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दक्षिण एशिया में देखभाल की बढ़ती अर्थव्यवस्था

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07/10/2019
फ्रांसिस कुरियाकोज़ और दीपा ऐय्यर

सन् 2018 में “शानदार काम के भविष्य के लिए देखभाल के काम और उससे जुड़े रोज़गार” विषय पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद देखभाल के कामों पर नीति-विषयक बहस छिड़ गई. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने पाया कि देखभाल के कामों में बहुत से ऐसे कौशल भी शामिल हैं, जिन्हें न तो अब तक औपचारिक रूप में मान्यता मिली है और न ही उसके लिए पर्याप्त पारिश्रमिक मिलता है. इनमें देखभाल के काम करने की वे स्थितियाँ भी शामिल हैं, जिन्हें अब तक नियमित नहीं किया जा सका है. इसके अलावा देखभाल के काम का बोझ निर्विवाद रूप में महिलाओं पर ही डाल दिया गया है. यही कारण है कि देखभाल के कामों में लगी दो-तिहाई महिलाएँ ही हैं, जो पुरुषों की तुलना में 3.2 गुना अधिक काम बिना किसी पारिश्रमिक के अपने-आप ही कर देती हैं. 2019 की ILO रिपोर्ट “लैंगिक समानता के लिए जबर्दस्त उछाल” में पारिश्रमिक के बिना किये जाने वाले देखभाल के काम को महिलाओं के रोज़गार में सबसे बड़ी बाधा के रूप में चिह्नित किया गया है, क्योंकि 1.7 प्रतिशत पुरुषों की तुलना में 18-54 आयु वर्ग के बीच की 21.7 प्रतिशत महिलाएँ इसमें संलग्न हैं.  

देखभाल के काम और उससे जुड़ी अर्थव्यवस्था एक ऐसी प्रणाली है जिसमें देखभाल से संबंधित शारीरिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक पहलू भी जुड़े हुए हैं और यह इन पहलुओं से जुड़ी समग्र प्रणाली तो है, लेकिन दुनिया-भर की सामुदायिक कल्याण से जुड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं में बहुत कम मूल्य वाली प्रणाली भी है. देखभाल का काम प्रत्यक्ष भी हो सकता है और परोक्ष भी, पारिश्रमिक लेकर भी यह काम किया जाता है और बिना पारिश्रमिक के भी, अल्पकालिक (प्रसूति संबंधी आवश्यकताएँ) भी और दीर्घकालिक ( अशक्तों और बड़े-बूढ़ों का देखभाल) भी. देखभाल का काम करने वाले शिक्षक, नर्सें, सामुदायिक स्वास्थ्य-कर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता और घरेलू कामगार शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कार्यों से जुड़े होते हैं. देखभाल का काम करने वाले कामगार पूरी लगन और निष्ठा से रोगियों की सेवा करते हैं. खास तौर पर बिना किसी पारिश्रमिक के देखभाल करने वाले लोग “सार्वजनिक हित” की भावना से समाज की सबसे बढ़िया सेवा करते हैं और इसके बदले में उन्हें कोई पारिश्रमिक भी नहीं मिलता.

बिना किसी पारिश्रमिक के किये जाने वाले देखभाल के काम का बोझ दक्षिण एशिया की उन विवाहित और बच्चों वाली महिलाओं पर सबसे अधिक पड़ता है जिनकी शैक्षणिक योग्यता कम होती है और जो ग्रामीण इलाकों में रहती हैं. ILO के अनुमान के अनुसार मज़दूरी पर आधारित रोज़गार के मामले में दक्षिण एशियाई महिलाओं की भागीदारी 19.5 प्रतिशत है, जो सब-सहारा अफ्रीका की महिलाओं से भी कम है. उदाहरण के लिए बंगला देश की एक महिला अपने कुल समय का 41.4 प्रतिशत समय बिना पारिश्रमिक के काम पर लगाती है. उसके पास पारिश्रमिक लेकर किये जाने वाले काम और आराम के लिए बहुत कम समय बचता है. बिना पारिश्रमिक के देखभाल करने वाली महिलाओं को ऐसे काम के बोझ का दुष्परिणाम कई पीढ़ियों तक सहना पड़ता है. वैश्विक स्तर पर 54 मिलियन बच्चे हर सप्ताह 21 घंटे से अधिक समय तक घरेलू काम करते हैं और इसका असर उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य पर पड़ता है.

देखभाल के काम की माँग में वृद्धि
2030 तक देखभाल के कामों की माँग में भारी वृद्धि की संभावना है और इसके कई कारण हैं. पहला कारण तो यह है कि निम्न और मध्यम-आय वाले देशों में भू-सांख्यिकीय परिवर्तन के कारण कामकाज की आयु वाली आबादी के बल पर बड़े-बूढ़ों के अनुपात में अधिक वृद्धि होगी.    दूसरा कारण यह है कि शहरीकरण के कारण इन क्षेत्रों में परंपरागत संयुक्त परिवार का ढाँचा चरमरा रहा है और उसके स्थान पर एकल परिवार, अकेले माँ-बाप और बहुराष्ट्रीय परिवार का ढाँचा उभर रहा है. इसके कारण सामुदायिक देखभाल का ताना-बाना बिखर रहा है. तीसरा कारण है कि जलवायु परिवर्तन के कारण पानी की कमी हो रही है और ग्रामीण खान-पान की सामग्री भी कम होती जा रही है. इसके कारण महिलाओं और बच्चों पर देखभाल का बोझ बढ़ता जा रहा है. ऐसी परिस्थितियों में बिना पारिश्रमिक के किये जाने वाले देखभाल के कामों की गुणवत्ता में भी गिरावट आ सकती है.

