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कोविड-19 और भारत की झुग्गी-झोंपड़ियों की बस्तियों में सामुदायिक नेतृत्व

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18/05/2020
ऐडम आऊरबाख

कोविड-19 के फैलाव के संदर्भ में भारत के शहरी इलाकों में बसी झुग्गी-झोंपड़ियों की बस्तियों के दयनीय हालात पर मीडिया का काफ़ी ध्यान गया है. बिना किसी पूर्व-योजना के निर्मित भीड़-भाड़ से भरी इन झुग्गी-झोंपड़ियों में निम्न-आय वाले लोग रहते हैं और ये झुग्गियाँ ऊबड़-खाबड़ ढंग से सँकरी गलियों से आपस में जुड़ी होती हैं. यहाँ के निवासियों में पानी और शौचालयों की कमी के कारण अक्सर झगड़े होते रहते हैं और औपचारिक तौर पर सम्पत्ति का मालिकाना हक न होने या कमज़ोर करारनामे के कारण अपनी रिहाइश को लेकर वे असुरक्षा से घिरे रहते हैं.    ऐसे हालात में सामाजिक दूरी और वायरस से लड़ने के लिए आवश्यक स्वच्छता बनाये रखना बहुत बड़ी चुनौती बन जाता है.

भारत में जितनी सख़्ती से लॉकडाउन लागू किया गया था, उसके कारण झुग्गी-झोंपड़ियों के निवासियों की आर्थिक दिक्कतें बहुत बढ़ गई थीं. इन बस्तियों में रहने वाले अधिकांश लोग अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं, जैसे- दिहाड़ी मज़दूर, सड़कों पर फेरी लगाने वाले, घरेलू नौकर और ऑटो रिक्शा चालक और और इसके अलावा ऐसे बहुत से काम धंधों में लगे हुए लोग भी हैं, जो दिन-भर कमाकर ही अपनी दैनिक आमदनी से अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं. आर्थिक गतिविधियों में कमी आने के कारण इनमें से अधिकांश परिवार भुखमरी के कगार पर पहुँच गए थे.

UN-Habitat  ने स्पष्ट शब्दों में स्वास्थ्य और आजीविका पर आए इस संकट के बारे में लिखा है: “कोविड-19 का सबसे अधिक प्रभाव गरीब और घनी आबादी वाले शहरी इलाकों में, खास तौर पर विश्व-भर की कच्ची बस्तियों और झुग्गी-झोंपड़ियों के निवासियों पर पड़ेगा.”

अनुसंधानकर्ता और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियाँ कोविड-19 के विरुद्ध लड़ाई के लिए “समुदाय-संचालित समाधान” की बात कर रही हैं. उदाहरण के लिए मानवीय कार्रवाई से संबंधित समाज विज्ञान की रिपोर्ट में यह तर्क दिया गया है, ”यह महत्वपूर्ण है कि कोविड-19 के विरुद्ध लड़ाई को [अनौपचारिक शहरी बस्तियों के] समूहों और नेताओं के माध्यम से लड़ा जाना चाहिए, क्योंकि ये लोग अपनी बस्तियों को अच्छी तरह से जानते हैं और यहाँ के निवासियों से उनके मौजूदा संपर्क भी हैं.”  ऐसी बॉटम-अप प्रणाली के लिए झुग्गी-झोंपड़ियों के अनौपचारिक सामुदायिक संचालन की रूपरेखा के संदर्भ को पूरी तरह समझना बेहद आवश्यक है.

तो भारत की झुग्गी-झोंपड़ियों के निवासी अपनी सुरक्षा और कुशल-क्षेम के लिए इस तरह की चुनौतियों का सामना करने के लिए कैसे एकजुट हों? उनके पड़ोस में रहने वाले ये “नेता” हैं कौन? और वायरस के फैलाव को कम करने और सामाजिक दूरी के नियमों का पालन करने के साथ-साथ उससे जुड़ी आर्थिक दिक्कतों को कम करने के लिए सरकारी एजेंसियों और सिविल सोसायटी के संगठनों के साथ मिलकर किस हद तक वे काम कर पाएँगे?

