कोविड-19 के फैलाव की रोकथाम के लिए भारत सरकार द्वारा लागू किये गए देशव्यापी लॉकडाउन के सिर्फ़ पाँच दिनों के बाद ही 29 मार्च को UNDP सर्बिया द्वारा जारी किये गए ट्वीट में यह प्रकाशित किया गया था कि सर्बिया के विदेश मंत्री द्वारा भारत में उनके समकक्ष मंत्री से किये गए अनुरोध को ध्यान में रखते हुए भारत ने सर्बिया को नब्बे टन निजी बचाव उपकरणों (PPE) का निर्यात किया था. इसके बाद ही रिपोर्टरों, राजनीतिज्ञों और नागरिकों में सरगर्मियाँ बढ़ गईं कि आखिर ऐसी कौन-सी भारी ज़रूरत आ पड़ी थी कि खुद अपने स्वास्थ्य-कर्मियों की ज़रूरतों को दर-किनार करते हुए भारत ने सर्बिया को PPE का निर्यात किया. कुछ टिप्पणीकारों ने इसकी तुलना साम्राज्यवादी ब्रिटेन की मुक्त बाज़ार की उन नीतियों से की जिनके कारण सन् 1943 में बंगाल में अकाल पड़ा था. इस निर्णय पर प्रदर्शित नैतिक बेचैनी के अलावा, इस बात को लेकर भी भ्रम फैल गया कि जब भारत में कोविड- 19 के इलाज की घरेलू ज़रूरतों को पूरा करने के लिए हाल ही में वाणिज्य मंत्रालय ने आवश्यक महत्वपूर्ण चिकित्सा उपकरणों के निर्यात को प्रतिबंधित करने के लिए दिशा-निर्देश जारी किये थे तो कहीं यह निर्यात इन दिशानिर्देशों का उल्लंघन तो नहीं था.
मीडिया रिपोर्टों, भारत के वाणिज्य मंत्रालय के सरकारी बयान और नई दिल्ली स्थित सर्बियन राजदूत द्वारा जारी किये गए एक बयान के बाद यह स्पष्ट हो गया कि इस शिपमैंट में मुख्यतः केवल वही सर्जिकल दस्ताने थे जिनका उल्लेख न तो निर्यात के लिए प्रतिबंधित किसी भी सरकारी सूची में था और न ही देश में इनकी कमी थी. चिकित्सा उपकरणों के भारतीय निर्माता संघ (AiMeD) के मंच समन्वयक राजीव नाथ के अनुसार “जब हमने फ़रवरी के मध्य में निर्माताओं के यहाँ पिछली बार इसकी जाँच की थी तो उस समय भारत के पास 786 मिलियन दस्तानों की अतिरिक्त तादाद थी, इसलिए ज़रूरतमंद वैश्विक समुदाय को सहायता के तौर पर इसकी सप्लाई करने में कोई बुराई नहीं थी.” ऑल इंडिया ड्रग ऐक्शन नेटवर्क की मालिनी ऐसोला ने भी इसी तरह का बयान देते हुए कहा है कि "ऐसी कोई कमी नहीं लगती है" और "चूँकि हमें दैनिक उपयोग के लिए स्टैराइल दस्ताने सहित सभी मोर्चों पर तैयार रहने की आवश्यकता है, इसलिए यह शिपमैंट मानवीय सहायता के लिए था " और वाणिज्यिक निर्यात को विवादास्पद नहीं बनाया जाना चाहिए.” इसलिए यह प्रतीत होता है कि भारत ने अपने साधनों और क्षमता के अनुरूप ही सर्बिया को मानवीय सहायता प्रदान की थी और ऐसा करते समय भारत ने अपनी जनता और अगली पंक्ति के स्वास्थ्य कर्मियों की ज़रूरतों की अवहेलना नहीं की थी.
