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भारत में कोविड-19 का संचारः क्या हम टीकाकरण के चौराहे पर हैं?

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15/02/2021
रम्या पिन्नामनेनी एवं श्रावंती एम.शेषशायी

16 जनवरी, 2021 को भारत में विश्व के सबसे बड़े टीकाकरण अभियान के पहले चरण का शुभारंभ  हुआ। इसका उद्देश्य कोविड-19 से बचाव के लिए लगभग 300 मिलियन अग्रिम मोर्चे के कर्मियों को टीका लगाना है। इस टीकाकरण कार्यक्रम के अंतर्गत भारत में स्वदेशी रूप में विकसित कोवैक्सीन (भारत बायोटैक/ आई.सी.एम.आर. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद) और स्वदेशी रूप में उत्पादित कोविशील्ड (सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया/ ऑक्सफ़ोर्ड -ऐस्ट्राजेनेका) टीके लगाये जा रहे हैं। यह वैश्विक महामारी के ग्यारह महीने की घेराबंदी के संभावित अंत की शुरुआत का संकेत है।

पिछले एक वर्ष में यह महामारी वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति की सक्रियता और तैयारी को जाँचने के लिए एक परीक्षण बन गया है। सारी दुनिया में महामारी में सार्वजनिक स्वास्थ्य की खंडित और कभी-कभी अनियमित प्रतिक्रिया के साथ-साथ महामारी से बढ़ती थकान और पाबंदियों के विरोध के कारण लोगों की ज़िंदगी और आजीविका का निरंतर नुकसान होता रहा है। इससे स्पष्ट होने लगा है कि एकीकृत जोखिम संचार और सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी आपात् स्थिति में संदेश का प्रसार महत्वपूर्ण है। हालाँकि अमरीका जैसे उच्च आय वाले देशों ने आरंभ में महत्वपूर्ण देखभाल संबंधी सेवाओं के विस्तार पर ध्यान केंद्रित किया, लेकिन भारत जैसे निम्न से मध्यम आय वाले देशों ने अपना ध्यान कोविड-19 की व्यापक निगरानी और जोखिम संचार से संबंधित अभियान पर केंद्रित किया (यह स्वीकार करते हुए कि अपनी स्वास्थ्य प्रणाली पर बढ़ती माँग के लिए सहिष्णुता के अपेक्षाकृत कम मार्जिन है)।

भारत में जन स्वास्थ्य के लिए जोखिम संचार की कार्यनीति कोई नई नहीं है। कई दशकों से क्षेत्रीय स्तर पर संक्रामक रोगों से निपटने के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था होने के कारण भारत के जन स्वास्थ्य के शस्त्रागार में संचार की रणनीतियों भी उपलब्ध है। इसका उपयोग बड़े पैमाने पर सामाजिक और व्यवहारपरक परिवर्तन लाने के लिए होता रहा है। उदाहरण के लिए 2018 के राष्ट्रीय पोषण अभियान का मुख्य घटक जन आंदोलन है, जिसे  अब कोविड-19 के संचार में रूपांतरित किया जा रहा  है। इसके अंतर्गत मौजूदा मंचों और सभी हितधारकों से संबद्ध एकीकृत ट्रांसमीडिया के विमर्श के माध्यम से संदेशों का सामुदायिक प्रसार किया जाता है। 2 मिलियन से अधिक मान्यताप्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कर्मियों (ASHAs) और आंगनवाड़ी कर्मियों पहले से ही ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के ढाँचे में जुड़े हुए है और अब कोविड-19 के बारे में सामुदायिक स्तर पर लोगों को शिक्षित करने के लिए उनकी भूमिका का विस्तार कर दिया गया है। 

अप्रैल में स्वास्थ्य व परिवार कल्याण केंद्र (MoHFW) ने बड़े स्तर पर प्रकोपों की व्यापक रोकथाम की योजना जारी की थी, जिसमें अंतर मंत्रालयीन सहयोग और राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर की प्रतिक्रियाओं को परस्पर संबद्ध करने के लिए निर्देश दिये गए थे। राष्ट्रीय जोखिम संचार योजना पर आधारित इसमें पारस्परिक संचार से (जैसे स्वास्थ्य कर्मियों), जनसंचार के माध्यम से (सार्वजनिक उद्घोषणाओं, एस.एम.एस, सोशल मीडिया, रेडियो, टेलीविज़न), भागीदारों के सहयोग से (जैसे युनिसेफ़), समर्पित हैल्पलाइन और नियमित प्रैस विज्ञप्तियाँ के उपयोग से सूचना प्रसार के लिए निर्देश सम्मिलित हैं।

