भारत को ज़रूरत है सड़कों की. देश भर में माल-असबाब और लोगों के निर्बाध आवागमन के लिए हमारे लिए रोड नैटवर्क बेहद आवश्यक है और इसकी मदद से ग्रामीण इलाके भी पूरे देश से जुड़ जाएँगे. रेल मार्ग और भारत की सड़कें सारे देश में एकता स्थापित करती हैं, लेकिन सवाल यह है कि भारत में कितनी सड़कें होनी चाहिए? यह तो स्पष्ट हो ही जाना चाहिए कि देश के अधिक से अधिक कितने इलाके में रोड नैटवर्क होना चाहिए. अगर हम सड़क पर आने वाली भारी लागत को थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें तो भी अवसर की लागत पर विचार तो होना ही चाहिए; यह भी स्पष्ट है कि सड़क-निर्माण के लिए आबंटित ज़मीन का उपयोग किसी और काम के लिए नहीं किया जा सकता. साथ ही कुछ और बातों पर भी विचार होना चाहिए. सड़कों के साथ लगी कुछ और ज़मीन भी छोड़नी होती है और भारत जैसे देश में, जहाँ सरकारी और निजी ज़मीनें मिली-जुली होती हैं, भूमि अर्जन की अपनी वित्तीय और राजनैतिक लागत भी होती है.
सड़क-निर्माण के साथ दीर्घकालीन जटिलताएँ भी जुड़ी होती हैं, खास तौर पर पर्यावरण और पारिस्थितिकी (इकॉलॉजी) के संबंध में. सड़क-निर्माण से ईको-सिस्टम में भी बदलाव आता है; सड़क-निर्माण की सामग्री से होने वाले खनन-कार्यों और सड़क की सुनियोजित योजनाओं के लिए पेड़ काटे जाते हैं और खोदी गई चट्टानों और पथरीले टुकड़ों के ढेर को हटाना पड़ता है. वैसे तो मात्र ईको-सिस्टम में ही बदलाव आने से स्थायी प्रभाव पड़ने लगता है और सड़क के सिर्फ़ होने से ही दीर्घकालीन प्रभाव पड़ जाता है और इसके कारण पर्यावरण से प्रभावित होने वाली वस्तुओं में बदलाव आ जाता है. जैसे भूमिजल की पुनर्भराव दर, स्थानीय जैव विविधता और यहाँ तक कि स्थानीय तापक्रम में भी बदलाव आ जाता है. जो इलाका पहले वन्य क्षेत्र था, उस पर भी उनकी पहुँच हो गई और वन्यजीवों के अवैध शिकार और अवैध रूप में पेड़ों की कटाई की वारदातें बढ़ने लगीं. और जब सड़कों पर यातायात होने लगा तो ये वारदातें और भी कई गुना बढ़ गईं. सड़क से गुज़रने वाले वन्यजीव वाहनों से टकराने लगे, जिसके कारण या तो वे घायल हो जाते हैं या फिर मर जाते हैं. समय के साथ-साथ सभी जानवर सड़कों से बचकर गुज़रने लगते हैं और इसी कारण उनके खाने, पानी और रहने के ठिकाने भी कम होने लगते हैं और वे खत्म होने के कगार पर पहुँचने लगते हैं.
जहाँ एक ओर सड़क-निर्माण के पक्ष में हर तरह के तर्क दिये जा सकते हैं, वहीं इसके विपक्ष में में भी कई तर्क रखे जा सकते हैं और यह बात विश्व भर में सही है, लेकिन भारत में इसका दंश कहीं गहरे में चुभने लगता है. हमारे सामने उस समय विषम स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जब एक ओर भारी जनसंख्या का दबाव होता है और दूसरी ओर कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में जैव विविधता के सघन क्षेत्र सामने होते हैं.
जहाँ एक ओर लोगों को सड़कों की ज़रूरत है तो दूसरी ओर स्वच्छ वायु और स्वच्छ जल के लिए हम ईको सिस्टम पर निर्भर होते हैं. वन्य क्षेत्रों के नष्ट होने के कारण ही यह समस्या पैदा होती है. इन हालातों में इधर या उधर की बात नहीं की जा सकती. भारतवासियों को सड़कों और शुद्ध ईको सिस्टम दोनों की ही ज़रूरत है. न तो विकास की गति को रोका जा सकता है और न ही दोनों में से किसी एक को बढ़ावा देने के लिए अन्य की हानि की जा सकती है. इन दोनों बातों से ही अंततः देश को हानि पहुँचेगी. सड़कों से होने वाले लाभ को अधिकाधिक बढ़ाने के लिए और उससे होने वाले दुष्प्रभाव को न्यूनतम करने के लिए अधिक से अधिक समय लगाकर और प्रयास करके यह तय करना चाहिए कि सड़कें कहाँ बनाई जाएँ. ल़ॉरेंस ऐट ऑल ने “सड़क निर्माण की वैश्विक रणनीति” (ए ग्लोबल स्ट्रैटजी फ़ॉर रोड बिल्डिंग; नेचर, 2014) से संबंधित अपने देशीय अध्ययन में कृषि उत्पादकता के लाभ के मुकाबले पर्यावरण पर सड़कों के संभावित दुष्प्रभाव की तुलना करते हुए वैश्विक स्तर पर इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया है. भारत में देश की विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए इस पर विशेष अध्ययन की आवश्यकता है और यह अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है, क्योंकि इसकी मदद से नियोजनकर्ता कोई भी कदम उठाने से पहले सड़क-निर्माण के दोनों पक्षों का स्पष्ट रूप में मूल्यांकन कर सकेंगे.
