नवंबर के आरंभ में एक रूसी समाचार वैबसाइट ने दावा किया था कि भारतीय नौसेना ने अमरीका की तकनीकी टीम को सन् 2012 में भारत को पट्टे पर दी गई एक रूसी अकूला-क्लास की परमाणु पनडुब्बी के निरीक्षण की अनुमति दी थी. हालाँकि यह रिपोर्ट बाद में झूठी पाई गई, फिर भी रणनीतिक हलकों में इससे कई सवाल पैदा हो गए. इसके दो कारण थे. इसका पहला कारण तो यही था कि इस दावे के कारण परमाणु पनडुब्बी के मामले में भारत-रूसी सहयोग की बात सबकी नज़र में आ गई. दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है, जो किसी परमाणु-संपन्न देश से परमाणु पनडुब्बी पट्टे पर लेकर चलाता है और रूस ही एकमात्र देश है, जिसने परमाणु पनडुब्बी किसी देश को पट्टे पर दी है. लेकिन परमाणु पनडुब्बी संबंधी सहयोग का यह इतिहास अब तक रहस्य के पर्दे में छिपा रहा है. दूसरा कारण यह है कि नई दिल्ली की वाशिंगटन के साथ बढ़ती नज़दीकियों की पृष्ठभूमि में इससे भारत-रूसी रक्षा संबंधों पर बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका भी बढ़ गई है. भले ही रूस भारत का रक्षा उपकरणों का सबसे बड़ा सप्लायर है, फिर भी भारत लगातार उच्च-स्तरीय रक्षा उपकरण खरीदने के लिए अमरीका की तरफ़ देखता रहा है. ये रक्षा-उपकरण हैं, हमलावर हैलीकॉप्टर, तोपखाने की बंदूकें और उन्नत किस्म के परिवहन विमान. मास्को को इस बात की अधिक चिंता है कि हाल ही में दोनों देशों के बीच रक्षा-उपकरणों के संयुक्त उत्पादन के लिए तकनीकी सहयोग पर विशेष बल दिया गया है. युक्रेन संकट के बाद से अमरीका और रूस के बीच बढ़ते अविश्वास के वर्तमान माहौल में मास्को अमरीका-भारत के रक्षा सहयोग को लेकर लगातार आशंकित रहा है कि कहीं रूस की मौजूदा रक्षा प्रौद्योगिकी प्राप्त करने के बाद भारत इसे किसी के साथ साझा न कर ले.
मास्को ने भारत को सबसे पहले परमाणु पनडुब्बी जनवरी, 1988 में सोवियत संघ के ज़माने में दी थी. उस समय शीत युद्ध के दौरान वह भारत का न केवल रणनीतिक भागीदार था, बल्कि सैनिक उपकरणों का, विशेषकर भारतीय नौसेना के उपकरणों का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत भी था. सन् 1964 में मास्को ने भारत के लिए नौसैनिक उपकरणों की सप्लाई सबसे पहले शुरू की थी और सन् 1987 में सोवियत संघ द्वारा भारतीय नौसेना को सप्लाई की गई वस्तुसूची का प्रतिशत बढ़कर 70 प्रतिशत हो गया था. एक रिपोर्ट के अनुसार सोवियत ऐडमिरल सर्जेई गोर्शकोव ने ही साठ के दशक के उत्तरार्ध में भारतीय नौसेना को परमाणु पनडुब्बी सप्लाई करने का सुझाव दिया था और मार्च, 1981 में मार्शल निकोलाई ओगरकोव के नई दिल्ली दौरे के समय सोवियत संघ ने सबसे पहले भारत को पट्टे पर परमाणु पनडुब्बी देने पर अपनी सहमति प्रकट की थी. बाद में दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हो गए थे कि भारत के देशी परमाणु पनडुब्बी कार्यक्रम को सोवियत सहायता प्रदान की जाए. वाइस ऐडमिरल मिहिर कुमार रॉय ने बाद में इसका स्मरण करते हुए स्वीकार किया था कि यहीं से परियोजना-S (भारत के लिए परमाणु पनडुब्बियों का कोडनाम) की शुरुआत हुई थी. मास्को ने भारतीय नौसैनिकों को प्रशिक्षण देने और परमाणु पनडुब्बियों के संचालन के लिए विशाखापत्तनम की नौसैनिक गोदी के विस्तार में मदद देने के लिए भी अपनी सहमति प्रकट की थी.
