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डेटा, डेवलपमेंट और डेमोक्रेसी: भारत के सीमावर्ती राज्यों का परिप्रेक्ष्य

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09/11/2020
अंकुश अग्रवाल और विकास कुमार

पिछले कुछ सालों में भारतीय अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक तीन बड़े झटके लगे: 2016 में नोटबंदी, 2017 में वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) का लचर क्रियान्वयन और 2020 में कोविड-19 वैश्विक महामारी. ऐसे मौकों पर विश्वसनीय आँकड़े समय पर न मिलने से सरकार के हाथ बंध जाते हैं और सरकारी सूचनातंत्र की कमियां भी सामने आ जाती हैं. हाल ही में सरकार कोविड-19 महामारी के आँकड़ों को लेकर सवालों के घेरे में रही है. कोविड-19 के आँकड़े न केवल देरी से मिल रहे हैं बल्कि उनकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध है. ऊपर से सरकार के पास प्रवासी मज़दूरों और देश की अर्थव्यवस्था के बारे में भी प्रामाणिक आँकड़ें नहीं थे, जिसकी वजह से सरकार कोविड-19 से निपटने के लिए कारगर नीतियां बनाने में असफल रही.

आम तौर पर सरकारी आँकड़ों पर सार्वजनिक चर्चा हाल फिलहाल के संकटों तक सिमट कर रह जाती है और समस्याओं का व्यापक सन्दर्भ कहीं खो जाता है. इसी तरह कोविड-19 के सही आँकड़े उपलब्ध न होने की समस्या को देश के सूचनातंत्र के सन्दर्भ में नहीं देखा जा रहा है, जबकि जनगणना और राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (National Sample Survey/NSS) जैसे अन्य सरकारी स्रोत भी काफी समय से सवालों के घेरे में रहे हैं.

सरकार की विश्वसनीय आँकड़े इकठ्ठा करने की क्षमता को एक व्यापक सन्दर्भ में समझने की आवश्यकता है. जम्मू-कश्मीर से लेकर मिज़ोरम तक फैले भारत के सीमावर्ती राज्यों का अनुभव यह बखूबी बताता है कि सरकारी आँकड़ों की गुणवत्ता को उनके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक सन्दर्भ से अलग करके नहीं देखा जा सकता है.

समुद्र से दूर, दुर्गम और जंगलों से ढके पहाड़ी इलाकों में स्थित भारत के सीमावर्ती राज्यों में आवागमन आसान नहीं है. जो सरकार की विकास योजनाएँ लोगों तक न पहुँचने का एक बड़ा कारण है. इसी वज़ह से बाज़ार, शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं भी अक्सर इन राज्यों के लोगों की पहुँच से बाहर होती हैं. अपनी विषम भौगोलिक परिस्थिति और सीमित कराधार (टैक्स बेस) के कारण सीमावर्ती राज्यों को केंद्र की तरफ से विशेष वर्ग (Special Category States) का दर्जा मिला था जिसके तहत विशेष वित्तीय सहयोग का प्रावधान था.

लेकिन दशकों से मिल रही विशेष वित्तीय सहायता के बावजूद सीमावर्ती राज्यों में एक लम्बे समय से विकास का अभाव रहा है. नई दिल्ली के हिसाब से विकास का मतलब भारी-भरकम इंफ्रास्ट्रक्चर है. विकास के इस सपने को साकार करने के लिए भारी निवेश की ज़रुरत पड़ती है जिसके कारण सीमित कराधार वाले ये राज्य केंद्र सरकार पर आश्रित बन गए हैं. विकास के इस मॉडल ने भ्रष्टाचार को खूब बढ़ावा दिया है और स्थानीय अर्थव्यवस्था को केंद्रीय वित्तीय सहायता से चलने वाले सरकारी खर्चे पर आश्रित बना दिया है. इसने पहले से ही उग्रवाद और भौगोलिक विषमताओं से जूझ रहे स्थानीय उद्योग और व्यवसाय की कमर तोड़ दी है जिससे राज्य सरकारों का कराधार और भी कम हो गया है. सरकारी दफ्तरों और उपक्रमों के बाहर अवसरों की कमी के चलते राज्य सरकारें नौकरी बांटने की मशीन बन कर रह गयीं हैं जो केंद्रीय वित्तीय सहायता के बिना एक कदम भी चलने में सक्षम नहीं हैं. लेकिन सीमित कराधार होने के बावजूद लोगों की नज़र में राज्य सरकार बेरोजगार नवयुवकों का एक मात्र सहारा है. इस वजह से जहाँ एक तरफ ज़रूरत से अधिक कर्मचारियों के भार के तले दबी सीमावर्ती राज्यों की सरकारों की केन्द्र पर निर्भरता ज्यों की त्यों बनी हुई है वहीं दूसरी तरफ ये सरकारें पढ़े-लिखे बेरोज़गारों की तेज़ी से बढ़ती तादाद को नौकरी देने में भी असमर्थ हैं.