यह बहस कि भारत को किन शर्तों पर, कैसे और क्यों कोविड-19 के उपचार में मदद के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानवीय सहायता प्रदान करनी चाहिए, कोविड-19 के उपचार के विवादास्पद आशाजनक परिणामों को देखते हुए और इसकी घरेलू उपलब्धता को सुनिश्चित करने के बाद हाइड्रोक्लोरोक्वीन नामक दवा के निर्यात पर लगी पाबंदी को हटाने के कुछ ही दिनों में छिड़ गई. जैसा कि सर्बिया को भेजे गए पीपीए के शिपमैंट के मामले में हुआ था, वैसे ही भारत ने जब घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अपनी क्षमता के बारे में आश्वस्त किया तो जनता के बीच आरंभ में जो शंका पैदा हुई थी, वह धीरे-धीरे कम होने लगी.
इन दोनों ही घटनाओं और उन पर जनता की व्यापक प्रतिक्रिया से कुछ ऐसे विश्लेषणपरक तनावों का पता चलता है जो भारत की मानवीय सहायता के विमर्श के मूल में बसे हुए हैं- भारत वैश्विक मानवीय संकट से निबटने के लिए घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मानवीय प्रतिबद्धताओं के बीच कैसे संतुलन स्थापित करेगा? क्या भारत के लिए यह संभव है कि वह घरेलू दुविधा को ध्यान में रखते हुए उसके साथ ही साथ अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता की नैतिकता को भी बनाये रखे? आरंभ में सर्बिया को भारत सरकार द्वारा भेजे गए शिपमैंट की नैतिक निंदा का आंशिक कारण तो यही था कि भारत सरकार अपने नागरिकों, अगली पंक्ति में काम कर रहे अपने कर्मियों और सार्वजनिक स्वास्थ्य के अपने बुनियादी ढाँचे को दाँव पर लगाते हुए भारी कीमत चुकाकर विदेशों को मानवीय सहायता पहुँचाने में सक्षम भी है और इच्छुक भी. दूसरे शब्दों में, सोशल मीडिया में जो परेशानी व्यक्त की गई है उसका संबंध भारत के वास्तविक मानवीय पहलू से इतना नहीं है, जितना कि इस धारणा से है कि यह सारी प्रक्रिया ज़ीरो-सम गेम की तरह हो गई है जिसमें भारतीय नागरिकों का कुशल क्षेम व्यावसायिक लाभ और प्रतिष्ठा के लिए दाँव पर लगा दिया गया है.
लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मानवीय सहायता को ज़ीरो-सम लेन-देन की तरह सिद्ध करने की कोई ज़रूरत नहीं है. उदाहरण के लिए, 2004 में हिंद महासागर में जो सुनामी आई थी, वह एक वैश्विक मानवीय संकट की तरह थी, जिसमें भारत ने अपने अंतर्राष्ट्रीय मानवीय दायित्वों के साथ अपनी महत्वपूर्ण घरेलू मानवीय ज़रूरतों को भी संतुलित कर लिया था. यहाँ तक कि जब भारतीय सेना और नागरिक प्रशासन ने भारत के अंदर भी अपने लोगों के लिए सप्लाई का हवाई लदान किया था, उसी समय श्रीलंका, मालदीव और इंडोनेशिया को भी बहुत प्रभावी ढंग से और त्वरित गति से हमारी नौसेना ने समन्वित रूप में मदद पहुँचाई थी. कोविड-19 के मामले में अगर हम ज़रूरत से अधिक चिकित्सा उपकरणों और इलाज की सुविधाओं की उपलब्धता के संबंध में अधिकारियों के स्पष्टीकरण पर भरोसा कर लें तो सर्बिया को पीपीई शिपमैंट और उसके बाद 55 देशों को हाइड्रोक्लोरोक्वीन के निर्यात के निर्णय को वस्तुतः एक ऐसे प्रतीक के रूप में लेना चाहिए जिससे यह स्पष्ट होता है कि भारत का अंतर्राष्ट्रीय मानवतावाद घरेलू मानवीय दायित्वों के साथ सचमुच ही सह-अस्तित्व की भावना के साथ जुड़ा है.