मार्च और अप्रैल के बीच भारत के राष्ट्रीय चैनल दूरदर्शन पर कुल मिलाकर 36 वीडियो हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रसारित किये गए थे।। साथ ही महामारी से संबद्ध और भी अधिक कार्यक्रम क्षेत्रीय भाषाओं में प्रसारित किये गए। शुरू में अभियानों ने लक्षणों, यात्रा की चेतावनियों और स्क्रीनिंग आदि पर ज़ोर दिया; बाद में अभियानों ने चेहरा ढकने/ मास्क पेहनने और दूरी बनाये रखने के संदेश प्रसारित किये। उसके बाद सामाजिक और मानसिक आरोग्य बनाये रखने के लिए सुझाव दिये और अंत में टीकाकरण का अभियान चलाया गया। जैसे-जैसे सरकार अद्यतन जानकारी प्रसारित करती गई, वैसे-वैसे देश-भर के पत्रकार भी एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हुए सेहत की जानकारी से अनजान बहुसंख्यक लोगों को वैज्ञानिक परिणामों से अवगत कराते चले गए। भारत के हर प्रकार के छोटे-बड़े शहरों, कस्बों और गाँवों में सोशल मीडिया के व्यापक उपयोग के माध्यम से कोविड-19 संबंधी जानकारी और गलत सूचनाएँ भी वास्तविक समय में प्रसारित होती चली गईं। अलग-अलग हितधारक सोशल मीडिया के मंचों पर विश्वसनीय सूचनाएँ (जैसे सूचना व प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार चैटबॉट) देने के लिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगे।

कोविड-19 टीकों के अभ्यर्थियों के विकास के साथ-साथ,  संभावित टीकों में विश्वास उत्पन्न करने के लिए और सार्वजनिक माँग उत्पन्न करने के लिए जन स्वास्थ्य विभागों, स्वास्थ्य संबंधी पत्रकारों, वैज्ञानिक विशेषज्ञों और दवा उद्योग के दिग्गजों ने नए टीकों के विवरण, टीकों के प्रकार और उनके तंत्रों, क्लिनिकल परीक्षणों और टीकों के अनुमोदन के विहंगावलोकन के साथ-साथ सुरक्षा और प्रभावोत्पादकता के सभी महत्वपूर्ण मैट्रिक्स जनता को उपलब्ध करा दिये। राष्ट्रीय कोविड-19 टीका संचार रणनीति के आधार पर कोविड-19 के नये टीकों से संबंधित सूचनाओं को पारदर्शिता के साथ प्रसारित करने, टीकों के प्रति हिचहिचाहट को दूर करने, टीकों के प्रति विश्वास बढ़ाने और टीकों के चरणबद्ध रोलआउट को संप्रेषित करने के लिए चिह्नित किया गया। पहले से ही कार्यरत हितधारकों ने समुदाय को प्रभावित करने वाले लोगों और नेताओं के साथ भागीदारी करते हुए टीके से संबंधित सूचनाओं को प्रसारित करने, साक्ष्य पर आधारित टीके के लाभों से संबंधित सामाजिक और परंपरागत मीडिया की सामग्री तैयार करने, गलत सूचनाओं को रोकने के लिए डिजिटल मीडिया पर निगरानी रखने और लोगों के भरोसे को बढ़ाने के लिए टीका-प्रतिरोधी समूहों के साथ मिलकर काम करने के लिए उन्हें चिह्नित करने के प्रयासों पर अपना ध्यान फिर से केंद्रित कर लिया।

सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम के सफल कार्यान्वयन से जन-टीकाकरण से भारत का अनुभव प्रदर्शित होता है, जिसमे भारत ने टीके के प्रति विश्वास बढ़ाने के लिए जन-संचार और सोशल मीडिया की कार्यनीति अपनायी है। यह विश्वास नवंबर 2020 के सर्वेक्षण से प्रकट होता है, जिससे पता चलता है कि 87 प्रतिशत भारतीय कोविड-19 का टीका उपलब्ध होने पर टीका लगवाने के लिए इच्छुक थे। लेकिन बड़ी कठिनाई से अर्जित भरोसे के प्रति हमें सावधान रहना होगा। 3 जनवरी, 2021 को एक ऐसी घोषणा हुई, जिसे सुनकर टीका विशेषज्ञ और आम जनता आश्चर्यचकित रह गई। भारतीय दवा मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO) ने “जनहित में आपात् स्थितियों में क्निकल परीक्षण के रूप में खास तौर पर म्यूटेंट स्ट्रेन्स के कारण होने वाले संक्रमण के संदर्भ में” भारत बायोटैक के कोरोना के टीके कोवैक्सीन के “भरपूर ऐहतियात लेते हुए प्रतिबंधित उपयोग” के अनुमोदन की घोषणा कर दी। पूरे वैज्ञानिक समुदाय में विशेषज्ञों द्वारा टीके की क्षमता के प्रदर्शन के लिए आवश्यक चरण-III के क्लिनिकल परीक्षण के डेटा के अभाव में और रोगक्षमता की प्रतिक्रिया दर्शाने वाले परीक्षणों के लिए चरण-II के डेटा के अभाव में संदेह और चिंताएँ प्रकट की जाने लगीं। इसमें भ्रामक कुछ है तो वह है अनुमोदन की भाषा, जिसमें ज़ाहिर तौर पर “क्लिनिकल परीक्षण मोड” की बात की गई है (जिसमें स्वयंसेवकों और प्लेसीबो आर्म की ज़रुरत होती है)। मौजूदा रोल आउट में इनमें से किसी भी अपेक्षा को पूरा नहीं किया गया है और इसके बजाय कोवैक्सिन के नाम से चिह्नित केंद्रों में व्यक्तिगत स्तर पर लोगों को टीके लगाये जा रहे हैं और विपरीत प्रतिक्रिया होने पर अनुवर्ती कार्रवाई की जा रही है।

जैसे-जैसे अनुमोदन और उसके बाद की चिंताओं की बातें फैलने लगीं, कुछ कम विवादग्रस्त रूप में अनुमोदित कोविशील्ड सहित भारत के नवीनतम टीका प्रत्याशी के बारे में गैर-सरकारी स्तर पर प्रसारित संचार मिश्रित  है। इससे आशावाद से लेकर भ्रम और अविश्वास की मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ सामने आने लगीं। टीके के विकास और अनुमोदन की जटिल प्रक्रिया को लेकर मीडिया में हर रोज़ ही बहस होने लगी और श्रोता सामूहिक रूप में टीका विज्ञान की महत्वपूर्ण संकल्पनाओं को गहराई से समझने का प्रयास करने लगे। पहले से ही दूषित वातावरण को और भी अधिक गंदा करने के लिए सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के CEO और भारत बायोटैक के अध्यक्ष ने दोनों कोविड-19 टीकों के क्लिनिकल परीक्षण के आँकड़ों की सुरक्षा, प्रभाव और सच्चाई पर सबके सामने सवाल उठाये। अंत में उन्होंने एक संयुक्त बयान जारी किया कि दोनों कंपनी सुरक्षित और प्रभावी टीकों की आपूर्ति के लिए साझा प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करते है। कोविड-19 के मोटे तौर पर एकीकृत संदेश को महीनों तक प्रसारित करने के बावजूद समन्वय के अभाव में और अस्त-व्यस्त तरीके से भारतीय टीकों की अनुमोदन से जोखिम खड़ा हो सकता है, और टीके के प्रति आरंभिक विश्वास और आम लोगों की स्वीकार्यता पर तो असर पड़ ही सकता है।

मौजूदा कोविड-19 के बारे में झूठी और खतरनाक जानकारी के फैलने से टीके के प्रति लोगों का विश्वास और भी हिल गया। भारत में कोविड-19 के टीके के बारे में मिथक फिरसे सामने आने लगे- जो धार्मिक भावनाओं का अक्सर लाभ उठाते  हैं (जैसे टीकों में सुअर-जिलेटिन के उपयोग का आरोप), या जो वैज्ञानिक निरक्षरता का लाभ उठाते  हैं (जैसे टीका लगाने से डीएनए में बदलाव होने का आरोप) और जो अधिकारियों के प्रति अविश्वास का लाभ उठाते  हैं (जैसे यह आरोप कि टीकों में ट्रैकर्स है)। इनके अलावा ऐतिहासिक रूप में हुआ टीकों का विकास और दुनिया-भर में कोविड-19 के टीकों के शीघ्र अनुमोदन से, और हमारी संस्थाओं में फैले हुए संभावित भ्रष्टाचार के भय और राजनैतिक प्रोत्साहन के कारण से भी भारत की आम जनता में टीकों के प्रति विश्वास में कमी आ सकती है।

