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भारत में फ़ील्ड प्रशासनः चरमराती नींव

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21/05/2018
रश्मि शर्मा

2014 के आम चुनाव के बाद ऐसा लगा कि एक महत्वाकांक्षी भारत उभर रहा है। एक नये भारत की कल्पना की जाने लगी है। एक ऐसा भारत, जो मैन्युफ़ैक्चरिंग का हब होगा और जिसके शहर और गाँव स्वच्छ होंगे, जहाँ किसान की आमदनी दुगुनी हो गई होगी, सबका अपना घर होगा और बैंक में सबका अपना खाता होगा। इस नज़रिये में छुपी पर स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं, एक मान्यता थी कि एक प्रभावी प्रशासन तंत्र इस कल्पना को वास्तविकता में बदलेगा। परंतु अब, किसानों के बढ़ते आंदोलन और बेकार पड़े शौचालयों से हमेशा की तरह नीतियों की विफलता साफ़ दिखाई देने लगी है। अब समय आ गया है जब हम नीतियों को लागू करने की विफलता के उन तमाम कारणों की छानबीन करें, जो भारत के सार्वजनिक जीवन में दिखती हैं। आखिर ज़मीन पर नीतियों को उतारना इतना मुश्किल क्यों है? इसका जवाब इन नीतियों को लागू करने के लिए ज़िम्मेदार उन तमाम संस्थाओं की कमज़ोरियों में ही छिपा है, जिन्हें ‘फ़ील्ड प्रशासन’ कहा जाता है। 

फ़ील्ड प्रशासन की सबसे शीर्ष इकाई है, ज़िला। इसकी औसत आबादी लगभग 19 लाख होती है और इसमें 900 गाँव आते हैं। ज़िले का शासन तीन धाराओं में होता है। एक धारा है, राज्य सरकार के विभाग। विभागीय कार्यक्रमों को लागू करने के लिए इन विभागों के विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग कार्यालय होते हैं। दूसरी धारा है, ज़िला कलैक्टर, जो पूरे ज़िले के लिए ज़िम्मेदार होता है और एक समग्र प्रशासनिक प्रभारी और समन्वय-कर्ता होता है। कलैक्टर की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है और उसका जनता और ज़मीनी स्तर से जुड़े अधिकारियों से सीधा संपर्क रहता है। अतः वह ऊपर और नीचे से आने वाले दबावों को झेलता है। तीसरी धारा है, चुनी हुई स्थानीय सरकारें, जिनसे उम्मीद की जाती है कि वह स्वायत्त रहते हुए और स्थानीय हितों के अनुसार काम करेंगी।  

प्रशासन का ढाँचा इन तीन प्रशासनिक धाराओं की भिन्न-भिन्न शक्तियों से निर्मित होता है। इस ढाँचे से विखंडन, केंद्रीकरण और स्थानीय आवश्यकताओं के प्रति बेरुखी पैदा होती है। ज़िला कार्यालयों का कड़ा नियंत्रण राज्य सरकारों के विभागों के पास होता है। ये विभाग कार्यक्रमों और कार्यकलापों का निर्धारण करते हैं और कर्मचारियों के बारे में अधिकांश निर्णय लेते हैं, विस्तृत निर्देश जारी करते हैं और फ़ील्ड कार्यालयों का निरीक्षण भी करते हैं। इससे केंद्रीकरण की प्रवृत्ति पैदा होती है, जिसके कारण ऊपर से आने वाले सभी आदेशों को ज़मीनी ज़रूरतों के मुकाबले अधिक तरजीह मिलती है। हालाँकि अलग-अलग राज्यों में इनकी संख्या अलग-अलग होती है, फिर भी हर ज़िले में 30 से अधिक सरकारी विभाग तो होते ही हैं। चूँकि प्रत्येक ज़िला कार्यालय को अपने विभाग के निर्देशों का पालन करना होता है, इसलिए प्रशासन में समन्वय का अभाव होता है और कभी-कभी तो परस्पर विरोधी कार्रवाइयाँ भी होने लगती हैं।

ज़िला कलैक्टर के पास समन्वय की कुछ क्षमता तो होती है, लेकिन राज्य सरकार के विभागों की तुलना में ज़िला विभागीय कार्यालयों पर उनका अधिकार काफ़ी कम होता है। प्राकृतिक आपदाओं, कानून और व्यवस्था की समस्याओं या न्याय की भारी अवहेलना जैसे संकटों के दौरान कलैक्टर के पास अपार शक्ति होती है, लेकिन कर्मचारियों पर उनका नियंत्रण बहुत कम होता है और सामाजिक-आर्थिक विकास के कार्यक्रमों के मामलों में तो उनका दखल बहुत ही कम होता है। विभिन्न विभागों पर कलैक्टर के अधिकार में बहुत भिन्नता होती है। विनियामक विभागों, खास तौर पर राजस्व ( भूमि रिकॉर्ड के लिए ज़िम्मेदार) और पुलिस पर कलैक्टर का काफ़ी नियंत्रण होता है, परंतु सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए ज़िम्मेदार विभागों पर इनके अधिकार सीमित होते हैं और सड़कों के निर्माण और जल आपूर्ति जैसे तकनीकी विभागों पर तो उनका नियंत्रण नहीं के बराबर ही होता है।  इसके परिणामस्वरूप ज़िला स्तर पर संकट के दौरान तो वे त्वरित कार्रवाई कर सकते हैं, लेकिन सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए स्थायी और समन्वित प्रयास करना कठिन होता है। ज़िले से नीचे तो समन्वित कार्रवाई करना उनके लिए और भी कठिन होता है, क्योंकि विभिन्न विभागों के कार्यालय अलग-अलग भौगोलिक इकाइयों में होते हैं और इनके समन्वय का कोई सर्वमान्य अधिकारी नहीं होता। इसलिए समन्वित कार्रवाई की क्षमता और भी सीमित हो जाती है और स्थानीय ज़रूरतों के अनुरूप कार्रवाई नहीं हो पाती।