सीमावर्ती राज्यों के लोगों की समस्या यहीं नहीं समाप्त हो जाती है. इनको सतत लोकतंत्र के अभाव को भी झेलना पड़ता है. इनमें से कई राज्यों में विप्लवकारी गुट सरकार के प्रभुत्व को खुली चुनौती देते हैं. लोगों के भारी विरोध के बावजूद और सरकार द्वारा नियुक्त समितियों की सिफ़ारिशों के ख़िलाफ़ सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून (AFSPA) को नहीं हटाया गया है. लोकतंत्र का यह अभाव पुलिस के ख़िलाफ़ गैरकानूनी हत्याओं की शिकायतों, लंबे समय तक इन्टरनेट पर प्रतिबंध तथा आंतरिक सुरक्षा के मामलों के अनुभवी सेना, अर्धसैनिक बलों, पुलिस और गृहमंत्रालय के सेवानिवृत्त अधिकारियों की राज्यपाल के रूप में नियुक्ति में भी झलकता है.

सीमावर्ती राज्यों की समस्याओं का एक तीसरा पहलू भी है. जनगणना और सर्वेक्षणों में हेराफेरी और उनके रद्द होने के सबसे ज्यादा उदाहरण भी इन्हीं राज्यों में मिलते हैं. इनमें से कई राज्यों में तो अभी तक सीमाओं का सर्वेक्षण तक नहीं हो पाया है. राजनैतिक अस्थिरता (1951 में जम्मू-कश्मीर), जन आन्दोलन (1981 में असम) और उग्रवाद (1991 में जम्मू-कश्मीर) के चलते कुछ अवसरों पर जनगणना को भी रद्द करना पड़ा है. राजनैतिक अस्थिरता के कारण सीमावर्ती राज्यों में सर्वेक्षणों का भौगोलिक दायरा अक्सर सीमित रह जाता है. इन राज्यों में मुश्किल से देश की पाँच प्रतिशत आबादी बसती है, लेकिन देश भर की आधे से ज़्यादा प्रथम चरण इकाइयाँ (FSU) जहाँ NSSO सर्वेक्षण नहीं किया जा सका इन राज्यों के हिस्से में पड़ती हैं. इसके चलते भारत में परिवार स्तर (हाउसहोल्ड) के आँकड़ों का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत NSS जम्मू-कश्मीर तथा नागालैंड जैसे सीमावर्ती राज्यों/संघशासित क्षेत्रों के लिए सामाजिक-आर्थिक संकेतकों का ठीक अनुमान लगाने में असमर्थ रहा है.

आँकड़ों की गुणवत्ता की समस्या से जुड़ा एक और पहलू भी है. सीमावर्ती राज्यों में लोग सरकार पर ज़्यादा निर्भर हैं. एक तरफ संसाधनों का वितरण संख्याबल और पिछड़ेपन के आकलन के आधार पर होता है, दूसरी तरफ संसाधनों के वितरण करने वाली सरकारी संस्थाएं लोगों का विश्वास जीतने में नाकाम रहीं हैं. ऐसी परिस्थितियों में लोगों के बीच आँकड़ों को अपने पक्ष में करने की प्रतिस्पर्धा छिड़ जाती है जिसके कारण वे जनगणना और अन्य सरकारी सर्वेक्षणों में हस्तक्षेप करते हैं जो एथनो-स्टैटिस्टिकल उद्यमिता (ethno-statistical entrepreneurship) को जन्म देती है. हाल के वर्षों में, नागालैंड, कश्मीर और मणिपुर में विधानसभाओं में अधिकाधिक प्रतिनिधित्व और सरकारी संसाधनों में बड़ा हिस्सा पाने के उद्देश्य से जनगणना में व्यापक हेरफेर देखा गया है.

विकास के अभाव में और सीमित संसाधनों के कारण सीमावर्ती राज्यों की सरकारें सांख्यिकीय संस्थाओं में ज़्यादा निवेश नहीं कर पाती हैं और सरकारी संसाधनों में अधिकाधिक हिस्सा सुरक्षित करने की होड़ में लोग आँकड़ों में हेर-फेर करने लगते हैं. खराब गुणवत्ता वाले आँकड़ों का असर सरकारी योजनाओं और क्षेत्र के विकास पर पड़ता है. राजनैतिक अशांति के चलते आँकड़े इकठ्ठा करने की प्रक्रिया प्रभावित होती है और इसका असर सार्वजनिक वस्तुओं (पब्लिक गुड्स), जिनमें सरकारी आँकड़े शामिल हैं, के प्रावधान पर पड़ता है. सरकारी आँकड़ों की गुणवत्ता में कमी के चलते लोगों का सार्वजनिक संस्थाओं पर से विश्वास उठ जाता है जिससे राजनैतिक अशांति को बढ़ावा मिलता है.