अनौपचारिक सामुदायिक संचालन
मैंने अपनी पुस्तक “Demanding Development: The Politics of Public Goods Provision in India’s Urban Slums”(कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रैस, 2020 ) में इस बात की छानबीन की है कि झुग्गी-झोंपड़ियों के ये निवासी किस तरह से स्थानीय हालात में सुधार लाने के लिए एकजुट होते हैं. भोपाल (मध्य प्रदेश) और जयपुर (राजस्थान) में दो साल से अधिक समय तक किये गए अपने फ़ील्डवर्क और सर्वेक्षण के आधार पर मैंने अपनी पुस्तक में झुग्गी-झोंपड़ियों की इन बस्तियों के स्थानीय नेतृत्व और निवासियों की सामूहिक कार्रवाई के ठोस स्वरूप को प्रमाणित किया है.   

भारत की झुग्गी-झोंपड़ियों के ये बस्ती-नेता राजनैतिक गतिविधियों के केंद्र में रहते हैं. ये लोग अनौपचारिक और गैर-सरकारी नेता होते हैं, जो झुग्गी-झोंपड़ियों में रहते हैं और अपने पड़ोसियों की तरह इन पर भी बेदखली और विकास से वंचित रहने का खतरा मँडराता रहता है. ये नेता लोग आम निवासियों में से ही उभरकर सामने आए हैं और शहर में काम करवा भी लेते हैं. साक्षरता और कुछ हद तक औपचारिक शिक्षा ये दो ऐसे गुण हैं, जो इनमें होने चाहिए ताकि वे याचिकाएँ लिख सकें और सरकारी संस्थाओं तक उन्हें पहुँचा भी सकें.

मैंने अपनी पुस्तक में झुग्गी-झोंपड़ियों की जिन बस्तियों का सर्वेक्षण किया है, उन 111 बस्तियों में से 108 में ये बस्ती-नेता फैले हुए हैं. इन्हें बस्तियों में पहचाना जा सकता है और बस्ती-नेता के रूप में उनकी अपनी पहचान भी है. अधिकांश बस्तियों में अनेक बस्ती-नेता होते हैं और अपने पीछे रहने वाले निवासियों की ताकत के बल पर एक दूसरे से स्पर्धा भी करते हैं.

आम तौर पर बंदूक लटकाये गुंडों की लोकप्रिय छवि के विपरीत इन बस्ती-नेताओं की अनौपचारिक ताकत का आधार यही होता है कि वे बिना किसी हिंसा के अपने सह-निवासियों की समस्या का समाधान कितनी अच्छी तरह से करते हैं और यह काम वे हिंसक तरीके से नहीं करते. मेरे फ़ील्डवर्क और सर्वेक्षण के आँकड़ों से पता चलता है कि ये बस्ती-नेता अपने सह-निवासियों के लिए कई प्रकार के काम करते हैं. सबसे अधिक सामान्य काम तो होता है राशन कार्ड बनवाने का. इसके अलावा वे सार्वजनिक सेवा के याचिका अधिकारियों से मिलकर पक्की सड़कें बनवाने, पानी का पाइप डलवाने, नाली खुदवाने और सड़क पर बत्ती लगवाने जैसे कामों के लिए अपने सह-निवासियों की मदद करते हैं. वे झगड़ों को निपटाने, बेदखली से अपने सह-निवासियों को बचाने और गरीबों के लिए सरकारी कार्यक्रमों की सूचनाएँ अपने साथियों तक पहुँचाने का काम भी करते हैं.  

