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कनेक्टेड दुनिया में कंप्यूटर शिक्षाः ऑन लाइन होने वाले छात्रों के लिए बढ़ता जोखिम

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03/07/2017
कैथरीन ज़िस्कोव्स्की

वर्ष 2015 की ग्रीष्म ऋतु में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को “डिजिटल दृष्टि से एक सशक्त समाज और ज्ञानपरक अर्थव्यवस्था में रूपांतरित करने” के अपने डिजिटल इंडिया के कार्यक्रम के लोकार्पण के अवसर पर उद्घाटन भाषण दिया था. अपने उद्घाटन भाषण में मोदी ने घोषणा की थी कि “IT + IT = IT” अर्थात् “IT (Indian Talent अर्थात् भारतीय प्रतिभा)+ IT (Information Technology अर्थात् सूचना प्रौद्योगिकी)= IT (India tomorrow अर्थात् कल का भारत) ” मोदी ने आगे कहा कि प्रौद्योगिकी आज बेहद महत्वपूर्ण है, भारत के हर बच्चे को इसकी शिक्षा दी जानी चाहिए. अभी तो भारत के केवल 35 प्रतिशत लोग ही इंटरनैट से जुड़े हुए अर्थात् कनैक्टेड हैं और तब भी हाल ही के वर्षों में कम लागत के मोबाइल फ़ोनों की व्यापक रूप में उपलब्धता और आश्चर्यजनक रूप में तकनीकी प्रशिक्षण दिये जाने पर लोगों का ध्यान आकर्षित होने लगा है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि प्रशिक्षण की यह सुविधा हर जगह छोटे-छोटे निजी (प्राइवेट) कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्रों में भी उपलब्ध है. ऐसे संस्थानों पर ही मेरा शोध-कार्य केंद्रित है. मेरे शोध के अनुसार यह तो सही है कि इनके कारण नयी संभावनाओं के द्वार खुले हैं, लेकिन खास तौर पर हाशिये पर रहने वाले वंचित छात्रों के लिए जोखिम के खतरे भी बढ़ गये हैं.

भारत में आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी क्षमता के विकास पर ज़ोर देने की बात कोई नहीं है. इसकी जड़ें देश के नेहरू युग की तकनीकी दृष्टि (विज़न) में भी देखी जा सकती हैं. साठ के दशक की सभी योजनाओं के अंतर्गत स्थापित तकनीकी शिक्षण संस्थाओं में यह दृष्टि अनिवार्यतः देखी जा सकती है. इनमें सबसे प्रसिद्ध हैं, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान अर्थात् IITs, जिनका रैंक विश्व भर के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के समकक्ष है और इन संस्थानों में पढ़े हुए छात्र आज विश्व भर की बड़ी से बड़ी तकनीकी संस्थाओं में कार्यरत हैं. बहरहाल, इस प्रकार की उत्कृष्ट सार्वजनिक शिक्षा पाने वाले छात्रों का प्रतिशत बहुत ही कम है. साथ ही इसका आंशिक परिणाम यह भी हुआ है कि IT उद्योग में कार्यरत लोग मुख्यतः सवर्ण और उच्चवर्गीय हिंदू समाज से हैं. यह बात हाल ही के अनेक अध्ययनों से भी स्पष्ट हो गयी है. 

भारत में IT छात्रों में प्रभुत्व रखने वाली प्रमुख संस्थाओं और बड़ी तकनीकी कंपनियों को छोड़कर मैंने 2014-16 के बीच हैदराबाद के आसपास की दो संस्थाओं में पंद्रह महीने तक जनजाति विज्ञान से संबंधित शोध-कार्य किया. “बुनियादी कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्र” से मेरा आशय है, ऐसे संस्थान जो MS ऑफ़िस के अंतर्गत टाइपिंग का बुनियादी तकनीकी कौशल का प्रशिक्षण देने के लिए एक से छह महीने तक के पाठ्यक्रम से लेकर बुनियादी लेखा संबंधी सॉफ्टवेयर के परिचय तक के पाठ्यक्रम चलाते हैं. ये कंप्यूटिंग पाठ्यक्रम उन पाठ्यक्रमों से बिल्कुल अलग हैं, जो वैब विकास जैसे उच्च स्तरीय कौशल का प्रशिक्षण प्रदान करते हैं. ये पाठ्यक्रम व्यापक रूप में चलाये जा रहे हैं और इनमें मुख्यतः वही छात्र भाग लेते हैं जो सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से समाज के निम्न वर्गों से आते हैं. ये छात्र अपनी कॉलेज की डिग्री के साथ-साथ इन पाठ्यक्रमों को भी पूरा कर लेते हैं. इन छात्रों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में यह बता दिया जाता है कि आरंभिक स्तर की कई नौकरियों में प्रवेश के लिए कंप्यूटर के कौशल को दर्शाने वाले ये प्रमाणपत्र आवश्यक होते हैं. इन पाठ्यक्रमों का संचालन परिवार द्वारा चलाई जाने वाली दुकानों, एनजीओ और बड़े निगमों द्वारा किया जाता है. विभिन्न प्रकार के प्रबंधन पाठ्यक्रमों का संचालन करने वाली इन संस्थानों में गुणवत्ता और गुणवत्ता नियंत्रण-दोनों ही दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण अंतर भी हैं. हालाँकि ये संस्थान सरकारी नियमों के अनुरूप ही पाठ्यचर्या का संचालन करते हैं, लेकिन उनकी शिक्षण पद्धति, कैरियर के मार्गदर्शन और सामाजिक नैटवर्किंग में बहुत अंतर होता है.

