Penn Calendar Penn A-Z School of Arts and Sciences University of Pennsylvania

क्या सार्वजनिक सेवाओं में सुधार लाने से ग्राहकवाद में कमी आ सकती है?

Author Image
Author Image
14/08/2017
ओलिवर हीथ और लुईस टिलिन

भारत सरकार के भारत के आर्थिक सर्वेक्षण में इस बात पर खेद प्रकट किया गया है कि भारतीय राज्य “प्रतियोगी सर्विस डिलीवरी” के बजाय “प्रतियोगी लोकप्रियता” (अर्थात् माल और सेवाएँ देने) में अधिक दिलचस्पी लेने लगे हैं. इसके फलस्वरूप भारत में राज्य की क्षमता घटने लगी है अर्थात् स्वास्थ्य-चर्या और शिक्षा प्रदान करने में भारतीय राज्य अक्षम होने लगे हैं या इसका अर्थ यह भी है कि वे उन कार्यक्रमों को भी लागू करने में असमर्थ होते जा रहे हैं जो गरीबों की मदद के लिए शुरू किये गये थे.

अनेक भारतीय राज्यों में नागरिकों को अपने कानूनी अधिकार नहीं मिल पाते, इसका एक कारण यह भी है कि उनका ग्राहकवाद से जुड़े संबंधों के प्रति अब भी दुराग्रह बना हुआ है. बुनियादी माल और सेवाओं जैसी नेमी सुविधाओं का मज़े से लाभ उठाने के बजाय भारत के गरीब नागरिक स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक स्थानांतरण के लिए भी अपने सामाजिक और राजनैतिक कनैक्शन पर ही निर्भर रहते हैं. उनके अधिकार अक्सर ऐसे नैटवर्क पर ही निर्भर करते हैं. यही कारण है कि राजनैतिक दल ऐसे स्थानीय दलालों की गतिविधियों पर निर्भर करते हैं जो मतदाताओं का विश्वास जीत लेते हैं और माल और सुविधाएँ दिलाने के लिए बिचौलियों की तरह काम करते हैं. चुनावों के दौरान राजनैतिक पार्टियाँ नकदी और माल भी बड़ी मात्रा में लुटाती हैं. जहाँ एक ओर वोट खरीदने के तमाम प्रयासों के बारे में बड़े स्तर पर बहसें होती रहती हैं, वहीं इस तरह के माल की लूट से बच निकलना भी पार्टियों के लिए महँगा सौदा बनता जा रहा है. और यही कारण है कि भारत के चुनाव बेहद महँगे होते जा रहे हैं.

आखिर राजनैतिक नेता चुनाव जीतने के लिए वोट खरीदने और ग्राहकवाद की अन्य रणनीतियाँ अपनाने पर ही क्यों ज़ोर देते हैं, इस बारे में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री फ़िलिप कीफ़र और रज़वान व्लैकू ने एक कारण बताया है कि ये नेता इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि सार्वजनिक नीतियों के बारे में किये गये अपने वायदों के आधार पर अपनी विश्वसनीयता कायम करना बहुत महँगा सौदा है. जहाँ राज्य की क्षमता कमज़ोर होती है, वहाँ राजनीतिज्ञ अपने नीतिगत लक्ष्यों को हासिल करने में कठिनाई अनुभव करते हैं. ऐसी स्थिति में इस बात की संभावना अधिक रहती है कि वे ग्राहकवाद की अपनी रणनीति पर ही निर्भर रहें.  ग्राहकवाद की अपनी रणनीति पर ही निर्भर रहने के कारण नौकरशाही की क्षमता कमज़ोर हो जाती है और वे निष्पक्ष रूप में सार्वजनिक भलाई का काम नहीं कर पाते और अपनी जवाबदेही भी नहीं निभा पाते और इसके कारण एक दुष्चक्र बन जाता है.