स्थानीय रूप में चुने हुए प्रतिनिधि आम तौर पर ज़मीनी स्तर की ज़रूरतों और समस्याओं को अच्छी तरह समझते हैं और उनके निवारण के लिए तत्पर भी रहते हैं, लेकिन सशक्त न होने के कारण पंचायतों और नगर पालिकाओं या स्थानीय सरकारों के लिए स्थानीय ज़रूरतों को पूरा करना संभव नहीं हो पाता। कानून के मुताबिक स्थानीय सरकारें सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए उत्तरदायी हैं, लेकिन यथार्थ में वास्तविक अधिकार काफ़ी कम होते हैं और राज्य सरकारें उनके अधिकारों में फेर-बदल करती रहती हैं। इस कारण पंचायतों और नगर पालिकाओं की भूमिका स्पष्ट नहीं होती, जिसके कारण प्रतिनिधियों और अधिकारियों के बीच संघर्ष होता रहता है और वे और भी अशक्त हो जाती हैं। संक्षेप में, अशक्त स्थानीय सरकारें जनता की माँग के आधार पर दबाव बिंदुओं के रूप में काम करती हैं, लेकिन उनके पास जनता की माँगों को पूरा करने का अधिकार नहीं होता, जिसके कारण व्यवस्था के अंदर भूमिकाओं को लेकर भ्रम बना रहता है और संघर्ष भी बढ़ता जाता है।

प्रशासन में दूसरी प्रकार की समस्याएँ सरकार की मानव संसाधन-प्रबंधन की नीतियों के कारण पैदा होती हैं। भारत की नौकरशाही का ढाँचा ऐसा है कि सबसे कम कुशलता-प्राप्त और सबसे कम वेतन पाने वाले कर्मचारी ही वस्तुतः सरकारी कार्यक्रमों को लागू करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।  परंतु ज़मीनी स्तर पर काम करने के लिए अक्सर ऊँचे स्तर के कौशल की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, बच्चों में कुपोषण को कम करने के लिए उन तमाम बेहद गरीब तबके के परिवारों को सक्षम बनाने और मनाने की आवश्यकता है, जहाँ माँ और बाप दोनों ही खेतिहर मज़दूर हैं ताकि उनके बच्चों पर अधिक समय और धन का निवेश किया जा सके। अगर इस तरह के कामों में संलग्न लोगों की समझ और कौशल में कमी रहती है तो उन्हें कामयाबी मिलने की संभावना नहीं होगी। नब्बे के दशक के मध्य से कार्यान्वयन की क्षमता में तब से और गिरावट आने लगी जब से अनेक राज्य सरकारों ने कार्यान्वयन के स्तर पर अस्थायी या कॉन्ट्रेक्ट पर कर्मचारी भर्ती करना शुरू कर दिया। इसके अलावा, इस अन्याय का विरोध करने के लिए इस तरह के अधिकांश कर्मचारियों ने अपनी यूनियन बना ली और स्थायी नौकरी और अधिक वेतन के लिए आंदोलन शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार में अब बहुत बड़ी संख्या में असंतुष्ट कर्मचारी हैं, जो अधिकारियों के साथ लगातार संघर्ष में उलझते हैं। इसके परिणामस्वरूप कार्यान्वयन में विफलता और बढ़ने लगी।  

एक आम धारणा यह है कि फ़ील्ड में काम करने वाले नौकरशाहों की संख्या बहुत रहती है, लेकिन वास्तव में इस धारणा के विपरीत फ़ील्ड में काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या बहुत कम रहती है। यहाँ तक कि ज़िला स्तर के कार्यालयों में आम तौर पर एक प्रबंधक होता है और उसके साथ ऑफ़िस स्टाफ़ होता है। तकनीकी कर्मचारी की उपलब्धता तो कभी-कभार ही होती है। इंजीनियर, डॉक्टर और लेखापाल तो होते हैं, लेकिन अच्छी तरह से प्रशिक्षित शिक्षा और स्वास्थ्य प्रशासकों,पोषण विशेषज्ञों या लिंग विशेषज्ञों का अभाव रहता है। मानव संसाधनों का यह हाल तब है जबकि नब्बे के दशक के अंत से सरकारी कार्यक्रमों और निधि में भारी वृद्धि हुई है। जब सरकारी कर्मचारियों से उनकी क्षमता से अधिक काम करने के लिए कहा जाता है, तो वे उन्हीं कामों पर अधिक ध्यान देते हैं, जिनके लिए उच्च अधिकारियों का सबसे अधिक दबाव रहता है। इसका अर्थ यह है कि उच्च अधिकारियों के दबाव में खराब हैंड पम्पों के आँकड़े भेजने के चक्कर में टूटे हैंड पम्प का काम उपेक्षित पड़ा रह जाता है।