इन सर्टिफ़िकेट पाठ्यक्रमों की बाढ़ आने का एक कारण यह भी है कि निजी (प्राइवेट) कॉलेजों का तेज़ी से प्रसार हो रहा है और उसके परिणास्वरूप कॉलेज की डिग्रियों के स्तर में भी गिरावट आ रही है. इन बुनियादी शिक्षण संस्थानों के उदय होने और प्रमुखता हासिल करने के कारणों को समझने के लिए हमें हैदराबाद में कॉलेजों के निजीकरण के इतिहास पर नज़र दौड़ानी होगी और साथ ही यह भी समझना होगा कि उच्च शिक्षा और रोज़गार के बाज़ार को आकार देने में वर्ग, धर्म, जाति और लिंग की क्या भूमिका होती है. इन प्रशिक्षण केंद्रों में पढ़ने वाले कई छात्रों से भी मेरी मुलाकात हुई. ये छात्र या तो किसी कॉलेज में इंजीनियरिंग की डिग्री के साथ-साथ इन केंद्रों में भी पढ़ाई कर रहे थे या फिर कुछ छात्र ऐसे भी थे, जिन्होंने हाल ही में डिग्री हासिल की थी. पहले तो मुझे हैरानी हुई, क्योंकि बी. टैक की डिग्री लेने के बाद इतने छोटे संस्थान में प्रवेश लेकर प्रशिक्षण की आवश्यकता उन्हें क्यों पड़ी, लेकिन जल्दी ही यह बात समझ में आ गयी कि बड़ी-बड़ी संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली डिग्रियों के बाहर यह आम बात थी.

हैदराबाद में किये गये मेरे शोध-कार्य से यह स्पष्ट हो गया कि हाशिये के इस वर्ग के लिए कंप्यूटर पर टाइप करने और उनका अलग-अलग फ़ॉन्ट में पोस्टर तैयार करने के अलावा मन-गढ़ंत बातों में से तथ्यों को निकालकर उनका मूल्यांकन करने और इंटरनैट पर सूचनाओं को खोजने का कौशल सीखना भी उतना ही ज़रूरी है ताकि वे आज की दुनिया की खोज-खबर ले सकें और रोज़गार के बाज़ार में अपनी पैठ बना सकें. कंप्यूटर शिक्षा की धारणा भी यही है कि किसी भी व्यक्ति के आर्थिक और सामाजिक कल्याण के लिए आवश्यक है कि वह इस प्रकार के कौशल हासिल करे, लेकिन हमें पता है कि रोज़गार के बाज़ारों पर सामाजिक हैसियत और विषमता भी हावी रहती है. मेरे शोध-कार्य से यह भी पता चलता है कि कभी-कभी टैक्नोलॉजी का ज्ञान पाकर छात्रों में लिंग, धर्म या जातिगत भेदभाव की भावना मिटने के बजाय और भी बढ़ जाती है. इस बात में आंशिक सचाई तो है ही, क्योंकि ऑन-लाइन सूचनाओं की खोजबीन जैसे अन्य कौशलों के बिना पहले से ही कमज़ोर वर्ग के लोग तब और भी अधिक जोखिम से भर उठते हैं जब उन्हें ऑन-लाइन संचार और सीखने के नये-नये तरीकों की जानकारी मिलती है.