एक बार जब दुष्चक्र बन जाता है तो इसे तोड़ने के लिए क्या किया जाना चाहिए ? और क्या सार्वजनिक सेवाओं की डिलीवरी में सुधार लाने के प्रयासों से ग्राहकवाद और वोट खरीदने की रणनीतियों के प्रभाव को कम किया जा सकता है? जब राज्य सरकारें मूलभूत सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं में लगी स्थानीय सरकारी संस्थाओं की कार्यशैली में सुधार लाने के लिए प्रयास करती हैं तो क्या होता है? हमारे शोध-कार्य इससे जुड़े तमाम सवालों पर रोशनी डालते हैं और इस संबंध में पूरी छान-बीन भी करते हैं. भारतीय राज्यों के अध्ययन से अनेक ऐसे साक्ष्य भी मिले हैं जिनसे पता चलता है कि राज्यों के नेता अपने चुनावी परिणामों में सुधार लाने के एक साधन के तौर पर सेवाओं में सुधार लाने का प्रयोग करते हैं.   हाल ही के हमारे शोध से यह पता चलता है कि जहाँ सुधारों के ये प्रयास सफल होते हैं, वहाँ इस बात की कम संभावना रहती है कि साधारण और गरीब मतदाता राजनैतिक दलों द्वारा की जाने वाली वोटों की “खरीदारी” के प्रयासों में कम दिलचस्पी दिखाते हैं. लेकिन जब सार्वजनिक सेवाओं की कार्यप्रणाली ठीक ढंग से काम नहीं करती तो लोग वोटों की खरीदारी के जाल में फँसने लगते हैं.

सन् 2000 में मध्य भारत में मध्य प्रदेश राज्य के विभाजन से छत्तीसगढ़ का एक नया राज्य बना था. इन बिंदुओं पर शोध करने के लिए हमने इस विभाजन के कारण उत्पन्न तुलनात्मक स्थिति को अपना आधार बनाया. सीमा-पार के सर्वेक्षण में अध्ययन के लिए हमने नवगठित राज्य के एक तरफ़ के उन गाँवों को चुना, जहाँ सामान्यतः गरीबी, राजनैतिक प्रतिस्पर्धा, आर्थिक-सामाजिक ढाँचे, जातीय और रक्तसंबंध वाले रिश्तों और प्रशासनिक इतिहास जैसे ग्राहकवाद से जुड़े कारकों पर हम अपना कड़ा नियंत्रण रख सकते थे, लेकिन विभाजन के बाद दोनों राज्यों के राजनैतिक नेताओं (दोनों ही भाजपा के थे) ने सार्वजनिक सेवाओं की डिलीवरी की दृष्टि से महत्वपूर्ण संस्थाओँ के कार्य-परिणामों को आकार देने के लिए स्थानीय नौकरशाही के साथ काम करने का अपने-अपने ढंग से अलग-अलग निर्णय किया. जहाँ एक ओर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कृषि के विकास को चुनावी मंच का केंद्रबिंदु बनाया, वहीं पड़ोसी राज्य के मुख्यमंत्री रमण सिंह ने ग्रामीण किसानों को प्राथमिकता के आधार पर अपना लक्ष्य बनाया. इसके द्वारा उन्होंने ग्रामीण इलाकों की भारी गरीबी और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के माध्यम से संचालित आर्थिक विकास के विषम पैटर्न के संदर्भ में भाजपा के सामाजिक आधार को व्यापक बनाने का प्रयास किया. उनके दृष्टिकोण की भिन्नता का परिणाम यह हुआ कि सीमा के दोनों ओर रहने वाले लोगों का अनुभव खास तौर पर गरीबी निर्मूलन के निम्नलिखित कार्यक्रमों के बारे में बिल्कुल अलग-अलग था; सब्सिडी वाले खाने-पीने के सामान की डिलीवरी के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) और महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा).

2013 के उत्तरार्ध में राज्य की सीमाओं के दोनों ओर के 40 गाँवों के 480 मतदाताओं ने यह पुष्टि की है कि मध्य प्रदेश के लोगों की तुलना में छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों को समाज कल्याण सेवाओं का लाभ अधिक कुशलता, सरलता और सहजता से मिला. इसके विपरीत मध्यप्रदेश के सीमावर्ती इलाकों के गाँवों में रहने वाले लोगों को स्थानीय बिचौलियों के हस्तक्षेप के कारण लक्ष्य के अनुरूप पूरा लाभ नहीं मिल पाया. छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले 94 प्रतिशत लोगों को राशन कार्ड मिला, इसके विपरीत मध्य प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले 81 प्रतिशत लोगों को यह सुविधा प्राप्त हुई. गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती इलाकों में 79 प्रतिशत लोगों को और मध्य प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले केवल 34 प्रतिशत लोगों सरकारी योजनाओं का लाभ मिला. पीडीएस के लाभकर्ताओं को भी 92 प्रतिशत के मुकाबले केवल 46 प्रतिशत और मनरेगा के लाभार्थियों का प्रतिशत क्रमशः 44 और 28 रहा. पीडीएस के कार्य-परिणामों से लोग संतुष्ट रहे.  