अक्तूबर,1986 में सोवियत पोलितब्यूरो ने पनडुब्बी को पट्टे पर देने की पुष्टि कर दी थी. लेकिन इसको लेकर विरोध के स्वर भी उठने लगे थे. नवंबर, 1986 में पोलितब्यूरो के कुछ सदस्यों ने आपस में एक आंतरिक ज्ञापन परिपत्रित किया था, जिसमें राष्ट्रपति गोर्बाचेव से इस आधार पर पट्टे को रद्द करने का अनुरोध किया गया था कि इसके कारण हिंद महासागर में परमाणु हथियारों की होड़ शुरू हो सकती है, सोवियत द्वारा परमाणु अप्रसार संधि के साथ छेड़-छाड़ करने की धारणा को बल मिल सकता है और हिंद महासागर को शांति-क्षेत्र बनाने के प्रयासों को नुक्सान पहुँच सकता है. ज्ञापन में यह डर भी प्रकट किया गया था कि “परमाणु पनडुब्बी के प्रयोग की प्रक्रिया में पनडुब्बी-प्रणाली से संबंधित तकनीकी आँकड़ों की श्रृंखला और कुछ हद तक हमारी परमाणु पनडुब्बियों के बैंचमार्क (वज़ावॉय) के बाहरी मानक भी अमरीकी हाथों में पड़ सकते हैं.”
गोर्बाचेव ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और दिसंबर, 1987 में विनिमय की यह प्रक्रिया आधिकारिक तौर पर संपन्न हुई. लेकिन सोवियत नौसेना का एक विशेष सेवा दल (SSG) जनवरी,1988 में सोवियत परमाणु पनडुब्बी K-43, जिसे भारतीय सेना ने INS चक्र का नाम दिया, के साथ व्लादिवस्तोक से विशाखापत्तनम तक समुद्री मार्ग से उसके साथ आया. विशेष सेवा दल (SSG) का काम केवल इस नौका के निर्बाध संचलन में मदद करना ही नहीं था, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी था कि पट्टे की अवधि के दौरान कोई तकनीकी पैरामीटर लीक न हो. विशाखापत्तनम के नौसैनिक बेस पर पश्चिमी नौसेनाओं के प्रवेश की बिल्कुल अनुमति नहीं होती. इससे सोवियत आशंका भी कम हो गई. वस्तुतः शीत युद्ध के दौरान भारतीय नौसेना की पूर्वी और पश्चिमी कमान के बीच एक डिविज़न होता था, जो मुख्यतः पूर्वी कमान के साथ मिलकर मास्को द्वारा सप्लाई किये गए उपकरणों को डील करता था. इसके अलावा, भारतीय नौसेना इस पनडुब्बी पर कड़ा नियंत्रण रखती थी और यहाँ तक कि इसके वरिष्ठ कमांडर भी पनडुब्बी तक आसानी से नहीं पहुँच सकते थे.
यदि मास्को को शीत युद्ध के दौरान भी यह डर था कि भारतीय हाथों में जाकर रक्षा उपकरणों की तकनीकी जानकारी किसी और के हाथों में भी जा सकती है तो मौजूदा परिस्थिति में तो यह चिंता और भी अधिक बढ़ सकती है. रूसी रक्षा उद्योग तक ही सीमित रहने के बाद, भारतीय नौसेना की नज़रें अब अमरीकी हार्डवेयर पर लगी हुई हैं. उदाहरण के लिए रूसी टीयू-142 समुद्री टोही विमान के स्थान पर उसी प्रकार का बोइंग पी-8 1 पोसेडॉन विमान खरीद लिया गया है और भारत अपने नये मालवाहक विमानों के लिए अमरीकी प्रौद्योगिकी खरीदने पर भी विचार कर रहा है. भारत संयुक्त ऑपरेशन के रूप में अमरीकी नौसेना के साथ मिलकर मलाबार श्रृंखला के अपने सर्वाधिक हाई प्रोफ़ाइल नौसैनिक अभ्यास कर रहा है. भारत-अमरीका के नौसैनिक संबंधों में आए भारी परिवर्तन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सन् 2015 में अमरीकी रक्षा सचिव ऐशटन कार्टर ने विशाखापत्तनम नौसैनिक बेस का दौरा किया था. यह वही बेस था, जो शीत युद्ध के दौरान अधिकांश समय तक हिंद महासागर में सोवियत चौकी माना जाता रहा है.