इसलिए आवश्यक है कि देखभाल की अर्थव्यवस्था में तत्काल अधिक से अधिक निवेश किया जाए. ILO के अनुमान के अनुसार 2015 के स्तर की तुलना में निवेश की राशि को दुगुना करके 2030 तक 117 मिलियन अतिरिक्त रोज़गार पैदा किये जा सकते हैं. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार यूनियन संघ (2019) के अनुसार भारत में देखभाल के क्षेत्र में 2 प्रतिशत जीडीपी के निवेश से 11 मिलियन रोज़गार पैदा किये जा सकते हैं. इनमें से 32.5 प्रतिशत रोज़गार महिलाओं के लिए होंगे. देखभाल के संबंधपरक स्वरूप से यह भी पता चलता है कि ये रोज़गार अपने-आप पैदा नहीं हो सकते.

व्यापक नीति का हस्तक्षेप
देखभाल की अर्थव्यवस्था में व्यापक नीति का हस्तक्षेप भी एक ऐसा मामला है जिसके कारण शिक्षा, स्वास्थ्य और शालीन कामों में सतत विकास के लक्ष्य (SDGs) प्राप्त किये जा सकते हैं.  इसका संबंध सार्क के सामाजिक चार्टर के उद्देश्यों और विकास-लक्ष्यों से भी है. देखभाल की व्यापक नीतियों का आधार ILO के “शालीन कामों के एजेंडा” के उन सिद्धांतों में निहित है, जिनका आरंभ बिना पारिश्रमिक की देखभाल वाले कामों के मूल्य की पहचान करने, ऐसे कामों की कठोरता में कमी लाने, महिलाओं और पुरुषों के बीच देखभाल के कामों की ज़िम्मेदारी का पुनर्वितरण करने, देखभाल का काम करने वाले कामगारों को पारिश्रमिक दिलाने और उनके सरोकारों पर ध्यान देने से होता है. इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए दक्षिण एशिया की देखभाल की नीतियों को दो धुरियों से जोड़ना होगाः देखभाल की परिवर्तनीय नीति और श्रम विनियम.

देखभाल की परिवर्तनीय नीति की पहली धुरी में बच्चों की देखभाल, बड़े-बूढ़ों की देखभाल और अशक्तता-सेवाओं की प्रत्यक्ष व्यवस्था शामिल होगी और देखभाल संबंधी सामाजिक अंतरण लक्ष्यों पर आधारित रहेंगे और साधनों द्वारा परीक्षित होंगे. 2016 में ILO के अंतर्गत 204 देशों में से केवल 38 देश ऐसे थे, जिनमें निःशुल्क और उच्च गुणवत्ता वाली बच्चों की देखभाल वाली सरकारी सेवाएँ मौजूद थीं और केवल 103 देश ऐसे थे, जिनमें अशक्तता-लाभ देने की व्यवस्था थी. इसके अलावा, देखभाल संबंधी सेवाओं की गुणवत्ता और पर्याप्त होने का आकलन पीने के साफ़ पानी, स्वच्छता और ऊर्जा की उपलब्धता जैसे देखभाल संबंधी बुनियादी ढाँचे से ही होता है.

व्यापक देखभाल की व्यवस्था की दूसरी धुरी है, श्रम नीति. नियत अवधि के रोज़गार के एक भाग के रूप में व्यापक प्रसूति और पैतृक सवेतन छुट्टी जैसी श्रम नीति का देखभाल संबंधी उपादान परिवार के लिए अनुकूल कामकाजी व्यवस्थाओं का एक अभिन्न अंग है. रोज़गार के ढाँचे में लचीलापन औपचारिक रोज़गार से जुड़ने को इच्छुक देखभाल प्रदाता से संबंधित श्रम नीति का दूसरा उपादान है. अंशकालिक, लचीला-समय और सुदूर कामकाज जैसी अमानक कार्य-प्रणालियाँ रोज़गार के विभिन्न प्रकारों के रूप में पहले से ही मौजूद हैं. ऐसे कर्मचारियों के लिए प्रो-रेटा सामाजिक लाभों की व्यवस्था भविष्य में देखभाल संबंधी निवेश का अभिन्न भाग होगी. इसके अलावा, कौशल-निर्माण, प्रशिक्षण और देखभाल-कर्मियों का प्रमाणीकरण देखभाल के काम को औपचारिक स्वरूप प्रदान करने और विनियमित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम सिद्ध होंगे.

