28-29 अक्तूबर, 2018 को 13 वें वार्षिक शिखर सम्मेलन के एक भाग के रूप में जापान की यात्रा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विश्व की निरंतर बदलती अस्थिर व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में भारत-जापान के द्विपक्षीय संबंधों के उदीयमान विकास बिंदुओं पर प्रकाश डाला था. भारत और जापान दोनों ही देश हिंद-प्रशांत क्षेत्र में समान चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. इसलिए दोनों ही देशों के बीच विभिन्न मोर्चों पर सहयोग निश्चय ही अपेक्षित है.यह भी उल्लेखनीय है कि एक दूसरे के साथ बेहतर और मज़बूत संबंध बनाने के सामूहिक हितों का अंदाज़ा इसी बात से हो जाता है कि पिछले चार वर्षों के दौरान दोनों देशों ने पारस्परिक तौर पर एक-दूसरे के देशों में अनेक महत्वपूर्ण राजकीय दौरे किये हैं. 2014 से लेकर अब तक मोदी ने जापान के तीन दौरे किये हैं. तीसरे दौरे में मोदी 13 वें शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए जापान गये थे.इसके अलावा दोनों देशों के परस्पर व्यक्तिगत संबंधों की भी चर्चा की जाती है और यह भी सच है कि दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की विचारधारा में काफ़ी समानता है. दोनों को दक्षिणपंथी राष्ट्रीय विचारधारा नेता के रूप मे जाना जाता है.जब मोदी ने अपने गृह राज्य गुजरात में जापान के प्रधान मंत्री शिंजो आबे की बड़ी धूमधाम से मेजबानी की थी तो आबे ने भी इसकेजवाब में अपने सुरम्य यमनाशी अवकाश गृह में एक निजी रात्रि भोज देकर मोदी की मेज़बानी की.
13 वें वार्षिक भारत-जापान शिखर सम्मेलन के अवसर पर अनेक महत्वपूर्ण करारों पर हस्ताक्षर किये गये. इनमें से कुछ महत्वपूर्ण करार हैं, संयुक्त तीव्र गति रेल परियोजना; जिसके लिए जापानी औद्योगिक सहयोग एजेंसी (JICA) ने एक महीने पहले ही 5,500 करोड़ रुपये की पहली किश्तजारी की है; हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारतीय जलसेना और जापान नौवहन स्वयं-रक्षाबल (JMSDF) के बीच नौसेनिक सहयोग बढ़ाना ; $75 बिलियन डॉलर मुद्रा का विनिमय ; इससे व्यापार युद्ध की बढ़ती धमकी और रुपये बनाम डॉलर के बीच तेज़ी से होते मूल्यह्रास में राहत की उम्मीद है. अमरीका की तरह का 2+2 करार ; और अर्जन व क्रॉस-सर्विसिंग करारों (ACSA) को अंतिम रूप देने के लिए वार्ताओं की शुरुआत, जिसके कारण दोनों देशों की जलसेनाओं को एक-दूसरे के जलक्षेत्रों में लंगर डालने की सुविधा मिल जाएगी (जिबूती के जापानी बेस पर भारत को और अंडमान निकोबार के बेस पर जापान को).
हाल ही के वर्षों में जापान और भारत के संबंधों में, खास तौर पर वैश्विक स्तर पर आए परिवर्तनों के आलोक में बहुत विस्तार हुआ है.आबे ने एक दशक पहले भारतीय संसद को संबोधित करते हुए कहा था, “एक मज़बूत भारत जापान के सर्वाधिक हित में है और एक मज़बूत जापान भारत के सर्वाधिक हित में है”. रणनीतिक क्षेत्र के अलावा, जापान भारत का तीसरा सबसे बड़ा आर्थिक निवेशक है. 2000-17 के बीच जापान ने बुनियादी ढाँचे, फुटकर व्यापार, वस्त्र उद्योग और टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं के क्षेत्र में $25.6 बिलियन डॉलर का निवेश किया था.टोक्यो दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे (DMIC), मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन, और भारत के विभिन्न राज्यों में लगभग बारह औद्योगिक पार्कों की स्थापना जैसी बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में शामिल है. साथ ही, उन्होंने जापान-भारत पूर्वोन्मुखी मंच (JICA) का गठन किया है, जिसका उद्देश्य चीन, बांग्लादेश और म्याँमार के सीमावर्ती पूर्वोत्तर राज्यों के विकास में सहयोग करना है. जापान-भारत पूर्वोन्मुखी मंच (JICA) ने पूर्वोत्तर की कनैक्टिविटी से संबंधित परियोजनाओं के पहले चरण के लिए $610 डॉलर मूल्य के करार पर हस्ताक्षर कर दिये हैं.