जिन मामलों में नई सड़क का निर्माण आवश्यक समझा जाता है, वहीं पर्यावरण पर संभावित दुष्परिणामों पर भी विचार किया जाना चाहिए. ऐसी हालत में नीति-निर्धारकों को अल्पीकरण के अनुक्रम का पालन करना चाहिए. इस पारदर्शी चरणबद्ध प्रक्रिया को अपनाकर ही किसी सड़क के निर्माण का पर्यावरण पर होने वाले संभावित प्रभाव का मूल्यांकन किया जाना चाहिए और इस बात के प्रयास किये जाने चाहिए कि इस दुष्प्रभाव को समाप्त या कम कैसे किया जा सकता है. इन दुष्प्रभावों को चिह्नांकित करके ही उन्हें रोका या कम किया जा सकता है और जिन दुष्प्रभावों को रोका नहीं जा सकता, उन्हें कम करके या उनकी क्षतिपूर्ति करके ही ईको सिस्टम की सेवाओं के संरक्षण का मार्ग प्रशस्त हो सकता है और साथ ही सड़क निर्माण का काम भी अबाध गति से चलता रहेगा.
दुर्भाग्यवश, सड़कों के शीघ्र निर्माण की राजनैतिक आवश्यकता के कारण सड़क निर्माण के लिए ज़िम्मेदार एजेंसियों के पास न तो इतना समय होता है और न ही दीर्घकालीन योजनाएँ बनाने के लिए इतना प्रयास करने को वे उद्यत होते हैं. जो वन्य भूमि पहले सड़क निर्माण के लिए प्रतिबंधित थी या जो वन्यजीवों के रहने के प्रमुख ठिकाने थे, वहाँ से होकर जाने वाली सड़कों के निर्माण के हाल ही में रखे गये प्रस्ताव बेहद अल्पकालिक हैं. इन प्रस्तावों को देखकर उन बड़े बाँधों का युग सामने आ जाता है, जब इनके निर्माण से न केवल बड़े पैमाने पर मानव समुदाय का भारी विनाश हुआ था, बल्कि पर्यावरण का इतना अधिक नुक्सान हुआ था कि उसकी भरपाई इन बाँधों के निर्माण के कपोल-कल्पित लाभ के आँकड़ों से भी नहीं हो सकती थी. लेकिन राजनेताओं को लगता है कि सड़क निर्माण के वायदे करके मतदाताओं को लुभाया जा सकता है और इस बात का अंदाज़ा सभी स्तरों पर राजनेताओं के भाषणों से आसानी से लगाया जा सकता है; जहाँ एक ओर विधान सभा के सदस्य यह वादा करते हैं कि सड़क बनाकर उनके गाँवों को निकटतम शहरों से जोड़ दिया जाएगा, वहीं केंद्र सरकार के मंत्री यह दावा करते हैं कि सारे देश में 40 किलो मीटर प्रतिदिन के हिसाब से सड़क निर्माण का कार्य किया जाएगा. ये सभी राजनेता चुनावी चक्र को ध्यान में रखते हुए अल्पकालिक दृष्टि से ही अपनी योजनाएँ बनाते हैं, क्योंकि राजनीति की दृष्टि से यही बात प्रभावकारी सिद्ध होती है और इस तरह से वे लोग अपनी पूरी सोच को सीमित कर लेते हैं.
इसलिए यह दायित्व अब भारत की सिविल सोसायटी पर, भारत की न्यायपालिका पर और सड़क परियोजनाओं के लिए वित्तपोषण करने वाले विकास बैंकों पर आ जाता है कि वे यह सुनिश्चित करें कि प्रस्तावित सड़क परियोजनाओं को कार्यान्वित करने से पहले उसकी लागत और उससे होने वाले लाभ पर गंभीरता से विचार कर लिया जाए. सड़क निर्माण के लिए उत्तरदायी सरकारी और गैर सरकारी एजेंसियाँ सार्वजनिक बहस और चर्चा के माध्यम से प्रस्तावित सड़क के नैटवर्क को सुनिश्चित कर लें. नियोजन के स्तर पर वन्यजीवन और पर्यावरण विशेषज्ञों के साथ-साथ आम जनता का रचनात्मक फ़ीडबैक लेकर भी हम वास्तविक निर्माण के दौरान ही कानूनी चुनौतियों या विरोध के कारण होने वाली देरी और लागत में संभावित वृद्धि को टाल सकते हैं. भविष्य के लिए विवेक-सम्मत योजना बनाकर ही भारत में विश्व-स्तर के रोड नैटवर्क बनाये जा सकते हैं. इससे सभी नागरिकों की ज़रूरतों को पूरा किया जा सकेगा.
शशांक श्रीनिवास वन्यजीवन प्रौद्योगिकी (Technology for Wildlife) के संस्थापक है. यह एक ऐसी सलाहकार सेवा है, जो वन्यजीवन और पर्यावरण के संरक्षण के लिए प्रौद्योगिकी को उपलब्ध कराने और उसके इस्तेमाल को समझने के लिए संबंधित संगठनों की मदद करती है. वह कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के स्नातक हैं और उन्होंने इस विवि से संरक्षण नेतृत्व से संबंधित कार्यक्रम में एम.फ़िल किया है.
हिंदी अनुवादः विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919