सीमा के दोनों तरफ़ के इलाकों में हमने अनेक सर्वेक्षण-प्रयोग किये, जिनमें हमने लोगों से वोटों की काल्पनिक खरीदारी के बारे में अनेक सवाल किये. हमारे विश्लेषण के नतीज़ों से पता चलता है कि मध्य प्रदेश की तरफ़ के लोग खराब संस्थागत कार्य-परिणामों के संदर्भ में छोटी प्रोत्साहन राशियों के बारे में छत्तीसगढ़ के अच्छे संस्थागत कार्य-परिणामों की तुलना में कहीं अधिक मुखर थे. हम अनुसूचित जनजाति समुदाय से जुड़े, गरीबी की रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले और शिक्षा से वंचित लोगों के संभावित उत्तरों के आधार पर ऩतीज़ों के प्रभाव का आकलन करते हुए यह बता सकते हैं कि सीमा के किस तरफ़ रहने वाले लोग किस लाभ के आधार पर किस पार्टी को अपना वोट देंगे. इस प्रकार के मतदाता, एक छोटे-से लाभ (जैसे खाने-पीने की चीज़ों के वायदे) के लिए छत्तीसगढ़ की तरफ़ के बेहतर कार्य-परिणाम देने वाली संस्थाओं के संदर्भ की तुलना में मध्य प्रदेश की तरफ़ के खराब कार्य-परिणाम देने वाली संस्थाओं के संदर्भ में तीन-गुना अधिक वोट देंगे. यह बहुत बड़ा अंतर है. लेकिन जैसे-जैसे मिलने वाले लाभ का आकार बढ़ता जाता है, दोनों तरफ़ के मतदाताओं के बीच अंतर भी घटता जाता है और इसका सांख्यिकीय महत्व भ कम होता जाता है. जब दवाएँ, नलकूप या रोज़गार दिया जाता है तो किसी भी तरफ़ के मतदाताओं के बीच कोई खास अंतर दिखाई नहीं देता.

इन नतीज़ों का केंद्रीय निहितार्थ यही है कि लाभों या सेवाओं के वितरण के द्वारा वोट ‘खरीदने’ के प्रयासों का प्रभाव स्थानीय संस्थाओं और सर्विस डिलीवरी की गुणवत्ता से आधा रह जाता है. अगर संस्थाओं का काम ठीक से नहीं चलता और लोगों को उसका पूरा लाभ नहीं मिल पाता तो सार्वजनिक नीतियों के माध्यम से घोषित लाभों के मिलने की संभावना बहुत कम रह जाती है. ऐसे हालात में समझदार मतदाता भविष्य को सामने रखकर अल्पकालिक लाभों से ही संतुष्ट हो जाता है. लेकिन जब संस्थाएँ सीमित रूप में भी अच्छी तरह काम करती हैं तो मतदाता नीतिगत वायदों और नीति के कार्यान्वयन के बीच बेहतर संपर्क स्थापित कर लेता है और फिर इस बात की कम संभावना रहती है कि वह अल्पकालिक भुगतान के लिए बेहतर नीतिगत परिणामों को छोड़ देता हो. इसलिए खराब संस्थागत कार्य-परिणामों के कारण आज के प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अंतरण पुनर्वितरित की जाने वाली भावी सार्वजनिक नीतियों की तुलना में कहीं अधिक आकर्षक लगते हैं. लेकिन अधिक महत्वपूर्ण बात तो यही है कि हमारे शोध से पता चलता है कि ये संबंध किसी पत्थर में उत्कीर्ण नहीं होते, बल्कि हम यह देख सकते हैं कि सामाजिक कल्याण के अच्छे कार्यक्रमों के कारण ग्राहकवाद के सस्ते और अस्थायी रूपों की माँग भी घटने लगती है.

ओलिवर हीथ राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं और लंदन विवि में राजनीति शास्त्र विभाग और आई आर, रॉयल वे में लोकतंत्र और चुनाव केंद्र के सह-निदेशक हैं. उन्हें @olhe पर ट्वीट किया जा सकता है. 

लुईस टिलिनराजनीति शास्त्र की वरिष्ठ लैक्चरर हैं और किंग्ज़ कॉलेज, लंदन के किंग्ज़ इंडिया इंस्टीट्यूट में उप निदेशक भी हैं. उन्हें @louisetillin पर ट्वीट किया जा सकता है.

इस लेख में शोध-कार्य का सारांश आर्थिक व सामाजिक शोध परिषद के सहयोग से किया गया है. (अनुदान सं. ES/K005936/1)

 

हिंदी अनुवादः  डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा, पूर्व निदेशक (राजभाषा), रेल मंत्रालय, भारत सरकार <malhotravk@gmail.com> / मोबाइल : 91+9910029919