तीसरी प्रकार की समस्या है, कार्य पद्धति. विभागीय कार्यक्रमों की कड़ी गाइडलाइन के अनुसार ही सभी कार्य किये जाते हैं और अधिकारी अपनी भूमिका “कुपोषण को घटाने” जैसे लक्ष्य को पूरा करने के बजाय  “कार्यक्रमों का कार्यान्वयन” समझते हैं। उदाहरण के लिए, कुपोषण से निपटने के लिए अधिकारी अपने क्षेत्र में कुपोषण के विशिष्ट कारणों का विश्लेषण करने के बजाय पूरे राज्य के लिए जारी दिशा-निर्देशों का पालन करते हैं और उसके अनुरूप ही रणनीति बनाते हैं। इस प्रकार केंद्रीकरण बढ़ता जाता है और अग्रणी अधिकारियों की राय पर कभी-कभार ही विचार किया जाता है। यही कारण है कि अनेक अव्यावहारिक रणनीतियाँ अपनाई जाती हैं। इसके अलावा ये अधिकारी कभी-कभार ही बाहरी विशेषज्ञों की मदद लेते हैं और गैर सरकारी संगठनों (NGOs) द्वारा सफलता पूर्वक की गई पहलों की अनदेखी कर देते हैं, जिसके कारण डिलीवर करने की उनकी क्षमता और भी कम हो जाती है।  

चूँकि क्षमता की कमी, भारी केंद्रीकरण और कार्यक्रमों के कड़े निर्देश जैसी मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं हुआ, सुधारात्मक कदम भी इस समस्या का हिस्सा बन जाते हैं। हाल ही के वर्षों में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ है कि सरकारी कार्यालयों में प्रौद्योगिकी के उपयोग में वृद्धि हुई है। इसके कारण कुछ प्रक्रियाओं को व्यवस्थित करने में निश्चय ही मदद मिली है। अब कंप्यूटर की मदद से आवेदनों का पता लगाया जा सकता है और ऐसी मशीनें भी हैं जिनकी मदद से सही ढंग से ज़मीन को मापा जा सकता है, लेकिन प्रौद्योगिकी के कारण फ़ील्ड अधिकारियों और समुदाय के बीच संपर्क बढ़ने के बजाय राज्य सरकारों और फ़ील्ड कार्यालयों के बीच संपर्क मज़बूत हुआ है, केंद्रीकरण को बढ़ावा मिला है। राज्य सरकार के अधिकारी अधिक नज़दीकी से ज़िला अधिकारियों पर नज़र रखने लगे हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनैट जैसी प्रौद्योगिकी की बहुत सीमित सुविधा के कारण समुदाय और सरकार के संपर्क में भारी वृद्धि नहीं हो सकी है। अत्यधिक केंद्रीकरण और तानाशाही की मूलभूत कमियाँ खत्म होने के बजाय अधिक मज़बूत हो गई हैं।

व्यापक भ्रष्टाचार के कारण समस्याएँ और भयावह हो गई हैं, जिसके कारण पेशेवर वृत्ति का ह्रास होने लगा है। जैसे-जैसे कोई अधिकारी पेशेवर मानकों के बजाय व्यक्तिगत हितों के आधार पर काम करने लगता है, वैसे-वैसे ही जनता की आवश्यकताओं के प्रति उनकी असंवेदनशीलता भी बढ़ने लगती है। इसके अलावा, भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए रिकॉर्ड रखने और भारी छानबीन की लंबी प्रक्रियाएँ शुरू की जाने लगी हैं। इसके कारण दक्षता में भी कमी आ गई है। पिछले कुछ वर्षों में विभिन्न राज्यों में सूचना का अधिकार अधिनियम, सामाजिक लेखा-परीक्षा और सार्वजनिक सेवा गारंटी अधिनियमों जैसे सामुदायिक दायित्वों के अनेक उपाय अपनाये जाने लगे हैं, लेकिन इनके परिणामस्वरूप प्रशासनिक क्षमता या लोकाचार में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ा है, क्योंकि न तो मूल ढाँचे और क्षमता के अवरोधों को हटाया जा सका है और न ही फ़ील्ड-प्रशासन को अवरुद्ध करने वाली अनुत्पादक कार्य-प्रक्रिया को खत्म किया जा सका है।

रश्मि शर्मा 2017 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवा-निवृत्त हो गई थीं. वह कैसी में स्प्रिंग 2018 के दौरान विज़िटिंग फ़ैलो थीं. यह लेखप्रदान द्वारा समर्थित अध्ययन पर आधारित है.

 

हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919