हम यह कह सकते हैं कि सीमावर्ती राज्य आँकड़ों (Data), विकास (Development) और लोकतंत्र (Democracy) के अभाव के चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं. इन राज्यों की तरह मध्य भारत के आदिवासी इलाके और तमाम शहरों की झुग्गी बस्तियों, जो भारत की आबादी और क्षेत्रफल का एक बहुत बड़ा हिस्सा हैं, के सरकारी आँकड़ों की गुणवत्ता भी सवालों के घेरे में है.

भारत जैसे विकासशील देशों में साक्ष्य-आधारित नीतियों की माँग तो की जाती है, लेकिन सरकारी आँकड़ों की गुणवत्ता पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है. मात्र आँकड़ों को इकठ्ठा करने और उनके विश्लेषण करने के तरीकों में तकनीकी सुधार कर लेने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है क्योंकि आँकड़ों की गुणवत्ता की समस्या का लोकतंत्र और विकास के अभाव के साथ परस्पर सम्बन्ध है. यह संयोग नहीं है कि भारत सरकार के डिजिटल डेटाबेस उन क्षेत्रों में खराब हैं, जहाँ परंपरागत डेटाबेस भी अधूरे या दोषपूर्ण हैं. इसलिए लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ किये बिना और लोगों के विकास को आगे बढ़ाये बिना अकेले तकनीकी, कानूनी और प्रशासनिक समाधानों के सहारे से सरकारी आँकड़ों की गुणवत्ता सुधारने के प्रयास सफल नहीं होंगें.

सूचना के अधिकार (RTI) को सुदृढ़ करने के साथ-साथ न्यायपालिका, मीडिया और नियंत्रक व महा लेखापरीक्षक (CAG) की स्वायत्तता को पुनर्स्थापित करना ज़रूरी है क्योंकि ये सब सरकारी आँकड़ों के प्रभावी निरीक्षण के लिए आवश्यक हैं. दूसरी ओर उग्रवाद के शांतिपूर्ण समाधान और प्रशासनिक सुधार की भी आवश्यकता है जिससे लोगों के बीच सरकारी संस्थाओं, जिनमें सांख्यिकीय संगठन शामिल हैं, की छवि एक निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में पुनर्स्थापित हो. साथ ही साथ चुनाव प्रक्रिया में सुधार तथा राजकोषीय और राजनीतिक विकेंद्रीकरण की तरफ भी ध्यान देना होगा.

उपरोक्त व्यापक सुधारों के साथ-साथ आँकड़े इकठ्ठा करने वाली संस्थाओं में कई तरह के छोटे और बड़े सुधार लाने की भी आवश्यकता है, क्योंकि संसाधनों की कमी के कारण व्यापक संस्थागत सुधार संभव नहीं है. सर्वप्रथम सरकारी आँकड़े इकठ्ठा करने वाली संस्थाओं को अपनी संवैधानिक, सांख्यिकीय और नीतिगत दायित्वों की पहचान करनी चाहिए. उन्हें समझना होगा कि वे आँकड़े सरकारी नीति बनाने वालों के लिए इकठ्ठा कर रहे हैं न कि अकादमिक शोध के लिए. दूसरा, विस्तृत प्रशासनिक और वर्णनात्मक रिपोर्ट जारी करने की पुरानी पद्धति को बहाल करना चाहिए जिससे आँकड़ों का व्यापक सन्दर्भ समझने में मदद मिलेगी. तीसरा, बढ़ते राजनैतिक हस्तक्षेप को कम करने के लिए आँकड़ों की सारणियों का प्रारूप और प्रकाशन के कैलेंडर को पहले से जारी करना चाहिए जिससे किसी भी तरह के असहज आँकड़ों को देर से जारी करने के दबाब को टाला जा सके. अंत में, आँकड़ों के पूरे जीवनचक्र अर्थात संग्रहण से विश्लेषण तक की प्रक्रिया के दौरान सरकारी संस्थाओं और इन आँकड़ों को इस्तेमाल करने वालों के बीच अधिकाधिक संवाद की आवश्यकता है. लोगों के इस प्रक्रिया से जुड़ने से प्रश्नों के सही उत्तर न मिलने की समस्या और सर्वेक्षण के दौरान आने वाली अन्य समस्याओं को दूर करने में सहायता मिलेगी, और साथ ही साथ प्रकाशित आँकड़ों की स्वीकार्यता भी बढ़ेगी.

अंकुश अग्रवाल और विकास कुमार क्रमशः भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली और अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी, बेंगलूरू में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं और Numbers in India’s Periphery: The Political Economy of Government Statistics, Cambridge University Press (2020) के सह-लेखक हैं.


हिंदी अनुवादः अंकिता पांडेय, स्वतंत्र शोधकर्ता और अनुवादक, बेंगलुरु

और

विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार