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भारत में संघवाद, अर्थव्यवस्था और कल्याणः केंद्रवाद का ऐतिहासिक पूर्ववृत्त

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03/01/2022
लुईस टिलिन

भारत में साम्राज्यवाद की समाप्ति के बाद जो संविधान लागू किया गया, उसमें एक नये दृष्टिकोण से संघवाद की परिभाषा की गई. उस समय तो यह ठीक ही था, लेकिन अब धीरे-धीरे क्षीण होते हुए संघवाद का स्वरूप आधा रह गया है. भारत के संघवाद के पीछे का तर्क अब उतना पैना नहीं रहा. इसने केंद्र सरकार को राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए मजबूत विशेषाधिकार तो दे दिए, लेकिन संघीय और क्षेत्रीय सरकारों की अपने-अपने कार्यक्षेत्र में स्वायत्तता होनी चाहिए. 1989-2014 के बीच राजनैतिक क्षेत्रीकरण के चरण के बाद, जिसमें भारत को गहराते संघवाद का मार्ग कठिन लग रहा था और चुनाव में संसदीय बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के सत्ता में वापस लौटने के कारण भारत के संविधान को एक बार फिर से समग्रता में देखने की केंद्रीकरण की उसकी क्षमता वापस आ गई है.

यहाँ मैं भारत में संघवाद के स्पष्ट स्वरूप के ऐतिहासिक पूर्ववृत्त को खोजने का प्रयास कर रहा हूँ. जैसा कि माधव खोसला ने हाल ही में तर्क दिया था कि भारत ने बीसवीं शताब्दी के मध्य में लोकतंत्रीकरण के साथ-साथ संवैधानिक नवाचार के एक उल्लेखनीय मार्ग की शुरुआत की, जिसका महत्व बीसवीं शताब्दी के लिए "प्रतिमान की तरह" था. इस अवधि के दौरान भारत में विकसित संघवाद कम प्रतिमानात्मक नहीं था. ऐतिहासिक संघवाद की ओर लौटते हुए यह संभव था कि हम यह देख सकें कि भारतीय संघवाद, संघवाद के अपने आरंभिक स्वरूप का क्षीण स्वरूप नहीं था, बल्कि साम्राज्यवादी शासन से मुक्ति पाने के बाद आज़ादी के समय भारत के सामने आने वाली चुनौतियों को पूरा करने के लिए वांछित संघवाद का नया स्वरूप था.

अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि भारत के केंद्रीकरण  की अवधारणा संविधान सभा द्वारा प्रकट की गई इस चिंता के कारण उत्पन्न हुई थी कि विभाजन के बाद देश को एकजुट रखना आवश्यक है. खोसला ने अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहा कि भारत के संविधान में केंद्रीकरण की प्रवृत्तियाँ लोकतंत्रीकरण की उसकी परियोजना की भी घटक थीं, जिसमें एक मज़बूत केंद्रीय प्राधिकरण लोगों को दमन के स्थानीय पैटर्न से मुक्ति दिलाने के लिए आवश्यक था.

भारत में राज्य और कल्याण के इतिहास के साथ-साथ भारतीय संघवाद पर कहीं अधिक स्थायी शोध कार्य करते हुए मैं राजनीतिक अर्थव्यवस्था के उन कुछेक कारकों की यहाँ खोज कर रहा हूँ, जिनके कारण भारत में एक खास तरह के संघवाद का ढाँचा तैयार हुआ. खास तौर पर मैं यह सुझाना चाहूँगा कि देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिए भारतीय संघवाद के मूलभूत स्पष्ट तत्वों को भारत की राजधानी के कुछ वर्गों, मज़दूर नेताओं और राष्ट्रवादी राजनेताओं के बीच सहमति के आधार पर आकार प्रदान किया गया था ताकि अखिल भारतीय स्तर पर औद्योगिक विकास के मार्ग में आने वाली अंतर-प्रादेशिक आर्थिक प्रतिस्पर्धा के जोखिम से बचा जा सके. 

बीसवीं शताब्दी के आरंभ में भारत में पटसन के साथ-साथ कपास के वस्त्र उद्योग के विशाल औद्योगिक क्षेत्र में अंतर-प्रादेशिक आर्थिक प्रतिस्पर्धा इस कदर बढ़ गई थी कि मज़दूरी की लागत को अधिक से अधिक नीचे लाने और हालात को बद से बदतर बनाने की रेस शुरू हो गई थी.

भारत के वस्त्र उद्योग के कारोबार का बंबई शहर का सबसे पुराना केंद्र लगातार घाटे में चलने लगा. मज़दूरी में कटौती, मज़दूरों की छँटनी और इसे “युक्तिसंगत” सिद्ध करने के प्रयास के विरोध में औद्योगिक असंतोष बढ़ने लगा. कुछ नियोक्ताओं, श्रमिक नेताओं (बी.आर.अंबेडकर सहित) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनेताओं ने बिगड़ते हुए औद्योगिक संबंधों पर अलग-अलग ढंग से अपनी प्रतिक्रिया देते हुए एक ऐसे केंद्रीय शासन के लिए दबाव बढ़ाया,जिससे श्रमिक नीतियों में समन्वय स्थापित किया जा सके और सामाजिक सुरक्षा को कायम किया जा सके और जिसे अन्य पर नहीं, बल्कि कुछ क्षेत्रों में नियोक्ताओं पर अधिक लागत बढ़ाने के बजाय अखिल भारतीय स्तर पर लागू किया जा सके. नये अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) से उद्भूत अंशदायी सामाजिक बीमा के प्रयोग के लिए बंबई जैसे व्यक्तिगत प्रांतों के कम मज़दूरी वाले क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा की गुंजाइश कम होने लगी. इस बीमा योजना के कारण स्थानीय नियोक्ताओं की अतिरिक्त लागत बढ़ सकती थी.