बस्ती-नेता ये काम निस्वार्थ-भाव से नहीं करते. इस काम से उन्हें हर रोज़ शुल्क के रूप में कमाई भी होती है. बस्ती के निवासी सार्वजनिक सेवाओं के लिए उनसे मदद की माँग करते हैं और ये लोग शुल्क लेकर उनकी मदद करते हैं. चुनाव के दौरान राजनैतिक पार्टियों के नेता स्थानीय मतदाताओं को जुटाने और लुभाने के लिए उन्हें पैसे भी देते हैं. ये सब काम भी वे तभी कर पाते हैं जब वे अपने निवासियों की समस्याएँ सुलझाते हैं और इस तरह उनके साथ अच्छे संबंध बनाकर रखते हैं.

अधिकांश बस्ती-नेता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता भी होते हैं. यही कारण है कि उनकी पार्टी में पदानुक्रम के अनुसार उनकी अपनी हैसियत भी रहती है और वे बड़े राजनैतिक नेताओं के संपर्क में रहते हैं. अपनी इस भूमिका के निर्वाह के लिए इन बस्ती-नेताओं को अपनी पार्टी की रैली आयोजित करने, चुनाव के समय मतदाताओं को मतदान स्थल तक लाने और मतदाताओं को लुभाने के अलावा नकदी, खान-पान की चीज़ें और शराब आदि छोटे-मोटे उपहार देने का काम भी सौंपा जाता है.

झुग्गी-झोंपड़ियों की इन बस्तियों में एसोसिएशन से संबंधी कुछ महत्वपूर्ण समितियों का काम भी होता है. कई बस्तियों में तो कच्ची बस्ती विकास समितियाँ भी सक्रिय रहती हैं. इनकी स्थापना स्थानीय स्थितियों में सुधार लाने के लिए वहाँ के निवासियों द्वारा ही की जाती है. ये विकास समितियाँ वहाँ के निवासियों को जुटाकर सार्वजनिक सेवाओं के लिए याचिकाएँ तैयार करके सरकारी अधिकारियों को देते हैं. अक्सर इन समितियों का अपना लैटर हैड और अपनी स्टेशनरी भी होती है.

संक्षेप में भारत की झुग्गी-झोंपड़ियों की इन बस्तियों के पास उनका अपना विश्वसनीय और सक्रिय अनौपचारिक नेतृत्व होता है. ये बस्ती-नेता अपने सह-निवासियों की समस्याएँ सुलझाने का नेमी काम तो करते ही हैं और साथ ही पार्टी के संगठन और आसपास की विकास समितियों के भीतर रहते हुए कार्यकर्ता का काम भी करते हैं. इसलिए महामारी से लड़ने के लिए सामुदायिक नेतृत्व की ज़िम्मेदारी इन ज़मीनी नेताओं के कंधों पर ही होगी.

कोविड-19 और सामुदायिक कार्रवाई
झुग्गी-झोंपड़ियों के ये बस्ती-नेता महामारी के दौरान भी समस्याएँ सुलझाने का अपना काम तो करते ही रहेंगे, लेकिन उनका मुख्य काम माँग आने पर अब सरकारी सहायता सामग्री तत्काल वितरित करने का होगा. संभावना इस बात की है कि वे संगठन निर्माण और आंदोलन की मौजूदा बाधाओं के बावजूद भी वे ऐसा तरीका अपनाएँगे जिससे सार्वजनिक सेवाओं की माँग पूरी की जा सके. “सामान्य दिनों” में झुग्गी-झोंपड़ियों की बस्तियों के निवासी अक्सर समूह बनाकर काम करते हैं, क्योंकि यही लोकशक्ति का प्रतीक है. इससे पता लगता है कि लोग इस लोकशक्ति के पीछे हैं और मतदाताओं के रूप में मतदान पेटी में भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए तैयार हैं और अगर उनकी माँगें नहीं मानी जातीं तो सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन भी कर सकते हैं. लॉकडाउन के संदर्भ में सामूहिक कार्रवाई का यह स्वरूप कुछ धूमिल हो गया है..