हाल ही में भारत के अंतर्राष्ट्रीय मानवतावाद के अन्य उदाहरण भी हमारे सामने आए हैं. जैसे भारतीय वायुसेना ने “ऑपरेशन संजीवनी” चलाकर मालदीव को 6.2 टन अनिवार्य दवाओं और अस्पताल में प्रयुक्त वस्तुओं के साथ-साथ विषाणु परीक्षण की प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए चिकित्सा विशेषज्ञों का दल भेजकर, नेपाल में त्वरित प्रतिक्रिया दल भेजकर और क्षेत्रीय प्रतिक्रिया योजना तैयार करने के लिए वर्चुअल बैठक बुलाकर और अपने क्षेत्रीय पड़ोसी देशों के साथ अपने उपकरण, विशेषज्ञता और संसाधन साझा करने के लिए हाल ही में स्थापित सार्क आपात् निधि के एक भाग के रूप में $1 मिलियन डॉलर की राशि उपलब्ध कराई थी. महत्वपूर्ण बात तो यह है कि इन व्यवधानों के कारण घरेलू मानवीय आवश्यकताओं की अवहेलना नहीं की गई और इससे यह भी एक बार फिर से सिद्ध हो गया कि अंतर्राष्ट्रीय मानवीय सहायता के लिए ज़ीरो-सम के तर्क को लागू करने की आवश्यकता नहीं है.
लेकिन आश्चर्यजनक तो वे आंतरिक अंतर्विरोध हैं जो भारत के मानवतावादी दर्शन में निहित हैं. भले ही भारत ने लगभग 40,000 विदेशी नागरिकों को भारत से उनके गृह देशों में प्रत्यर्पित करने में राजनयिक मिशनों से सहयोग किया हो और मार्च के मध्य से विदेशों से भारतीय नागरिकों को वापस लाने के लिए विभिन्न प्रकार की पहलों को समन्वित किया हो, लेकिन वह देशव्यापी लॉकडाउन लागू करने से पहले अपने घरेलू प्रवासी समुदायों को उनके घर सुरक्षित पहुँचाने की समस्याओं का समय से पहले अंदाज़ा नहीं लगा सका. जहाँ एक ओर भारत अफ़गानिस्तान को 5,000 मीट्रिक टन अतिरिक्त गेहूँ भेज सकता है, वहाँ उसने अपनी राज्य सरकारों को अतिरिक्त अनाज की सप्लाई रोक दी. अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इस अतिरिक्त अनाज से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की परिधि से बाहर जाकर लोगों को राशन सप्लाई किया जा सकता था और उन्हें भुखमरी के जोखिम से बचाया जा सकता था. भारत ने अंतर्राष्ट्रीय गुहार पर तो इटली, मालदीव और सर्बिया जैसे दूर-दराज के देशों के तकलीफ़ में फँसे लोगों की मदद की और उन्हें बहुत शीघ्रता से कुशलता पूर्वक चिकित्सा उपकरण और विशेषज्ञ उपलब्ध करवाये, लेकिन भारत के स्वास्थ्यकर्मियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए महत्वपूर्ण पीपीई उपकरण उपलब्ध कराने और उनके निर्माण करते समय अपने कदम पीछे हटा लिये.
इनमें से हरेक मामले में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूरी ज़िम्मेदारी के साथ अपनी प्रतिबद्धता दर्शायी है, लेकिन अपने ही देश में उत्तरदायित्व, एकजुटता और न्याय की भावना के साथ कर्तव्यपालन में संकल्प दिखाने में वह सफल प्रतीत नहीं होता. प्रधानमंत्री मोदी ने अमरीका के लिए हाइड्रोक्लोरोक्वीन के निर्यात पर लगी पाबंदी को अंततः हटाने से पूर्व कोविड-19 के संबंध में द्विपक्षीय सहयोग पर चर्चा करते हुए राष्ट्रपति ट्रंप से कथित तौर पर कहा था कि “जो हम कर सकते हैं, अवश्य करेंगे.” भारत की कोई भी रणनीतिक प्रेरणा क्यों न हो, इस बात में संदेह नहीं है कि विश्व मानवता और स्वास्थ्य संकट के बीच भारत में एक अनुकरणीय सहज वृत्ति तो अवश्य ही निहित है. लेकिन यह सहज वृत्ति भारत के घरेलू मानवीय संदर्भों में नदारद ही दिखाई देती है और यह इस बात से सिद्ध हो जाता है कि देशव्यापी लॉकडाउन की रणनीति को जिस अप्रभावी तरीके से लागू किया गया, उसके कारण देश के सबसे कमज़ोर तबकों को भारी तकलीफ़ों से गुज़रना पड़ा.