इससे पहले भी भारत में टीकों के प्रति अविश्वास और हिचकिचाहट की भावना उत्पन्न हुई है। 2008 में पारदर्शिता के अभाव में, आरंभिक संवाद की कमी से और आम लोगों में वैज्ञानिक निरक्षरता के कारण से मानव पैपिलोमावायरस के परीक्षणों में विवाद उत्पन्न हुई थी। पोलियो के टीकों के बारे में झूठी खबर फैलने के कारण कुछ समुदाय तो यह भी मानने लगे थे कि टीकों से लोग नपुंसक भी हो सकते हैं। इन बाधाओं के बावजूद टीकों के लाभ के बारे में व्यापक स्तर पर निरंतर प्रचार के कारण बच्चों को टीका लगाने का दर भारत में बढ़ता ही रहा हैं। 2014 में पोलियो के सफल उन्मूलन की बात लोगों की सामूहिक याद्दाश्त में अभी-भी ताज़ा है और ऐतिहासिक रूप में देश का उन टीकों में विश्वास स्थापित हो गया जिनके कारण हमारे बच्चों का बचाव हो पाया।

अब हम कोविड-19 के साथ अपनी लड़ाई के निर्णायक दौर में पहुँच गए हैं। यह ऐसा दौर है, जब हम पारदर्शिता, सत्यनिष्ठा और जन स्वास्थ्य संचार को सर्वजनसुलभ बनाकर टीके के प्रति आम लोगों का विश्वास फिर से जीत सकते हैं। अब जब अग्रिम मोर्चे के लोगों और अधिक जोखिम वाले समुदायों को सारी दुनिया में और भारत में भी पूरी सतर्कता के साथ खुले आम टीके लगने लगे हैं, तो सरकारों, विशेषज्ञों और मीडिया को ध्यान देना चाहिए कि वे वैज्ञानिक शब्दावली को सीधी-सरल और सहज भाषा में सर्वजनसुलभ बनाने का प्रयास करें। उन्हें हर कदम पर उन तमाम तथ्यों, जिन्हें हम जानते हैं और उन तथ्यों को भी, जिन्हें हम नहीं जानते हैं, फिर से दोहराना चाहिए ताकि हम व्यक्तिगत स्तर पर और संस्थागत स्तर पर भी अपना बचाव कर सकें। तथ्यों की जाँच की सेवाएँ (जैसे व्हाट्ऐप चैटबॉट्स) सुलभ हैं और विश्वसनीय एवं अनुकरणीय भी हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में स्वास्थ्य संबंधी साक्षरता aur वैज्ञानिकों और शैक्षणिक विशेषज्ञों ko मीडिया संचार में प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि साक्ष्य-आधारित जन-स्वास्थ्य रिपोर्टिंग की क्षमता को अधिकाधिक बढ़ाकर उसे सुगम बनाया जा सके और उसके बाद विज्ञान और स्वास्थ्य को जोड़कर उसे सर्वजनसुलभ बनाया जा सके। जैसे भारत कोविड-19 की महामारी के अंतिम लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, हमें बहुत सचेत रहना होगा और टीके से संबंधित संदेशों और कोविड-19 की एहतियातों का निरंतर प्रचार करना होगा और ऐसा कोई काम नहीं करना होगा, जिससे अंतिम दौर में हम लुढ़ककर वापस संकट में फँस जाएँ।

रम्या पिन्नमनेनी हार्वर्ड टी. एच. चेन स्कूल ऑफ़ पब्लिक हैल्थ में रिसर्च फ़ैलो हैं और भारत में चिकित्सक रह चुकी है। अभी वह भारत में स्वास्थ्य संचार और मातृत्व व बाल स्वास्थ्य पर केंद्रित प्रोजैक्ट में काम कर रही हैं।

श्रवंती एम.शेषशायी MaineHealth में रिसर्च ऐनलिस्ट हैं और भारत में दंतचिकित्सक के रूप में काम करने का उन्हें अनुभव है।  इस समय वह पर्यावरणीय रासायनिक जोखिम और बच्चो में स्वास्थ्य परिणामों से संबंधित सार्वजनिक स्वास्थ्य अनुसंधान का काम कर रही हैं।

दोनों ही हार्वर्ड टी. एच.चेन स्कूल ऑफ़ पब्लिक हैल्थ से ग्रैजुएट हैं।

 

हिंदी अनुवादः डॉ। विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmailcom> / मोबाइल : 91+9910029919