित कर सकते हैं. इसके लिए ऐसे मध्यम-से-दीर्घकालीन संस्थागत और शासनिक सुधार आवश्यक हैं, जिनमें बिट की प्रतिबद्धता भी हो, ताकि अल्पकालीन स्तर पर भी इसी प्रकार के परिणाम प्राप्त किये जा सकें. ऐसी पृष्ठभूमि में वार्ताओं के भागीदार कराधान और स्थानीय उपचार जैसे उन मामलों पर बिट की स्थिति से प्रभावित नहीं होंगे, जो भारत में विदेशी निवेशकों के लिए निरंतर दुखती रग की तरह हों.
भारत का 2015 का बिट मॉडल 2003 के पिछले मॉडल की तुलना में एक महत्वपूर्ण सुधार है, लेकिन अंतिम निष्कर्ष सूक्ष्म रूप में ही नहीं, बल्कि खुले रूप में भी गलत सिद्ध होता है. इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत मोटे तौर पर पूँजी आयात करने वाली अर्थव्यवस्था ही बना रहेगा और उसमें भी उसकी तरफ़ से सौदेबाज़ी की काफ़ी गुंजाइश बनी रहेगी. बिट के इस मॉडल की अग्निपरीक्षा तो तभी होगी जब भारत इस मॉडल का उपयोग आर्थिक लक्ष्यों और हितों का ध्यान रखते हुए नई संधियों पर वार्ता करता रहेगा और वर्तमान संधियों पर पुनः वार्ता करता रहेगा.
सुमति चंद्रशेखरन नई दिल्ली स्थित लीगल पॉलिसी के विधि केंद्र में रैज़िडेंट फ़ैलो हैं.
स्मृति परशीरा नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त व नीति संस्थान में सलाहकार है.
दोनों लेखिकाएँ बिट मॉडल की अपनी 260 वीं रिपोर्ट के प्रारूप 2015 के अध्ययनार्थ भारतीय विधि आयोग द्वारा गठित उप-समिति की सदस्य थीं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919