इस प्रकार की विसंगतियों का उत्तर यह बिल्कुल नहीं है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में मानव सहयोग की अपनी नीति में कोई ढिलाई करे. अंततः भारत की अंतर्राष्ट्रीय मानव सहयोग की सहज वृत्ति घरेलू क्षेत्र में उसके मानवीय व्यवहार के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराई नहीं जा सकती. इसलिए सहायता, अंतर्राष्ट्रीयवाद, सहयोग, समुदाय और एकजुटता के रूप में जो मूल तत्व लंबे समय से भारत की चिरसिंचित विदेश नीति की अस्मिता और भावना में निहित हैं, उसे भारत को आगे भी हमेशा कायम रखना होगा और रखना चाहिए भी. ये वे मूल्य हैं, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में सँजोकर रखना चाहिए. अकेलेपन और शत्रुता के कारण इन मूल्यों का निरंतर ह्रास होने लगा है. महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हमारे घरेलू संदर्भ में भी इन्हीं मूल्यों को कार्य रूप में परिणत करने और लागू करने की आवश्यकता है.
ज़रूरत इस बात की है कि एक ऐसा नैतिक ढाँचा तैयार किया जाए जिसके दिशा-निर्देशों के अनुरूप अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू दोनों ही संदर्भों में ज़िम्मेदारी के साथ मानवीय आचरण सुनिश्चित किया जा सके और दोनों ही एक दूसरे के पूरक सिद्ध हो सकें. उदाहरण के लिए, इसके लिए आवश्यक है कि भारत की अंतर्राष्ट्रीय मानवीय सहायता के लेन-देन की तुलना में संभावित घरेलू लेन-देन की मात्रा, प्रेरक तत्वों, तर्कों और निहितार्थों को जनता के सामने पारदर्शी रूप में रखा जाए. साथ ही यह भी आवश्यक है कि व्यापक आवश्यकताओं के आकलन के लिए एक स्वायत्त तंत्र विकसित किया जाए, जो उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप और निवेदन किये जाने पर आवश्यकता के आधार पर तत्काल, मध्यम और दीर्घकालीन घरेलू आवश्यकताओं की मात्रा और सीमाओं का आकलन करे.
यह भी संभव है कि किसी और महामारी के नाम पर या जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न किसी और आपदा के नाम पर वैश्विक सहायता के लिए बार-बार गुहार लगाई जाए और भविष्य में इस तरह की माँगें बढ़ती ही चली जाएँ. 2004 के सुनामी या कोविड-19 की तरह ये आपदाएँ अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी के इससे भी अधिक देशों के सामने आ सकती हैं. आज की तरह एक बार फिर भारत के सामने ये सवाल उठेंगे कि अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के साथ घरेलू दायित्वों का सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए. अंतर्राष्ट्रीयवाद और घरेलू आवश्यकताओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने में बहुत झंझट होगा और यह प्रक्रिया भी अधूरी बनी रहेगी. इससे भारत के मानवतावाद का एक नया मानक स्थापित होगा और उत्तर कोविड-19 की दुनिया में भारत उस मार्ग पर अग्रसर होगा.
सुप्रिया रॉयचौधुरी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के न्यून्हैम कॉलेज फ़ॉर ग्लोबल स्टडीज़ के मार्गरेट ऐन्स्टी केंद्र में राजनीतिक भूगोलवेत्ता और विश्लेषक हैं.
हिंदी अनुवादः डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919