हाल ही के वर्षों में भारत और बंगला देश जैसे देशों ने ऐसे भौतिक ढाँचे में निवेश करना शुरू कर दिया है जिनसे देखभाल की सेवा-व्यवस्था में परोक्ष रूप में सुधार होगा. भारत के आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 में यह अनुमान लगाया गया है कि सार्वजनिक नीति में तीन बड़े परिवर्तन होंगे, जिनसे देखभाल की अर्थव्यवस्था पर अधिक ध्यान दिया जा सकेगा. पहला परिवर्तन तो यह होगा कि कामकाज की आयु वाली आबादी के आकार और अंश में गिरावट आने के कारण इस प्रकार की उचित क्षेत्रीय नीतियाँ बनानी आवश्यक होंगी जिनसे अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिकों को समायोजित किया जा सकेगा, चरणबद्ध रूप में सेवा-निवृत्ति की आयु बढ़ाई जा सकेगी और पेंशन और सेवा-निवृत्ति संबंधी अन्य प्रकार के लाभों की व्यवस्था की जा सकेगी. दूसरा परिवर्तन यह होगा कि स्कूल जाने वाले बच्चों की आबादी में गिरावट आने के कारण मौजूदा आरंभिक स्कूलों के विलयन और समेकन से संबंधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता पर ज़ोर दिया जाने लगा है. तीसरा परिवर्तन यह हुआ है कि स्वस्थ जीवन प्रत्याशा में वृद्धि के कारण आम जनों के स्वास्थ्य के संदर्भ में बड़े-बूढ़ों की अधिकाधिक देखभाल करने पर भी ध्यान दिया जाने लगा है. 

सरकार की भूमिका
व्यापक देखभाल संबंधी नीतियों में इस बात की अपेक्षा की गई है कि देखभाल की अर्थव्यवस्था में निवेश करने, उसे औपचारिक स्वरूप प्रदान करने और उसे विनियमित करने में सरकार की अधिकाधिक भूमिका होनी चाहिए. देखभाल संबंधी लाभ प्रदान करने के अलावा राष्ट्रीय लेखा-बजट के अंतर्गत आर्थिक वृद्धि में पारिश्रमिक के बिना की जाने वाली देखभाल के लिए अधिक योगदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिए. आर्थिक नीति में लैंगिक दृष्टि से संवेदनशील बजटिंग, सैटेलाइट लेखे और कर-नीति जैसे कुछ उपाय हैं, जिनको लागू करने से आर्थिक नीति में इनकी स्वीकृति परिलक्षित होगी और देखभाल के कामों को सम्मानित किया जा सकेगा.   अंततः सरकार ही वह मध्यस्थ हो सकती है जो देखभाल-कर्मियों को उनके अधिकार दिला सकती है और उनके अधिकारों का विस्तार भी कर सकती है. 

देखभाल संबंधी अर्थव्यवस्था में सतत निवेश करने के संभावित लाभों को बढ़ा-चढ़ा कर कहने की आवश्यकता नहीं है. सबसे पहला लाभ तो यही होगा कि देखभाल संबंधी नीतियों में महिला श्रमिकों की भागीदारी में सुधार लाने की अपार क्षमता मौजूद है और इससे लैंगिक आधार पर मज़दूरी के अंतराल को भी समय रहते कम किया जा सकेगा. दूसरा लाभ यह होगा कि देखभाल संबंधी नीति से पीढ़ी-दर-पीढ़ी लाभ मिल सकेगा, बच्चों को घरेलू काम से मुक्ति दिलाई जा सकेगी और पीढ़ियों से जाति, लिंग और वर्ग के आधार पर होने वाले और लगातार बढ़ने वाले विभिन्न प्रकार के भेदभाव और दमन को भी कम किया जा सकेगा. तीसरा लाभ यह होगा कि व्यापक देखभाल संबंधी नीतियाँ अपने स्वरूप में ही परिवर्तनशील हैं और इनका लैगिंक प्रवृत्ति पर भी देखभाल को लेकर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और अधिक से अधिक पुरुष भी देखभाल के कामों में भागीदार हो जाते हैं. चौथा लाभ यह है कि व्यापक देखभाल संबंधी नीतियों से नियोक्ता भी लाभान्वित होते हैं और श्रम-उत्पादकता में वृद्धि होती है, कर्मचारियों की गैर-हाज़िरी और टूट-फूट में कमी होने लगती है और कार्यस्थलों पर समानता और दक्षता की भावना विकसित होने लगती है. और सबसे बड़ा लाभ तो यही होता है कि किफ़ायती और गुणवत्ता-पूर्ण देखभाल सामाजिक हक के रूप में विकसित होने लगती है और इसके कारण देखभाल पाने वाले लोगों की गरिमा और आज़ादी भी सुनिश्चित हो जाती है.

फ्रांसिस कुरियाकोज़ कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के कैम्ब्रिज विकास पहल की सलाहकार हैं.

दीपा ऐय्यरकैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के भूमि अर्थव्यवस्था विभाग में पीएचडी की शोधार्थी हैं.

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919