पुरालेख संबंधी शोध के आधार पर मैं दर्शाना चाहूँगा कि 1919 और 1935 के दोनों ही भारत सरकार अधिनियमों को क्रमशः अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) और ( राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन फ़ैडरेशन श्रम संगठन के विचारों को आगे बढ़ाते हुए) ब्रिटिश लेबर पार्टी के दबाव में आकर ही अंतिम क्षणों में संशोधित किया गया था ताकि श्रम नीति के राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय के लिए इसके दायरे को उसके अंदर ही सुनिश्चित किया जा सके. इसे ही संविधान में समवर्ती सूची का नाम दिया गया.

यह औपनिवेशिक अधिकारियों की चिंता के कारण हुआ, जिन्होंने बार-बार राष्ट्रीय औद्योगिक और श्रम नीतियों से परहेज़ किया और एक हस्तक्षेपवादी नीति अपनाने के बजाय एक विकेन्द्रीकृत लैसेज़-फ़ेयर (laissez-faire) दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी. चालीस के दशक की शुरुआत में ही, केंद्र में औद्योगिक संबंधों और श्रम नीति पर बातचीत करने के लिए इन संवैधानिक प्रावधानों को राष्ट्रीय श्रम सम्मेलनों की स्थापना के साथ और नियोक्ताओं, श्रम और राज्य की स्थायी त्रिपक्षीय समिति के अग्रदूत के साथ जोड़ दिया गया.

जब संविधान सभा ने संविधान का प्रारूप तैयार करना शुरू किया तो उसका आधार 1935 के भारत सरकार के अधिनियम के अंतर्गत शक्तियों के विभाजन को बनाया गया तो यह एक औपनिवेशिक संवैधानिक खाके का सरल विनियोग नहीं था और न ही संघवाद के कमज़ोर संस्करण को अपनाना था. भारत के संवैधानिक वास्तुकारों ने जानबूझकर संघवाद का एक ऐसा प्रकार अपनाया जो उन राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुकूल था जिनका उन्होंने बीसवीं शताब्दी के मध्य में सामना किया था. एक केंद्रीकृत संघीय डिजाइन की अपनी पसंद में, भारत ने विकेन्द्रीकृत संघों में उत्पन्न होने वाली सामूहिक कार्रवाई से संबंधित कुछ समस्याओं को उत्पन्न न होने देने पर ज़ोर दिया, जैसे कि अमेरिका या कनाडा में अधिक व्यापक कल्याणकारी राज्यों के लिए दबाव बढ़ रहा था लेकिन अंतर-राज्यीय प्रतिस्पर्धा के कारण बेरोज़गारी बीमा या पेंशन जैसी नीतियों को अपनाने में बाधा उत्पन्न हो रही थी, क्योंकि इससे किसी एक क्षेत्र में श्रम लागत में वृद्धि होने और अन्य में वृद्धि नहीं होने की संभावना थी. भारत के संघवाद में केंद्रीकरण के पूर्ववृत्त मात्र ऐतिहासिक वाद-विवाद के विषय नहीं थे. वे आज भी मायने रखते हैं क्योंकि वे उस संदर्भ को आकार देना जारी रखते हैं जिसके भीतर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक शक्ति और नीति-निर्माण के प्राधिकरण पर ज़ोर दिया जाता है और चुनाव लड़ा जाता है. शायद यह विडंबना ही है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार ने अखिल भारतीय स्तर पर नीति के समन्वय के लिए एक सक्षम शक्ति के रूप में केंद्रीयवाद की दृष्टि को प्रमुख रूप में अपना लिया है.

मोदी सरकार ने राज्य सरकारों को राष्ट्रीय स्तर पर श्रम कानून में सुधार के लिए दशकों से चली आ रही बाधाओं को दूर करने के साधन के रूप में राजनीतिक रूप से संगठित क्षेत्र को नियंत्रित करने वाले केंद्रीय श्रम कानूनों में संशोधन करने के लिए प्रोत्साहित किया है. इसके साथ ही, हालाँकि, केंद्र सरकार ने असंगठित क्षेत्र के लिए कल्याण और प्रत्यक्ष लाभ योजनाओं के लिए दावा करने वाले डिजाइन और क्रेडिट को केंद्रीकृत कर दिया है, जिसे राज्य सरकारों ने पहले आकार देने और लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

ये दोनों दृष्टिकोण श्रमिकों के लिए परिस्थितियों में "नीचे की ओर रेस" को रोकने में केंद्र की नियामक भूमिका को कमजोर करते हैं, जबकि राज्य सरकारों (विशेष रूप से विपक्षी दलों द्वारा शासित) के प्रोत्साहन और क्षमता को भी कम करते हैं ताकि असंगठित क्षेत्र के लिए कल्याणकारी कार्यक्रमों की डिलीवरी में सुधार लाने के लिए केंद्र के साथ सहयोग किया जा सके. लेकिन कल्याण के क्षेत्र में इन केंद्र-राज्यों के उलझावों का तथ्य भारतीय संविधान के निर्माताओं के जानबूझकर किए गए विकल्पों को दर्शाता है. वे यह मानते थे कि कल्याणवादी गतिविधियों का संरक्षण न तो केंद्र द्वारा और न ही राज्यों द्वारा होना चाहिए.

लुईस टिलिस किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट में राजनीति के प्रोफ़ेसर और निदेशक हैं.

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919.