जयपुर के एक बस्ती-नेता ने 5 अप्रैल को ठीक लॉकडाउन के चरम पर मुझे बताया कि वह और बस्ती के अनौपचारिक नेता मिलकर महामारी के दौरान भी बस्ती के लोगों की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने सह-निवासियों को खाना पहुँचाने में जुटे हुए हैं. वे नियमित रूप से अपनी परिषद के प्रतिनिधियों से फ़ोन या व्हाट्सऐप पर राशन मँगवाने के लिए अनुरोध करते हैं. वे सामाजिक दूरी बनाये रखने के महत्व को भी लोगों को समझाते हैं. “हम सामाजिक दूरी के नियम का पालन कराने के लिए सह-निवासियों में जागरूकता पैदा करने की कोशिश करते हैं.  हम इस बात का भी ख्याल रखते हैं कि जिन लोगों के पास खाने के लिए भी पैसे नहीं हैं, उनकी भी मदद की जाए.”

बस्ती-नेताओं को बढ़-चढ़कर अपनी क्षमता और सह-निवासियों के सहयोग का बखान सचमुच नहीं करना चाहिए. सह-निवासियों के प्रति उनके सहयोग का ढंग एक-जैसा नहीं हो सकता. जाति, लिंग और धर्म के आधार पर उनमें अंतर हो सकता है. पार्टी विशेष के कार्यकर्ता होने के नाते चुनावी राजनीति उन पर हावी हो सकती है. वे विरोधी दल के निवासियों के बजाय अपनी पार्टी के समर्थकों की मदद ज़्यादा कर सकते हैं. बस्ती का नेता बने रहने से उन्हें अक्सर कई लाभ भी मिलते रहते हैं और हो सकता है कि वे सार्वजनिक संसाधनों को हथियाने में भी सफल हो जाते हों. जिन बस्तियों का मैंने सर्वेक्षण किया है, उनमें महिलाओं के बस्ती नेता बनने की संभावना कम ही रहती है. न तो वे विकास समितियों में स्थान पाती हैं और न ही स्थानीय निर्णय लेने में उनकी आवाज़ ही सुनी जाती है. सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देने की प्रक्रिया में बस्ती नेतृत्व के इन बिंदुओं पर पहले से ही विचार कर लिया जाना चाहिए.

ऐसे प्रयास करते समय यह भी स्पष्ट रहना चाहिए कि बस्ती के निवासियों के साथ सरकार के संबंध अक्सर उदासीन ही रहते हैं. इन संबंधों के निर्वाह में विवेक का प्रयोग करना पड़ता है और ये रिश्ते हिंसक भी हो जाते हैं. सरकार के प्रति विश्वास की कमी के कारण सरकार और समितियों के बीच सहयोग की संभावना कम ही रहती है. हालाँकि लॉकडाउन के दिनों में बस्ती-नेताओं के लिए मुश्किल हो गया है कि वे सरकारी अधिकारियों से स्वयं मिलकर काम करवाएँ, फिर भी, बस्ती के निवासी बस्ती-नेताओं से अपेक्षा रखते हैं कि वे सरकारी संस्थाओं की बेरुखी के बावजूद उनसे आगे बढ़कर काम निकलवाएँ.

सरकारी एजेंसियाँ और सिविल सोसायटी के संगठन स्थानीय स्तर पर कोई भी काम करवाना चाहते हैं तो ये बस्ती-नेता उसमें कारगर भूमिका निभा सकते हैं और बस्तियों में काम करवाने में वे सक्षम भी होते हैं. उनकी भूमिका और कार्य-कलापों को समझते हुए और उनकी भागीदारी के कारण सामने आने वाली चुनौतियाँ के महत्व को स्वीकार करके यदि समुदाय-संचालित कार्यनीति अपनाई जाती है तो वायरस के फैलाव को कम किया जा सकता है और आने वाले सप्ताहों में आर्थिक दिक्कतों को भी कम किया जा सकेगा.

ऐडम आऊरबाख अमेरिकन विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय सेवा स्कूल में सहायक प्रोफ़ेसर हैं और Demanding Development: The Politics of Public Goods Provision in India’s Urban Slums (कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रैस, 2020 ) के लेखक हैं.

 

हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919