फिर भी यह मानना सही नहीं होगा कि भारत सोवियत चिंताओं की अनदेखी करेगा. इसके ठीक विपरीत, भारत ने सन् 2012 में पट्टे पर ली गई अकूला-क्लास की परमाणु पनडुब्बी, जो अब भारत में स्थित है, के साथ रूसी नौसैनिक दल के आने की शर्त को भी स्वीकार किया था और अब जब भारत अगली पनडुब्बी को पट्टे पर लेने के लिए समझौता-वार्ताएँ कर रहा है, तो भी वह इस बात का पूरा ख्याल रखेगा. इस समझौते पर इस समय विचार चल रहा है. भारतीय नौसेना के रणनीतिकार रूसी सहयोग की महत्ता को बखूबी समझते हैं, भले ही इन पनडुब्बियों का उपयोग मुख्यतः प्रशिक्षण के लिए ही क्यों न होना हो और भले ही इसके साथ यह प्रतिबंध ही क्यों न लगा हो कि इनका उपयोग हमले के लिए नहीं किया जाएगा. सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि भारत के देशी परमाणु पनडुब्बी कार्यक्रम के लिए रूस की प्रौद्योगिकी संबंधी सहायता बेहद ज़रूरी रही है. यदि मास्को का सहयोग न मिला होता तो भारत की पहली देशी परमाणु पनडुब्बी INS अरिहंत एक दिवास्वप्न बनकर ही रह जाती. भारत की परमाणु पनडुब्बियों की अगली पीढ़ी के लिए इस देशी पनडुब्बी का निर्माण बेहद महत्वपूर्ण है.
रूसी सहयोग के इतिहास के आलोक में और रूसी सहयोग की सतत आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए नई दिल्ली के लिए यह कल्पना करना भी कठिन है कि रूस की गुप्त जानकारी अमरीका के हाथों में जाने दे. ऐसा करके वह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मार सकता. वस्तुतः अमरीका के साथ संचार व सूचना सुरक्षा ज्ञापन समझौते (CISMOA) पर हस्ताक्षर करते समय भारतीय रक्षा सेवाओं (भारतीय नौसेना सहित) में जो अनिच्छा रही है, उसका आंशिक कारण यही सरोकार रहे हैं.
वैसे भी मास्को से पूर्व परामर्श किये बिना भारतीय नौसेना ऐसा कर भी नहीं सकती, क्योंकि रूसी नौसेना-कर्मी भारत को पट्टे पर दी गई अपनी परमाणु पनडुब्बियों पर हमेशा ही ऑन-बोर्ड तैनात रहते हैं. हालाँकि कुछ भारतीय रणनीतिकार अब भी यह मानते हैं कि नौसैनिक परमाणु कार्यक्रम को तीव्र गति से आगे बढ़ाने के लिए अमरीका का तकनीकी सहयोग बेहद ज़रूरी है, लेकिन नई दिल्ली बखूबी जानता है कि अमरीका के लिए भारत के साथ अपनी सैन्य परमाणु प्रौद्योगिकी को साझा करने की हिचक को दूर करना आसान नहीं होगा. अमरीका के साथ निकट भविष्य के सहयोग की कुछ संभावनाओं के लिए भारत अपने सबसे अधिक विश्वस्त रक्षा साझीदार को छोड़ नहीं सकता.
योगेश जोशी स्टैनफ़ोर्ड विवि के अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा व सहयोग केंद्र (CISAC) में परमाणु सुरक्षा के पोस्ट-डॉक्टरल फ़ैलो हैं. इस समय वह भारत के परमाणु पनडुब्बी कार्यक्रम पर अपनी पांडुलिपि को अंतिम रूप देने में संलग्न हैं.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919