प्रधानमंत्री मोदी के हाल ही के दौरे का विशेष महत्व इसकी वैश्विक पृष्ठभूमि के कारण है. भारत के लिए इसका विशेष महत्व इसलिए भी है, क्योंकि इसके बाद ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और आबे के बीच अप्रत्याशित रूप में बैठक संपन्न हुई.आबे ने सात साल में पहली बार चीन का दौरा किया और यह दौरा बहुत धूमधाम से संपन्न हुआ, जबकि इससे पहले चीन और जापान के संबंध आम तौर पर इसके ठीक विपरीत तनावपूर्ण रहा करते थे. दशकों से दोनों देशों के बीच पनपती भावनात्मक कटुता के अलावा, पूर्वी चीन सागर के द्वीपों को लेकर जापान और चीन में विवाद बना रहा है, जिसे एक-दूसरे से होड़ के कारण जापान द्वारा सेनकाकु और चीन द्वारा दियाओयू कहा जाता है. सितंबर 2012 में यह तनाव उस समय अपने चरम पर पहुँच गया था, जब जापान सरकार ने सेनकाकु / दियाओयू द्वीपों का राष्ट्रीयकरण कर दिया.इसके कारण ही जापानी ऑटोमोबाइल कंपनियों को निशाना बनाते हुए बीजिंग की सड़कों पर व्यापक विरोध प्रदर्शन किया गया.तत्कालीन-जापानी राजदूत उइचिरो नीवा को चीन के विदेश मंत्रालय द्वारा भारी विरोध दर्ज कराने के लिए तलब किया गया था.उनके चीनी समकक्ष शी ने एशिया प्रशांत आर्थिक शिखर सम्मेलन (APEC) के दौरान आबे के स्वागत में कोई उत्साह नहीं दिखाया और बीजिंग के महान हॉल में प्रतीक्षा करने के लिए उन्हें विवश किया गया; सामान्य प्रोटोकॉल में ऐसा कभी नहीं होता.जापान और चीन के संबंधों की 40 वीं वर्षगाँठ के अवसर पर आबे की यात्रा के दौरान जो गर्मजोशी दिखाई पड़ी, उससे लगता है कि चीन और जापान के बीच चलने वाला मौजूदा विवाद खत्म होने को है.दोनों देशों के बीच परस्पर सहयोग के उल्लेखनीय हस्ताक्षरित करारों में शामिल हैं, थाईलैंड की संयुक्त रेल परियोजना और ट्रम्प प्रशासन के संरक्षणवादी उपायों का मुकाबला करने के लिए $ 27 बिलियन डॉलर का मुद्रा विनिमय करार. लगता है कि वाशिंगटन के आंतरिक केंद्रबिंदु के कारण ही यह रणनीतिक पुनर्गणना की गई. भारत के लिए खास बात यही है कि आबे, जिन्होंने पहले बैल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का विरोध किया था, अब लगता है कि वह इसमें संतुलन स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं.चीन-जापान का द्विपक्षीय व्यापार 2017 तक $300 बिलियन डॉलर के बराबर हो गया था, जो पिछले वर्ष की तुलना में 15 प्रतिशत अधिक था. एक प्रमुख जापानी लॉजिस्टिक फ़र्म निसिन कॉर्पोरेशन ने अपने चीनी समकक्ष सिनोट्रान्स के साथ चीन के पूर्वी तट से लेकर पश्चिमी योरोप और मध्य एशिया तक एक ट्रायल लॉजिस्टिक्स मार्ग खोलने के लिए भागीदारी की है, जबकि एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर (एएजीसी) के रूप में भारत-जापान की पहल अभी तक सार्थक रूप से फलीभूत नहीं हुई है.
जापान और चीन के बीच सुलह के कई कारण हैं. जापान चीन के बाज़ार तक अपनी पहुँच बनाना चाहता है. आबे के अपने शब्दों में, "चीन जापान के सतत विकास के लिए अपरिहार्य है." जहाँ तक चीन का संबंध है, उसकी महत्वाकांक्षी BRI परियोजना के सामने अनेक बाधाएँ हैं और पारदर्शिता जैसे मामलों पर विरोध बढ़ता जा रहा है और क्रमिक सरकारों द्वारा उसकी पुनरीक्षा भी की जा रही है. ऐसे हालात में उसे अपनी छवि को सुधारने की बहुत ज़रूरत है और जापान के साथ भागीदारी इसी दिशा में किया गया उसका एक प्रयास है.अमरीका के साथ बढ़ते व्यापारिक विवाद के कारण चीन की अर्थव्यवस्था और मुद्रा कठिन दौर से गुज़र रही है और यही कारण है कि चीन अन्य क्षेत्रीय शक्तियों के साथ भागीदारी करने को इच्छुक है.कूटनीतिक शिष्टाचार के बावजूद, दोनों देशों के बीच राजनीतिक मुद्दा अभी-भी विवादास्पद बना हुआ है. G-20 की साइडलाइन पर आयोजित जापान-अमरीका-भारत (JAI) के त्रिपक्षीय शिखर सम्मेलन में हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए किये गये मुक्त और खुले संकेतों की पुनरावृत्ति से यह स्पष्ट हो गया है कि चीन-जापान की सुलह ही सबसे अच्छा “सामरिक” संकेत हो सकता था. परंतु हाल के घटना-क्रम चीन और लोकतांत्रिक चतुर्भुज “Quad” (अर्थात् अमरीका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया का साझा मंच) के बीच खास तरह के उस “शीतयुद्ध” की आशंकाओं को नकार देता है, जिसका उपयोग एशिया की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को विश्लेषित करने के लिए अधिकाधिक किया जा रहा है.प्रमुख एशियाई शक्तियाँ आर्थिक आधार पर ही एक-दूसरे से सहयोग कर रही हैं.यही कारण है कि एशिया में एक रणनीतिक परिवर्तन दिखाई दे रहा है, जहाँ सत्ता विलीन हो रही हैं और भू-रणनीतिक हितों का सीमांकन धुँधला पड़ रहा है. इसी परिप्रेक्ष्य में नई दिल्ली के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह ज़ीरो-सम खेल की नीति न अपनाए और उभरते रणनीतिक समीकरण के परस्पर बदलते परिवर्तों के बीच भारत-जापान की भागीदारी को तटस्थ रूप में सही संदर्भ में देखे.
पारसरत्ननेटाटासमाजविज्ञानसंस्थान, मुंबईसेस्नातकोत्तरपरीक्षाउत्तीर्णकीहै. इससमयवहविज़नइंडियाप्रतिष्ठान, नईदिल्लीमेंरणनीतिकमामलोंकेसहप्रबंधकहै. ट्विटरपरउनकापताहै, @parasratna.
हिंदीअनुवादःडॉ. विजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919