उदाहरण के लिए अब्दुल्ला की कहानी लेते हैं. अब्दुल्ला बी.टैक पास बीस साल से कम उम्र का एक युवक है. वह उन युवाओं में से एक है जिनके पास न तो कंप्यूटर का अनुभव है और न ही कोई नौकरी है. वह शहर से बाहर देहाती परिवेश में रहकर ही बड़ा होता है और कॉलेज की शिक्षा भी पूरी कर लेता है, लेकिन फिर भी कंप्यूटर-प्रशिक्षण के कोर्स के लिए शहर आ जाता है. अपने तीन महीने के कोर्स में आधा समय तो माइक्रोसॉफ्ट ऑफ़िस पर टाइप करने और ई मेल का प्रयोग सीखने में निकल जाता है और फिर उसे अपने नये ई-मेल खाते पर ही नौकरी की ऑफ़र मिलती है. नौकरी की यह ऑफ़र अमरीका में है और वह कुछ ही महीनों में वहाँ जाने वाला है; वह मुझसे बात करके आश्वस्त होना चाहता है कि क्या उसे इतना वेतन मिलेगा कि वह विदेश में रहकर अपना निर्वाह कर सकेगा.

मैंने उसे नौकरी की ऑफ़र का पत्र मुझे ई मेल से भेजने के लिए कहा और मैंने तत्काल पहचान लिया कि यह स्पैम था. उसे एक क्रूज़ शिपिंग कंपनी में काम करने की ऑफ़र मिली थी, जो मियामी के बाहर स्थित थी. मैंने कंपनी से संपर्क किया और इस जॉब ऑफ़र के बारे में जानना चाहा. उन्होंने यह बात मानी कि यह एक झूठी ऑफ़र थी और वह इस झाँसे के बारे में जानते थे, लेकिन अब्दुल्ला ने “स्पैम” के बारे में कभी सुना ही नहीं था और गलत हिज्जों और वेतन की बड़ी रकम के बारे में उसे कुछ समझ में नहीं आया. बाद में उसके कॉलेज के एक दोस्त को भी ऐसी ही ऑफ़र मिली. उसने सोचा कि तकनीकी डिग्री पाने वाले कितने ही भारतीय अमरीका में काम करते हैं. उसे भी इसी तरह से ऑफ़र मिली है. स्पैमरों ने दिल्ली में कंपनी के नाम पर एक झूठा दफ़्तर भी खोल लिया था. अगले महीने अब्दुल्ला वहाँ भी गया और अमरीकी वीज़ा के लिए उसने उन्हें 50,000 रुपये भी पकड़ा दिये, लेकिन अमरीकी वीज़ा फिर भी नहीं मिला (फिर भी उसका सौभाग्य था कि बाद में उसे अपनी रकम वापस मिल गयी).

मोज़िला फ़ाउंडेशन तकनीकी साक्षरता की पाठ्यचर्या को चिह्नित और निर्मित करने वाला एक अग्रणी संस्थान है. हाल ही में इस संस्थान ने “21 वीं सदी के कौशल” प्रस्तावित किये हैं, जो सफलता के लिए आवश्यक हैं. इस फ़ाउंडेशन ने इसे दो व्यापक वर्गों में विभाजित किया है, वैब साक्षरता या समस्याओं के समाधान के लिए विशिष्ट कौशल. उन्होंने सामग्री के मूल्यांकन के लिए और अपने-आपके ऑनलाइन संरक्षण के लिए ऐसी योग्यताओं को चिह्नित किया है, जो वैब साक्षरता संबंधी कौशलों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं और वे यह मानते हैं कि ऑनलाइन वाचन और संचार के लिए ये कौशल बहुत आवश्यक हैं.

अब्दुल्ला की कहानी मात्र एक उदाहरण है, लेकिन यह कहानी इस बात पर प्रकाश डालती है कि पहले से ही कमज़ोर छात्रों को तकनीकी प्रशिक्षण में बढ़ते हुए जोखिम से बचाने के लिए गुणवत्ता नियंत्रण और व्यापक तकनीकी साक्षरता कौशल-दोनों की ही भूमिका कितनी आवश्यक है. उसका यह उदाहरण इंटरनैट, तकनीकी प्रशिक्षण और बढ़ती आर्थिक स्थिति के बीच के बेहद सरल समझे जाने वाले प्रत्यक्ष संबंधों को चुनौती देता है. आवश्यकता इस बात की है कि भारत 21वीं सदी के लिए आवश्यक तकनीकी प्रशिक्षण की परिभाषा को व्यापक स्वरूप प्रदान करे और अगर वह सबको समान अवसर प्रदान करना चाहता है तो देशव्यापी कंप्यूटर प्रशिक्षण केंद्रों की पाठ्यचर्या को विनियमित करने के लिए भी प्रयास करे.

कैथरीन ज़िस्कोव्स्की वाशिंगटन विश्वविद्यालय में सामाजिक-सांस्कृतिक मानवशास्त्र में डॉक्टरेट की प्रत्याशी हैं.

 

हिंदीअनुवादः डॉ. विजयकुमारमल्होत्रा, पूर्वनिदेशक (राजभाषा), रेलमंत्रालय, भारतसरकार<malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919